Monthly Archives: September 2013

श्री पोन्नडिक्काल जीयर

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमते वरवरमुनये नमः

श्रीमते वानाचलमहामुनये नमः

हमने अपने पूर्व अनुच्छेद मे श्री अळगिय मणवाळ मामुनि के जीवन चरित्र की चर्चा की थी । आज हम आगे बढ़ते हुए श्री पोन्नडिक्काल जीयर के जीवन की चर्चा करेंगे जो अपने आचार्य मनवाल मामुनिगल के  प्राण सुकृत थे।

पोन्नडिक्काल जीयर – वानमामलै

पोन्नडिक्काल जीयर – तिरुवल्लिक्केनी

 

अवतार स्थल वानमामलै

आचार्य अळगिय मणवाळ मामुनि

शिष्य गण चोलसिंहपुरम्  महार्यर (दोड्डाचार्य), समरभुंगवाचार्य, शुद्द सत्त्वमण्णा, ज्ञानक्कण्णात्थान, रामानुजंपिळ्ळै, पळ्ळक्काल् सिध्दर, गोष्ठी पुरत्तैयर, अप्पाचियाराण्णा इत्यादि

स्थल जहाँ से वह परमपदम को प्रस्थान हुए वानमामलै

ग्रंथरचनासूची तिरुप्पावै स्वाभदेश व्याख्यान इत्यादि

पोन्नडिक्काल जीयर वानमामलै मे पैदा हुए और बचपन मे उनके मातापिता ने उनका नाम अळगिय वरदर रखा । वे बाद मे पोन्नडिक्काल जीयर के नाम से विख्यात / प्रसिध्द हुए । वह कई नामों से जाने गए थे जो कुछ इस प्रकार हैं वानमामलै जीयर्, वानाद्रि योगी, रामानुज जीयर्, रामानुज मुनि इत्यादि । वह श्री मणवाळ मामुनि के पेहले और महत्त्वपूर्ण शिष्य हुए ।

जब श्री मणवाळ मामुनि गृहस्थाश्रम मे भगवद्भागवतकैण्कर्य कर रहे थे तब पोन्नडिक्काल जीयर ने उनकी शरण ली और उनके शिष्य बने। उसी समय उन्होंने संयासाश्रम स्वीकार किये और श्री मणवालमामुनि के शेषकाल तक उनकी सेवा मे निमग्न हुए । पोन्नडिक्काल  का मतलब है वो जिसने ममुनिगल के शिष्य सम्पत की स्थापना की हो| उन्होंने पूरे भारत देश मे तोताद्रि मठों की स्थपना की और सत्साम्प्रदाय का प्रचार किया।

एक बार जब श्री मणवालमामुनि तिरुमलै यात्रा के लिये पहले बार जा रहे थे, उस समय पेरियप्पन्जीयर अपने स्वप्न में देखते हैं कि एक गृहस्थ व्यक्ति शय्यासन अवस्था मे हैं (यानि सो रहे हैं ) और उनके चरणकमलों के पास एक सन्यासी स्वामी उनकी सेवा कर रहे हैं। उसके पश्चात पेरियप्पन्जीयर आसपास के लोगों से पूछते हैं कि ये दोनो कौंन हैं और लोग कहते हैं कि एक व्यक्ति -“ईत्तु पेरुक्कर अळगिय मणवाळ पेरुमाळ नायनार” हैं और दूसरें पोन्नडिक्काळ जीयर हैं (जिनको स्वयम नायनार ने यह नाम दिया)

कहते हैं कि पोन्नडिक्काल जीयर के उत्कृष्ठ स्वभाव से सारे आचार्य उन्हें मणवाळमामुनि का उपागम (पुरुषाकार) समझते हैं और उन्ही के उपागम्यता से वे सारे, मणवाळमामुनि को पहुँच पाते थे । यतीन्द्रप्रभावम मे कहा गया है कि पोन्नडिक्काल जीयर की बदौलत बहुत सारे श्रीवैष्णव बने और उन सबको मामुनि का सम्भन्ध देकर उन सभी को भगवद्भागवतकैंकर्य मे संलग्न किये ।

