तिरुवरङ्गत्तु अमुदनार् (श्रीरंगामृत स्वामीजी)

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमदवरवरमुनयेनम:
श्री वानाचलमहामुनयेनमः

Thiruvarangathu-Amudhanarतिरुनक्षत्र: हस्त , फाल्गुन

अवतार स्थल: श्रीरंगम

आचार्य: श्रीकुरेश स्वामीजी

स्थान जहां उनका परमपद हुआ: श्रीरंगम

श्रीरंगामृत स्वामीजी पहले पेरिय कोइल नम्बी (श्रीरंग पूर्ण) के नाम से जाने जाते थे। वह श्रीरंगम मंदिर के अधिकारिक अभिभावक थे और पुरोहित (पुराण, वेद आदि पढते थे) का कार्य करते थे। शुरू में वह मंदिर का कार्य करने के लिये श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति अनुकूल नहीं थे जो मंदिर के कार्य में सुधार लाना चाहते थे। परन्तु भगवान श्रीमन्नारायण की निर्हेतुक कृपा से उनके सम्बन्ध में सुधार हुआ और मंगल मनाया।

जब श्रीरंगनाथ भगवान (पेरिय पेरूमाल) ने श्रीरामानुज स्वामीजी को उडयवर घोषित किया और मंदिर के गतिविधि की व्यवस्था बहुत सही तरीके से करने को कहा तब श्रीरंगामृत स्वामीजी ने श्रीरामानुज स्वामीजी को सरलता से मंदिर में प्रवेश नहीं दिया। श्रीरामानुज स्वामीजी असंतुष्ट हो गये और पहले उन्हें उस स्थान से निलम्बित करने का निर्णय किया। परन्तु एक दिन जब श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान के पुरप्पाडु के लिये इंतजार कर रहे थे तब भगवान उनके स्वप्न में आकर उन्हें यह बताया कि पेरिय कोइल नम्बी उन्हें बहुत प्रिय हैं क्योंकि उन्होंने उनकी बहुत समय तक सेवा की है।

फिर पेरिय कोइल नम्बी को शिक्षा और मार्गदर्शक देने के लिये श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीकुरेश स्वामीजी को नियुक्त करते हैं ताकि वह उनकी सेवा कर सके और उनकी सुधार के लिये अनुमति दे सके। श्रीकुरेश स्वामीजी की कृपा धीरे धीरे उन पर असर करना प्रारम्भ करती है और अन्त में पेरिय कोइल नम्बी श्रीरामानुज स्वामीजी के शिष्य होने के लिये तैयार होते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी पेरिय कोइल नम्बी को सलाह देते हैं कि आप श्रीकुरेश स्वामीजी को अपने आचार्य के रूप मे स्वीकार करें क्योंकि उन्होंने हीं आपको सुधारा है। पेरिय कोइल नम्बी को बाद मे श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा रंगामृत नाम प्रदान किया गया क्योंकि उनमे रस भरे तमिल पद्य लिखने की उत्तम क्षमता थी। बाद मे श्रीरंगामृत स्वामीजी को श्रीरामानुज स्वामीजी और श्रीकुरेश स्वामीजी के प्रति बहुत लगाव हुआ।

श्रीरंगामृत स्वामीजी द्वारा पेरिय कोइल (श्रीरंगम) का अधिकार श्रीरामानुज स्वामीजी को सौंपना