जब कन्दादै और उनके रिश्तेदार मणवाळमामुनि के शिष्य बने तब श्री मणवाळमामुनि ने कहा कि पोन्नडिक्काल जीयर उनके प्राणों के सुहृत हैं और उन्हें वह सारा यश/कीर्ती इत्यादि प्राप्त होना चाहिए जो उनको स्वयम (श्रीमणवाळमामुनि) प्राप्त हुई । एक बार जब अप्पाचियाराण्णा, मामुनि को आचार्य के रूप मे स्वीकार कर उनके पास उनके शिष्य बनने की इच्छा से जाते हैं तब श्रीमामुनि, पोन्नडिक्काल जीयर को अपने आसन मे विराजमान करते हैं और उनके हाथ मे उनका शंख और चक्र सौंपकर उन्हें आदेश देते हैं कि अप्पाचियाराण्णा और कई सारे भक्तों का समाश्रयनम वह करें । हालांकि वे संकोच करते हैं कि वे इस कार्य को स्वीकार करें या ना करें परंतु उनके आचार्य (श्रीमणवाळमामुनि) के दृढ निश्चय को देखकर सभी भक्तों को अपने शिष्य के रूप मे स्वीकर करते हैं।

इसके पश्चात श्री मणवाळमामुनि आठ दिग्गज पोन्नडिक्काळजीयर के लिये नियुक्त करते हैं जो इस प्रकार हैं– – चोलसिंहपुरम्महार्यर (दोड्डाचार्य), समरभुंगवाचार्य, शुद्द सत्त्वमण्णा, ज्ञानक्कण्णात्थान, रामानुजंपिळ्ळै, पळ्ळक्काल् सिध्दर, गोष्ठी पुरत्तैयर, अप्पाचियाराण्णा |

जब अप्पाचियारण्णा को श्रीमणवाळमामुनि श्रीरंगम छोडकर कांचिपुरम जाने का आदेश देते हैं तब वे निराश हो जाते हैं। उस समय उनकी दुर्दशा देखकर श्रीमणवाळमामुनि कहते हैं कि उनका (श्रीमणवाळमामुनि का) रामनुजम् (तीर्थ सोम्बु लोटा) ले जाए (जिसकी पूजा पोन्नडिक्काल जीयर करते थे) और उसके धातु से श्रीमणवाळमामुनि की दो मूर्तियां बनाये एक अपने पास रखें और दूसरा अपने आचार्य (पोन्नडिक्काल जीयर) को दे । तो इस प्रकार अप्पाचियारण्णा श्रीमणवाळमामुनि की मूर्ती लेकर कांचिपुरम चले गए ।

उसके पश्चात दैवनायकन एम्पेरुमान (वानमामलै भगवान) श्री मणवाळमामुनि को श्री सेनैमुदलियार के द्वारा एक संदेश भेजते हैं जिसमे कहते हैं कि वानामामलै दिव्यदेश मे पोन्नडिक्काल जीयर की सेवा ज़रूरत है । उसके अनन्तर मणवाळमामुनि उन्हें आदेश देते हैं कि वे तुरन्त वानमामलै जाए और वहाँ अपना कैंकर्य करें । इसी दौरान श्री मणवाळमामुनि अपने शिष्यों को आदेश देते हैं कि वे सारे चार हज़ार पासुरों का पाठ सौ पासुरों के क्रम मे हर रोज़ करें । पेरियतिरुमोळि के सात्तुमुरै के दौरान जब अणियार् पोळिल् सूळ् अरन्गनगरप्पाका पाठ हुआ तब भगवान बहुत खुश हुए और उन्होनें एक अरन्गनगरप्पा (लक्ष्मी नारायण) की मूर्ती अपने संनिधि से पोन्नडिक्कालजीयर को प्रसाद के रूप मे दिया और कहे कि वह इसे वानामामलै ले जाए । कुछ इस प्रकार खुशि खुशि पेरियपेरुमाळ भगवान पोन्नडिक्कालजीयर को विशेष प्रसाद और शठकोप देकर उनकी बिदाई बहुत धूम धाम से करते हैं। इसके बाद मामुनि पोन्नडिक्कालजीयर को अपने मठ ले जाकर उनका तदियाराधन धूम धाम से करते हैं और उनकी बिदाई करते हैं ।

फिर पोन्नडिक्कालजीयर वानमामलै मे रेहकर बहुत सारे कैंकर्यों मे संलग्न होते हैं । उसी दौरान वह आस पास के दिव्यदेशों (जैसे नवतिरुपति , तिरुक्कुरुन्गुडि) इत्यादि और बद्रीकाश्रम जैसे यात्रा दिव्यदेशों मे अपनी सेवा बर्करार रखते हैं । उसी दौरान उनके अनेक शिष्य हुए और उन सबको प्रवचन देकर वह आदेश देते हैं कि वह सारे अपनी अपनी सेवा उन दिव्यदेशों मे करते रहें ।

पोन्नडिक्काल जीयर एक लम्बी उत्तर दिशा की यात्रा के लिये निकल पडे । उसी दौरान श्री मणवाळमामुनि अपनी लीला इस भौतिक जगत मे समाप्त कर परमपदम को प्रस्थान हुए । जब पोन्नडिक्काल जीयर अपनी यात्रा समाप्त करके तिरुमलै पहुँचते हैं तभी उन्हें पता चलता है कि उनके आचार्य परमपदम को प्रस्थान हुए और यह सुनकर बहुत दुःखित हो जाते हैं और उसी दुःखद अवस्था मे कुछ और दिनों के लिये रुख गए ।

पोन्नडिक्काल जीयर अपने इकट्ठित धन राशि (यात्रा के दौरन हासिल) श्रीरंगम को आते हैं और अपने आचार्य के पोते (जीयर्नायनार) और कई सारे श्रीवैष्णवों से मिलकर अपने आचर्य को खोने का दुःख बाँटते हैं । उस समय श्रीमणवालमामुनि के निर्देशानुसार , श्रीमणवालमामुनि का उपडण्दम् (डण्दा), अंगूठी (तिरुवाळिमोदिरम्), पादुकाएं श्रीपोन्नडिक्कालजीयर को सौंपते हैं। कहा जाता है कि आज भी उपडण्द वानमामलैजीयरों के डण्दों के साथ बांधा जाता है और विशेष दिनों मे श्रीमणवालमामुनि की अंगूठी पहनते हैं । अतः कुछ इस प्रकार वह वानमामलै वापस आकर अपना कैंकर्य निभाते हैं।

उस समय वानमामलै मे श्रीवरमंगैनाचियार का उत्सव विग्रह नही था और उसी से परेशान थे पोन्नडिक्काल जीयर । एक बार भगवान (दैवनायकन) उनके स्वप्न मे आकर कहते हैं कि वे तिरुमलै से नाचियार का उत्सव विग्रह लाना चाहिए। भगवान की इच्छा पूरी करने हेतु वे तिरुमलै जाते हैं। वहाँ पहुँचने के बाद उन्हें स्वप्न मे श्री नाचियार कहती है कि उन्हें वानमामलै तुरन्त ले जाए और उन्की शादी दैवपेरुमाळ से करवाई जाए । इसी दौरान तिरुमलै के जीयर्स्वामि के स्वप्न मे श्री नाचियार आती है और उन्हें भी यही उपदेश देती है । यह जानकर दोनों जीयर उनके आदेश को स्वीकर करते हैं और धूम धाम से नाचियार की बिदाई करवाते हैं । पोन्नडिक्काल जीयर श्री नाचियार को वानमामलै लाकर उनकी दैवनायकन पेरुमाळ भगवान से शादी धूम धाम अत्यन्त वैभव से करवाते हैं। पोन्नडिक्काल जीयर नाचियार के पिता स्वरूप बनकर उन्का कन्यादान दैवनायकन पेरुमाळ भगवान को करते हैं। दैवनायनक पेरुमाल कहते हैं कि जैसे भगवान् पेरियपेरुमाळ के ससुरजी पेरिआळ्वार हुए वैसे ही पोन्नडिक्काल जीयर उनके ससुरजी हुए और आज भी यह रीती रिवाज़ बहुत गर्व और सम्मान से किया जाता है और यही वानमामलै दिव्यदेश मे अनुसरण होता है ।