जब श्रीरंगामृत स्वामीजी के माता का परमपद हुआ, ११वें दिन एक धार्मिक विधि एकोतिष्टम मनाया जाता है जहाँ एक मनुष्य को उस मृतक के देह समझा जाता है और भोजन अर्पण किया जाता है। भोजन के अन्त में पाने वाले से यह पूछा जाता है कि क्या वह संतुष्ट है और जब तक वह यह न कहे कि वह संतुष्ट है तब तक वह विधि सपन्न नहीं होती। इस विधि का मुख्य पहलू यह है कि जो यह प्रसाद पाता है उन दिनों में मंदिर के कैंकर्य में वह एक साल भाग नहीं ले सकता। श्रीरंगामृत स्वामीजी उच्च श्रीवैष्णव चाहते थे, इसलिये वें श्रीरामानुज स्वामीजी के पास गये और कहा ऐसा कोई व्यक्ति पहचानीये। श्रीरामानुज स्वामीजी ने उसी पल श्रीकुरेश स्वामीजी को कहा कि इस उत्सव में भाग ले और श्रीकुरेश स्वामीजी ने भी खुश होकर इसे स्वीकार कर लिया। जब भोज समाप्त हुआ तो श्रीरंगामृत स्वामीजी श्रीकुरेश स्वामीजी से पूछे कि क्या वह संतुष्ट हैं और श्रीकुरेश स्वामीजी कहे कि वह तभी संतुष्ट होंगे जब मंदिर का अधिकार श्रीरामानुज स्वामीजी के हाथों में सौंपा जायेगा। श्रीरंगामृत स्वामीजी ने एक ही पल में उसे स्वीकार कर लिया और अपनी वचनबद्धता पूर्ण करने के लिये मंदिर कि चाबी और अधिकार श्रीकुरेश स्वामीजी के जरिये श्रीरामानुज स्वामीजी के हाथों में दे दिये। उस समय श्रीरंगामृत स्वामीजी ने पुरोहित का कैंकर्य भी श्रीकुरेश स्वामीजी को दे दिया (अत: आज भी हम यह देख सकते हैं कि श्रीकुरेश स्वामीजी के वंशज श्रीरंगम में यह कैंकर्य कर रहे हैं)। क्योंकि श्रीरंगामृत स्वामीजी ने मंदिर का सारा कैंकर्य दे दिया था इसीलिए वें मंदिर के प्रति कम लगाव रखने लगे। यह देखकर श्रीरामानुज स्वामीजी तिरुवरंगप्पेरूमाल अरयर के पास जाकर उन्हें इयर्पा का अधिकार देने के लिये विनती करते हैं। अरयर आभार प्रगट करते हैं और यह अधिकार श्रीरामानुज स्वामीजी को प्रदान करते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी फिर बाद में इयर्पा श्रीरंगामृत स्वामीजी को सिखाते हैं और उन्हें इयर्पा का गायन हमेशा के लिये श्रीरंगम के मंदिर में प्रदर्शित करने के लिये कहते हैं और ऐसे श्रीरंगामृत स्वामीजी को भी भगवान के कैंकर्य में लगाया।

श्रीरामानुज नृत्तंदादि की उपस्थिति और बढाई

serthi-amudhanar-azhwan-emperumanarकुछ समय पश्चात श्रीरंगामृत स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी पर श्रीरामानुजनूत्तंदादि (१०८ पाशुर) लिखते हैं और उसे रंगनाथ भगवान और श्रीरामानुज स्वामीजी को अर्पण करते हैं। एक बार ब्रम्होत्सव के अंतिम दिन श्रीरंगनाथ भगवान श्रीरामानुज स्वामीजी को आज्ञा किये कि वह सवारी में उनके साथ न आये और सभी श्रीवैष्णव को सवारी में श्रीरामानुजनृत्तंदादि गाने के लिये कहते हैं – जो बाद में हर उत्सव में पालन करने की दिनचर्या बन गया।   भगवान कि इच्छा जानकर श्रीरामानुज स्वामीजी भी स्वयं श्रीरंगामृत स्वामीजी कि इस उच्च कार्य को अंगीकार किये और जिस तरह श्रीमधुरकवि स्वामीजी का कण्णिनुणशीरुताम्बू (जो श्रीशठकोप स्वामीजी कि बढाई करता है) को मुधलायिरं में शामिल किया गया है वैसे ही इसे इयर्पा के एक भाग में शामिल किया गया। यह प्रबन्ध प्रपन्न गायत्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ और श्रीरामानुज स्वामीजी सभी श्रीवैष्णवों को आज्ञा करते हैं कि इस प्रबन्ध को दिन में कम से कम एक बार गाना चाहिये उसी तरह जैसे ब्रम्होपदेश (वह जिसने यज्ञोपवित धारण किया है) लेनेवाले को गायत्री जप करना अनिवार्य है।

श्रीरामानुजनृत्तंदादि में श्रीरामानुज स्वामीजी का नाम सभी पाशुर में दिखाई देता है। इसलिये इसे श्रीरामानुजनूत्तंदादि भी कहते हैं । यह वह सब कुछ समझाता है जो एक आचार्य अभिमान निष्ठावाले (जो आचार्य कृपा पर हीं निर्भर रहते हैं) को समझना जरूरी है। यह प्रबन्ध यह स्थापित करता है कि जो आचार्य पर हमेशा केन्द्रित रहेगा उसे भगवद् सम्बन्ध सहज ही मिल जाता है और कोई विशेष प्रयत्न करने की कोई जरूरत नहीं होती है। इसीलिये हमारे सभी पूर्वाचार्य घोषित करते हैं कि हमें श्रीरामानुज स्वामीजी के चरण कमलों पर ही हमेशा निर्भर रहना चाहिये।

नदातूर अम्माल जो बहुत बड़े पंडितो में पंडित थे श्रीरामानुजनूत्तंदादि के दिव्य प्रबन्ध के पाशुर पेरोनृ मररिललाई (४५) और निंर वण् कीर्तियुम् (७६) से यह घोषणा किये कि श्रीरामानुज स्वामीजी ही उपाय और उपेय है।