शिष्यों को कई सालों तक अपने महत्वपूर्ण निर्देशों की सूचना व्यक्त करने के पश्चात वह अपने आचार्य का ध्यान करते हुए अपने शरीर (चरम तिरुमेणि) का त्याग करते हैं और इस प्रकार उनको परमपदम की प्राप्ति होती है । वह अपने अगले उत्तराधिकारि (अगले जीयर वानमामलै मठ) को नियुक्त करते हैं और यह आचार्य परंपरा आज भी ज़ारी है ।

चलिये अब हम श्री पोन्नडिक्कालजीयर के चरणकमलों का आश्रय लेते हुए उनसे प्रार्थना करें कि हम सभी भक्तों में उनके जैसा आसक्ति, हमारे वर्तमानाऽचार्य पूर्वाचार्य और श्री भगवान (एम्पेरुमान) में हो ।

पोन्नडिक्कालजीयर का तनियन् (दोड्दाचार्य विरचित) –
रम्यजामात्रुयोगीन्द्रपादरेखामयम् सदा । तदा यत्तात्मसत्तादिम् रामानुजमुनिम् भजे ॥

दोड्दाचार्य ने पोन्नडिक्कालजीयर के महत्व/ श्रेष्ठता को संस्कृत श्लोकों से विरचित निम्नलिखित स्तोत्रों मे किया है जिसका भावार्थ अब हम सरल हिंदी में जानेंगे|