पेरियवाच्चान पिल्लै के पुत्र नायनाराच्चान पिल्लै ने अपने कार्य चरमोपाय निर्णय में श्रीरामानुज स्वामीजी कि दिव्य महिमा बताने के लिये बहुत सुन्दर तरीके से श्रीरामानुजनूत्तंदादि का उपयोग किया।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीरामानुजनूत्तंदादि पर एक छोटी और बहुत सुन्दर व्याख्या लिखी है। शुरूवात के खण्ड मे उन्होंने श्रीरंगामृत स्वामीजी और श्रीरामानुजनूत्तंदादि पर  बहुत सुन्दर स्तुति लिखी है। जिसका भाव अब हम देखेंगे।

चरम पर्व निष्ठा (पूर्ण:त आचार्य पर निर्भर) मे तिरुमंत्र और सभी आल्वारों के पाशुरों का सार है। जो श्रीमधुरकवि स्वामीजी ने श्रीशठकोप स्वामीजी के प्रति बताई है। श्रीरंगामृत स्वामीजी ने भी श्रीमधुरकवि स्वामीजी जैसे ही अपने प्रबन्ध में श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति पूर्ण विश्वास प्रदर्शित किया। वह पुरी तरह श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा उनकी निर्हेतुक कृपा से और श्रीकुरेश स्वामीजी के अथक और निर्हेतुक कोशिश से ही सुधारे गये। जैसे श्रीमधुरकवि स्वामीजी ने अपनी आचार्य निष्ठा १० पाशुरों से बताई उसी तरह श्रीरंगामृत स्वामीजी ने अपनी आचार्य निष्ठा १०८ पाशुर द्वारा पूरे विवरण के साथ इस जगत के सभी लोगो के उद्धार के लिये और आचार्य निष्ठा जैसे मुख्य तत्व को समझाने के लिये, पालन करने के लिये और स्वयं के उद्धार के लिये लिखे।  श्रीवरवरमुनि स्वामीजी यह भी पहचाने कि जैसे यज्ञोपवित धारण किये हुए को गायत्री मंत्र उच्चारण करना चाहिये उसी तरह इसे प्रपन्न गायत्री कहा जाता है और उसे सभी श्रीवैष्णवों को प्रतिदिन गाना चाहिये।

श्रीरंगामृत स्वामीजी की दक्षता

श्रीरंगामृत स्वामीजी तमिल और संस्कृत में निपुण थे। इसका उन्हें दिव्य प्रबन्ध के पाशुर को प्रस्तुत करने के लिये बहुत उपयोग हुआ। हम एक उदाहरण देखेंगे:

तिरुविरुत्तं के ७२वें पाशुर में श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी श्रीरंगामृत स्वामीजी का सुन्दर वर्णन लिखते हैं। इस पाशुर में श्रीशठकोप स्वामीजी अंधेरी रात में भगवान के विरह में परांकुश नायिका के भाव में बहुत व्याकुल अनुभव करते हैं। सामान्यत: प्रेमी विरह दशा में रात में ज्यादा व्याकुल होते हैं । उस समय एक छोटा अर्धचंद्राकार चाँद दिखाई पड़ता है और अंधेरे को थोड़ा सा तोड़ देता है। जब प्रेमी मिलते हैं तो चाँद कि थंडी छाव आनंददायक होती है विरह में बहुत दु:ख दायक होती है। फिर परांकुश नायिका सोचती है कि अंधेरा ही अच्छा था और अब ठंडे अर्धचंद्राकार चाँद के साथ उनको भगवान के प्रति सोचते हुए अपने भाव को नियंत्रण में करना मुश्किल हो रहा है। यह समझाने के लिये श्रीरंगामृत स्वामीजी बड़ी सुंदरता से एक कथा प्रस्तुत करते हैं। एक बार एक नाजुक हृदय वाले ब्राम्हण रात्री में जंगल से गुजर रहे थे। उनके पीछे एक जंगली मनुष्य लग गया और किसी तरह वे उससे बचकर एक पेड़ पर चढ गये। उस जंगली मनुष्य ने ब्राम्हण का इंतजार किया कि वो नीचे आयेगा और भोजन बनेगा पर वह ब्राम्हण डरा हुआ था। उस समय एक बाघ उस जंगली मनुष्य के पीछे लगकर उसे मार कर खा लेता है। उसे मारने के पश्चात वह बाघ उपर उस ब्राह्मण को देखता है और उसके नीचे आने का और उसे खाने का इंतजार करता है। अब वह ब्राह्मण इस डर के साथ कि बाघ उसे खा लेगा पहले से भी ज्यादा घबरा जाता है और कांपने लगता है। उसी तरह परांकुश नायिका पहले अंधेरे से डर रही थी और बाद में थंडी अर्धचंद्राकार चाँद से ज्यादा घबरा गयी ऐसा श्रीरंगामृत स्वामीजी समझाते हैं।