वानमामलै जीयर मंगलाशाशन

  1. मैं ऐसे श्री वानमामलै जीय़र के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जो श्री मणवाळमामुनि के कृपायुक्त हैं, जो स्वयम करुनासागर हैं, जो दिव्यहृदयी हैं, जिन्मे जन्म से ही दिव्यमंगल लक्षण है और जो स्वयमरूप से अळगीय वरदर हैं। 
  2. मेरी आराधना सिर्फ़ और सिर्फ़ श्री रामानुजजीयर के लिये है क्योंकि वह जीयर स्वामियों के और हमारे सांप्रदाय के अभिनेता हैं , और श्रीमणवाळमामुनि के कृपा से सारे सद्गुणों का समावेश हैं । 
  3. मैं ऐसे श्री ऱामानुज जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जो स्वयम श्री मामुनि के चरणकमलों में मधुमक्खि के तरह हैं और जो पूर्ण चन्द्रमा की तरह मेरे मन को हर्षित करते हैं । 
  4. मैं ऐसे श्री रामानुज जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जो वात्सल्य, शील / चरित्र और ज्ञान जैसे सद्गुणो के सागर हैं और जिनको श्री मणवाळमामुनि जीवन देने वाले सांस की तरह मानते हैं। 
  5. मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिन्होने ब्रह्मचर्य से सीधे संयास लिये और गृहस्थाश्रं और वानप्रस्थाश्रं को शर्मिन्दगि का एहसास दिलाये ।
  6. मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जो प्रथम हैं जिन्हे श्री मामुनिगल् के कृपा और आशीर्वाद की सम्प्राप्ति हुई और जो अपने कृपा से काम अथवा क्रोध जैसे कई दोशो से हमे विमुक्ति दिलाते हैं।
  7. मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जो स्वयम अनन्त सद्गुणो के धारक हैं और जो भौतिक संसार के इच्छावों और अनिच्छवों से विमुक्त हैं और जो स्वयम अरविन्द दलयताक्ष हैं।
  8. मैं ऐसे रामानुज जीयर को देखकर बहुत आनंद महसूस करता हूँ क्योंकि वैराग्य की लता जो हनुमान में सबसे पहले विकसित हुआ , वही भीष्म पितामह में और भी विकसित होकर बढ़ा और पूर्ण तरह श्री रामानुज जीयर मे विकसित होकर प्रफुल्लित हुआ । 
  9. मैं ऐसे रामानुजजीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिनके उभयवेदान्त उपंयास से बड़े अच्छे विदवानों आकर्शित होते हैं, जिनका स्वभाव और अनुशीलन सर्वोत्कृष्ट है और वही अनुशीलन संयासि करते हैं, जो दोष रहित हैं, जो संपूर्ण ज्ञान और सद्गुणो से भरपूर हैं और जिन्होने श्रीमणवालमामुनि के चरणकमलों का आश्रय लिया है । 
  10. मैं ऐसे रामानुजजीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिनके उपंयास मे पशुपक्षि घोषणा करते हैं कि श्रीमन्नारायण प्रधान (सर्वोच्च) है और अन्य देवता उनकी शेषी है । 
  11. मैं ऐसे रामानुजजीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिनके नयन कटाक्ष से अर्थपञ्च के ज्ञान की प्राप्ति होती है, जिन्होने कई सारे कैंकर्य (सेवा) वानमामलै दिव्यदेश मे किया और जो शिष्यों के लिये एक कल्पवृक्ष थे । 
  12. मैं ऐसे रामानुजजीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिन्होने अपने शुध्द दिव्य कृपा से मुझे भगवद्भागवत कैंकर्य मे संलग्न किया (यानि परिवर्तन/सुधार किया जो इस भौतिक जगत के आनंद मे संलग्न था और जिसे श्रीवैष्णवों के प्रति कदाचित रूची नही थी) । 
  13. मैं ऐसे रामानुजजीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जो ज्ञान के भण्डार हैं , जिनकी वजह से वैराग्य शान्ति पूर्वक विश्राम ले रहा है , जो एक कीमती खज़ाना के पेटी की तरह हैं और जो सत्साम्प्रदाय के अगले उत्ताराधिकारि (जिसे श्री एम्पेरुमानार ने खुद स्थापित किया) के काबिल और सक्षम हैं । 
  14. मैं ऐसे रामानुजजीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिनमे श्रीमामुनि की कृपा का समावेश है , जो सद्गुणों के भण्डार हैं और दैवनायकन एम्पेरुमान के प्रति जिन्हे असीमित लगाव है। 

वानमामलै जीयर प्रपत्ति

1) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जो एक खिले हुए फूल की तरह सुंदर हैं , जिन्हें देखर नयनानंद की प्रप्ति होती है , जो हमे इस भवसागर के जाल से बचा सकते हैं।

2) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिन्होनें यश और कीर्ती श्री मणवाळमामुनि के दिव्यानुग्रह से प्राप्त की , जो हमारे कमियों को नष्ट करने मे सक्षम हैं, जो शिष्यों के लिये एक कल्पवृक्ष हैं और जो सद्गुणों के सागर हैं।

3) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिन्होनें श्री मणवाळमामुनि के चरणकमलों का आश्रय लिया है और वह किसी भी कारण गृहस्थाश्रम मे नहीं पड़े क्योंकि गृहस्थाश्रम इस भौतिक जगत के भवसागर मे उन्हें बाँन्ध देगा ।

4) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिनमे विरक्तिभावलता (जो हनूमान से शुरू हुई थी) परिपूर्ण होकर उन्में परिव्याप्त हुई ।

5) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिन्होनें अपने आचार्य की सेवा मे बहुत सारे मण्डपों का निर्माण और उनका अभिनेतृत्व वानमामलै मे किया जैसे आदिशेष भगवान के लिये करते हैं।

6) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिन्होनें नम्माळ्वार के दिव्य पासुरों का गहरावेदान्तार्थ बहुत ही सरल भाषा मे प्रस्तुत किया ।

7) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिनका नाम इस भौतिक जगत के भवसागर सर्प को विनाश कर सकता है और बध्दजीवात्मावों को भगवान के समान उत्थापन होता है ।

8) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जो हमे हमारे अंगिनत जन्मों मे किये गये पापों/दुष्कर्मो से विमुक्त करने मे सक्षम हैं, और जिन चरणों को साधुजन सदैव पूजा करते हैं।

9) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिनका श्री पादतीर्थ (चरणामृत) किसी को भी शुध्द कर सकती है और तापत्रय की ज्वाला को पूर्ण तरह से नष्ट करती है ।

10) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जो शुध्द और सद्गुणों के सागर हैं और जिनका आश्रय श्री अप्पाचियाराण्णा ने लिया था |

11) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जो शुध्द और सद्गुणों की चोटी हैंऔर जिनका आश्रय समरभुन्गवाचार्यर ने लिया था और उनके चरण साधुजन सदैव पूजा करते हैं।

12 ) मैं ऐसे श्री वानमामलै जीयर के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिनका वैराग्य हनुमान , भीष्म पितामह इत्यादि से सर्वाधिक है , उनकी भक्ति ओराण्वळिआचार्यों के बराबर है , उनका ज्ञान श्रीनाथमुनि, यामुनमुनि के बराबर है और ऐसी तुलना मे कौन वानमामलै जीयर से सर्वोत्तम हो सकता है ।

13) उन्होनें श्रीदैवनायकन एम्पेरुमान की सेवा आदिशेष की तरह किया । उन्होनें भगवान के भक्तों का गुणगान कुळशेखराळ्वार की तरह किया । उन्होनें अपने आचार्य श्री मणवाळमामुनि कि पूजा किया जैसे श्री मधुरकविआळ्वार ने श्री नम्माळ्वार कि पूजा किया था। वे पूर्वाचार्यों के पदचाप के राह मे चले और सद्गुणों के धारक हुए |

14) बहुत पहले श्री एम्पेरुमान ने नरनारायण का अवतार लिया था अब वही एम्पेरुमान श्री मणवाळमामुनि और वानमामलै जीयर के रूप मे प्रकट हुए । कुछ इस प्रकार श्री वानमामलै जीयर का कीर्ती / यश था ।

अडियेन सेतलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दासन् और अडियेन वैजयन्त्याण्डाळ् रामानुज दासि

अडियेंन इन्दुमति रामानुज दासि

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पेरियनम्बि

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमद् वरवरमुनये नमः

श्री वानाचलमहामुनये नमः

जय श्रीमन्नारायण ।
आळ्वार एम्पेरुमानार् जीयर् तिरुवडिगळे शरणं ।

हमने अपने पूर्व अनुच्छेद मे ओराण्वळि के अन्तर्गत नवें आचार्य श्री आळवन्दार (यामुनाचार्य) के बारें मे चर्चा की थी । आगे बढ़ते हुए ओराण्वळि के अन्तर्गत दसवें आचार्य (पेरियनम्बि) के बारें मे चर्चा करेंगे ।

तिरुनक्षत्र : मार्गशीश मास (corrected – मार्गसीर्ष् ), ज्येष्ठ नक्षत्र

अवतार स्थल : श्रीरंगम

शिष्य गण : श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार) , मलैकुनियनिन्रार , आरियुरिल् श्री शठगोप दासर , अणियैरंगतमनुदानार पिळ्ळै , तिरुवैक्कुलमुदैयार भट्टर इत्यादि

स्थल जहाँ से परपदम को प्रस्थान हुएँ  : चोल देश के पशियतु (पशुपति) देवालय मे

श्री पेरियनम्बि श्रीरंगम मे पैदा हुएँ और वह महापूर्ण , परांकुश दास , पूर्णाचार्य के नामों से जाने गए है । वह आळवन्दार के मुख्य शिष्यों मे से एक है और श्री रामानुजाचार्य को श्रीरंगम लाने का उपकार उन्ही को है । आळवन्दार के समय के बाद , सारे श्रीरंगम के श्रीवैष्णव पेरियनम्बि से विनती करते है की वह श्रीरामानुजाचार्य को श्रीरंगम मे लाये । अतः वह श्रीरंगम (added से ) अपने सपरिवार के साथ कांचीपुरम की ओर चले । इसी दौरान श्रीरामानुजाचार्य भी श्रीरंगम की ओर निकल पडे । आश्चर्य की बात यह थी की वे दोनो मधुरांतकम मे मिलते है और तभी पेरियनम्बि श्रीरामानुजाचार्य का पंञ्चसंस्कार करते है और कांचीपुरम पहुँचकर श्रीरामानुजचार्य को सांप्रदाय के अर्थ बतलाते है । इसी बींच रामानुजाचार्य की धर्मपत्नी पेरियनम्बि (जिनका कुल नीचा था) के प्रती असद्भावना होने की वजह से पेरियनम्बि दुखित होकर अपने परिवार के साथ श्रीरंगम वापस चले गए । इस विषय को हम श्रीरामानुजाचार्य के अद्भुत चरित्र मे जानेंगे ।

हमारे पूर्वाचार्यों ने पेरियनम्बि के जीवन की ऐसे वार्दात अपने श्रीसूक्तियों मे दर्ज किया है वह अब आपके लिये प्रस्तुत है

कहते है की पेरियनम्बि सद्गुणों के भण्डार है और रामानुजाचार्य के प्रती असीमित लगाव था । जब उन्की बेटी को अलौकिक सहायता की जरूरत थी तब इसके हल के लिये अपनी बेटी को रामानुजाचार्य के पास जाने का उपदेश देते है।

एक बार श्रीरामानुजाचार्य अपने शिष्यगण के साथ चल रहे थे तब अचानक पेरियनम्बि उनको दण्दवत[corrected-दण्डवत] प्रणाम करते है । तब श्रीरामानुजाचार्य इस क्रिया का स्वीकार / समर्थन नही करते क्योंकि किसी भी शिष्य को अपने आचार्य का प्रणाम स्वीकार नही करना चाहिये । इस क्रिया से सभी शिष्य आश्चर्यचकित होते देखर   श्रीरामानुजाचार्य अपने आचार्य से पूछते है उन्होने ऐसा क्यों किया तब श्रीपेरियनम्बि केहते है की रामानुजाचार्य मे वह अपने आचार्य श्री यामुनाचार्य को देखते है इसीलिये उन्होने दण्दवत प्रणाम किया | वार्ता माला में एक विशेष वचन सूचित करती हैं की आचार्य को अपने शिष्य के प्रति बहुत सम्मान होना चाहिए और पेरियनम्बि उस वचन के अनुसार रहे हैं ।

पेरियनम्बि मारनेरीनम्बि (जो शूद्र होने के बावजूद यामुनाचार्य के शिष्य हुए और फिर एक महान श्रीवैष्णव बने) का अन्तिमसंस्कार करते है जब वह परपदम को प्रस्थान हुए । इस क्रिया का समर्थन अधिक्तर श्रीवैष्णव नही करते और वे श्रीरामानुजाचार्य को इस घटना के बारें मे बताते है । यह जानकर जब श्रीरामानुजाचार्य पेरियनम्बि से पूछते है तब पेरियनम्बि कहते है की उन्होने सीधा आळ्वार के श्रीसूक्तियों ( तिरुवाय्मोळि – पयिलुम् चुडरोळि (3.7) और नेडुमार्क्कडिमै (8.10) ) का पालन किया और यही वार्दात श्री अळगिय मनवाळ पेरुमाळ्नायणार अपने आचार्य हृदय मे कहते है और यह हमारे गुरुपरंपराप्रभावम् मे भी है ।