श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी और श्रीरंगामृत स्वामीजी

श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को श्रीरीकुरेश स्वामीजी का पुत्र होने में बहुत अभिमान था। वह स्वयं अपने सहस्त्रनाम में यह घोषणा करते है कि वह श्रीकुरेश स्वामीजी के कुल मे जन्म लिए हुए हैं जिनके पास श्रीरामानुज स्वामीजी के सम्बन्ध का बहुत बड़ा धन था। श्रीरंगामृत स्वामीजी का भी श्रीकुरेश स्वामीजी के साथ सम्बन्ध था जिसे उन्होंने श्रीरामानुजनूत्तंदादि के ७वें पाशुर मे बताया। एक बार श्रीरंगामृत स्वामीजी बहुत उत्साह से श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को दूसरे श्रीवैष्णव के साथ यह सन्देश देते हैं कि “आपका श्रीकुरेश स्वामीजी के साथ केवल देह सम्बन्ध है परन्तु मेरा तो उनके साथ बौद्धिक सम्बन्ध है”। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी “बहुत अच्छा है! परन्तु तुम इसकी बढाई स्वयं न करो” ऐसा उत्तर देते हैं। श्रीकुरेश स्वामीजी का सम्बन्ध ऐसा महान है कि वह श्रीरंगामृत स्वामीजी को गर्व से ऊंचा कर देता है। परन्तु इस विषय में एक बड़ी अच्छी बात हमारे पूर्वाचार्यों है कि वों कभी इन विषयों को चर्चा से आगे नहीं बढ़ाते थे और दूसरे के प्रति दुर्भावना नहीं रखते थे। मुद्दों को सुलझाते थे और बहुत उदार तरीके से यही बात हमे इन घटनाओं से समझना चाहिये। हमें अपने पूर्वाचार्यों के प्रति अभिमान होना चाहिये कि उन्होंने ऐसी बात भी सच्चाई के साथ हमें बताई नाकी हमसे छुपाई जो वे आसानी से कर सकते थे।

अन्त में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने सुन्दर आर्ति प्रबन्ध के ४०वें पाशुर में यह पहचानते हैं कि संसार बन्धन के खारे समुद्र में डूबने से अच्छा श्रीरामानुज स्वामीजी के चरण कमल के शरण होना, उनके प्रिय भक्तों के साथ हमेशा समय बिताना और निरंतर श्रीरामानुजनूत्तंदादि को गाना / ध्यान करना।

अत: हमने श्रीरंगामृत स्वामीजी के सुन्दर जीवन के कुछ झलक देखी है। वह पूरी तरह भागवत निष्ठा में रहते थे और श्रीरामानुज स्वामीजी और श्रीकुरेश स्वामीजी को बहुत प्रिय थे। हम उनके चरण कमल में यह विनंती करते हैं कि हम में थोड़ी सी भागवत निष्ठा आ जाये।

श्रीरंगामृत स्वामीजी कि तनियन :

मूंगिलकुडि अमुदन् प्रपन्नगायत्रीकवि:

श्रीवत्साङ्गुरोश्शिष्यं रामानुज – पदाश्रितम् |
मीनहस्ता – समुभ्दूतं श्रीरंगामृतमाश्रये ||

अदियेन् गोदा रामानुजदासी

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About sarathyt

Disciple of SrImath paramahamsa ithyAdhi pattarpirAn vAnamAmalai jIyar (29th pattam of thOthAdhri mutt). Descendant of komANdUr iLaiyavilli AchchAn (bAladhanvi swamy, a cousin of SrI ramAnuja). Born in AzhwArthirungari, grew up in thiruvallikkENi (chennai), lived in SrIperumbUthUr, presently living in SrIrangam. Learned sampradhAyam principles from (varthamAna) vAdhi kEsari azhagiyamaNavALa sampathkumAra jIyar swamy, vELukkudi krishNan swamy, gOmatam sampathkumArAchArya swamy and many others. Full time sEvaka/servitor of SrIvaishNava sampradhAyam. Engaged in translating our AzhwArs/AchAryas works in Simple thamizh and English, and coordinating the translation effort in many other languages. Also engaged in teaching dhivyaprabandham, sthOthrams, bhagavath gIthA etc and giving lectures on various SrIvaishNava sampradhAyam related topics in thamizh and English regularly. Taking care of koyil.org portal, which is a humble offering to our pUrvAchAryas. koyil.org is part of SrI varavaramuni sambandhi Trust (varavaramuni.com) initiatives.

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