एक बार पेरियपेरुमाळ को कुछ कुकर्मियों से खतरा था यह जनकारी प्राप्त कर श्रीवैष्णव निश्चय करते है की पेरियनम्बि ही सही व्यक्ति है जो देवालय की प्रदक्षिणा कर सकते है । तब वह श्री कूरत्ताळ्वार को अपने साथ प्रदक्षिणा करने को बुलाते है क्योंकि कूरत्ताळ्वार ऐसे एक मात्र भक्त थे जिन्होने परतन्त्रता का दिव्यस्वरूपज्ञान मालूम था [यही विषय नम्पिळ्ळै अपने तिरुवाय्मोलि (७ .१० .५ ) ईडु व्याख्यान में बताते हैं ।

इसके पश्चात , एक बार शैव राजा ने श्रीरामानुजाचार्य को अपने दर्बार मे आमंत्रित किया जिससे समाधान मे श्री कूरत्ताळ्वार (श्रीरामानुजाचार्य के भेष मे) और बूढे श्री पेरियनम्बि उनके साथ गए । यह शैव राजा को श्रीरामानुजाचार्य के प्रती सद्भावना नही होने के कारण अपने अनुचरों को आज्ञा देते है की श्रीरामानुजाचार्य के आँखें नोच लें तब श्री पेरियनम्बि राज़ी होकर अपने आपको समर्पित करते है और उनकी आँखें नोच ली जाती है । अपने वृध्द अवस्था मे होने के कारण श्री पेरियनम्बि परमपदम को प्रस्थान करते है । कहते है की उनके अन्तिम काल के इस वार्दात से एक सीख मिलती है ।
श्री कूरत्ताळ्वान और पेरियनम्बि कि बेटी (अतुळाय) कहते है की जैसे भी हो आप अपने प्राणों को ना त्यागें क्योंकि श्रीरंगम ज्यादा दूर नही है यानि वह अपने प्राण तभी त्यागें जब वह श्रीरंगम पहुँचे । यह सुनकर श्री पेरियनम्बि तुरन्त रुकने को कहते है और फिर कहते है अगर इस वार्दात को लोग कुछ इस प्रकार समझेंगे की अपने प्राणों का त्याग श्रीरंगम मे करना जरूरी है तब वह एक श्रीवैष्णव के वैभव को सीमित करने के बराबर है और यह कदाचित भी नही होना चाहिये । अतः वह वही अपने प्राणों को त्यागते है ।

आळ्वार कहते है – “वैकुण्थमागुम् तम् ऊरेल्लाम्” – यानि जहाँ श्रीवैष्णव रेहते है वही वैकुण्थ हो जाता है । अतः हमारे लिये यह जरूरी है की हम जहाँ भी हो भगवान पर पूर्णनिर्भर रहे क्योंकि ऐसे कुछ लोग जो दिव्यदेशों  मे रेहने के बावज़ूद नही समझते की उनपे भगवान की असीम कृपा और प्रशंशनीय आशीर्वाद है और इसके व्यतिरेक मे ऐसे श्रीवैष्णव है जो सदैव भगवद्चिंतन मे रहते है (जैसे – चाण्डिलि और गरुड की घटना) ।

अतः हम देख सकते है की श्री पेरियनम्बि कितने उत्कृष्ट श्रीवैष्णव थे और वह भगवान पर पूरि तरह निर्भर थे । तिरुवाय्मोळि और नम्माळ्वार के प्रती असीमित लगाव के कारण उन्हे परांकुश दास के नाम से जाना जाता है । उनके तनियन से हमे यह पता चलता है की वह भगवान श्रियपती के कल्याणगुणों मे इतने निमग्न थे की वह इस दिव्यानुभव से सुखी और संतुष्ठ थे ।

पेरियनम्बि का तनियन

कमलापति कल्याण गुणामृत निषेवया
पूर्ण कामाय सततम् पूर्णाय महते नमः ॥

अगले अनुच्छेद मे हम श्री रामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार) के वैभव की चर्चा करेंगे ।

अडियेन सेतलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दासन्
अडियेन वैजयन्त्याण्डाळ् रामानुज दासि

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