Monthly Archives: July 2015

कूर नारायण जीयर

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

जन्म नक्षत्र : मृगशीर्ष, ज्येष्ठा नक्षत्र

अवतार स्थल : श्रीरंगम

आचार्य : कूरेश स्वामीजी, पराशर भट्टर स्वामीजी

स्थान जहाँ परमपद प्राप्त किया : श्रीरंगम

रचनाएं : सुदर्शन शतक, स्तोत्र रत्न व्याख्यान, श्रीसूक्त भाष्य, उपनिषद् भाष्य, नित्य ग्रथं (तिरुवाराधनं), आदि

शिष्य चेमं जीयर, तिरुक्कुरुगैप् पिरान जीयर, सुंदर पाण्डिय देवन्, आदि

उनका जन्म श्रीरंगम में मृगशीर्ष, ज्येष्ठा नक्षत्र में सिरीय गोविन्द पेरुमाल (एम्बार के भ्राता) के यहाँ हुआ था। सन्यास ग्रहण करने के बाद वे कूर नारायण जीयर, नलं थिगल नारायण जीयर, नारायण मुनि, पेरिय जीयर और श्रीरंग नारायण जीयर आदि के नाम से ज्ञात हुए।

एम्पेरुमानार, कुरेश स्वामीजी, भट्टर

एम्पेरुमानार, कुरेश स्वामीजी, भट्टर

सन्यासाश्रम ग्रहण करने से पहले उनके “एदुत्त कै अलगिय नायनार” नाम के एक पुत्र थे। वे पहले कूरेश स्वामीजी के शिष्य हुए और बाद में वे आल्वान के पुत्र भट्टर के शिष्य हुए और उनसे भी शिक्षा प्राप्त की।

उन्होंने श्रीरंगम मंदिर में बहुत से बाह्य कैंकर्य संपन्न किये जैसे पार्थसारथी सन्निधि, गरुडालवार सन्निधि आदि का निर्माण और पेरिय पेरुमाल के लिए आंतरिक/गोपनीय कैंकर्य।

वेदांताचार्य जो कूर नारायण जीयर के बहुत समय बाद अवतरित हुए, उन्होंने अपनी रचनाओं में उन्हें पेरिय जीयर नाम से संबोधित किया है (नोट: ऐसा माना जाता है कि वहां एक और कूर नारायण जीयर रहते थे, जो वेदंताचार्य के कुछ समय के बाद पैदा हुए)। वेदान्ताचार्य अपने स्तोत्र व्याख्यान में जीयर के स्तोत्र व्याख्यान का उल्लेख करते हैं । उन्होंने जीयर के श्री सूक्त भाष्य और नित्य ग्रंथ का उल्लेख भी अपने रहस्य त्रय सार में किया है। क्यूंकि कूर नारायण जीयर कूरेश स्वामीजी के शिष्य थे तो उन्हें नन्जीयर से आयु में अधिक होना चाहिए- इसलिए नन्जीयर और कूर नारायण जीयर की अलग पहचान करने के लिए वेदान्ताचार्य ने उन्हें पेरिय (बड़े) जीयर कहकर संबोधित किया होगा।

मामुनिगल ने अपने ईडु प्रमाण संग्रह (नम्पिल्लै के ईडु महा व्याख्यान के लिए प्रमाणों का संकलन) में कूर नारायण जीयर के उपनिषद भाष्य का उल्लेख किया है। मामुनिगल ने उनकी महिमा “शुद्ध संप्रदाय निष्ठावान” (वह जिन्हें हमारे संप्रदाय में शुद्ध निष्ठा है) के रूप में की है।

कूर नारायण जीयर को सुदर्शन उपासक के रूप में भी जाना जाता है। एक बार कुरेश स्वामीजी जीयर से कहते है “हमारा जन्म श्री वैष्णव परिवार में हुआ, जहाँ उपासना में प्रवत्त होना अनुचित माना जाता है –उपासना जैसे स्व-प्रयासों में प्रवत्त होने के बजाय हमें पूर्ण रूप से भगवान के श्री चरणों के अधीन होना चाहिए”। जीयर कहते है “मेरी उपासना मेरे लाभ के लिए नहीं है। वह एकमात्र भगवान और भागवतों की सेवा के लिए है”। जीयर के जीवन के बहुत सारे द्रष्टांत उनके इस सिद्धांत को दर्शाते हैं।

  • पुराने समय में नम्पेरुमाल, कावेरी नदी में तेप्पोत्सव (नौका पर्व) का आनंद लिया करते थे। एक बार ऐसे उत्सव में, अचानक बाड़ आ जाती है और तेप्पम (नौका) उस बाड़ के पानी के साथ दूर तक बह जाती है। परन्तु जीयर अपनी उपासना शक्ति के प्रयोग से नौका को बहने से रोक देते हैं और उन्हें सुरक्षा से नदी के किनारों पर ले आते है। यह सब देखकर, वे कैंकर्यपरारों को श्रीरंगम शहर में ही एक बड़े तालाब का निर्माण करने का निर्देश देते हैं और व्यवस्था करते हैं कि उसके बाद से तेप्पोत्सव सुरक्षित रूप से मनाया जाये।

नौका में नाचियार के साथ नम्पेरुमाल

नौका में नाचियार के साथ नम्पेरुमाल

  • एक बार तिरुवरंगप्पेरुमाल अरैयर किसी रोग से ग्रसित हो जाते हैं, जो पेरिय पेरुमाल के प्रति उनके कैंकर्य को प्रभावित करते हैं। उस समय, कूर नारायण जीयर, सुदर्शन शतक की रचना कर, उसे गा कर सुनाते हैं और अरयर को उस रोग से मुक्ति दिलाते हैं। यह बात सुदर्शन शतक की तनियन में स्पष्टता से दर्शायी गयी है।एम्पेरुमानार के समय के तुरंत बाद, श्रीरंगम के एम्पेरुमानार मठ का कार्य-भार कूर नारायण जीयर को दिया गया। इस मठ का नाम “श्रीरंग नारायण जीयर मठ” हुआ और अनेकों जीयर स्वामी ने इस पद की प्रतिष्ठा को ज़ारी रखा और श्रीरंगम मंदिर कैंकर्य में सहयोग किया।
तिरुवरंगप्पेरुमाल अरयर

तिरुवरंगप्पेरुमाल अरयर

इस तरह हमने कूर नारायण जीयर के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। हम सब उनके श्री चरण कमलों में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र भगवत/ भागवत/ आचार्य कैंकर्य प्राप्त हो।

कूर नारायण जीयर की तनियन :

श्रीपराशर भट्टार्य शिष्यं श्रीरंगपालकं।
नारायण मुनिं वन्दे ज्ञानादि गुणसागरं।।

मैं, श्री नारायण मुनि को प्रणाम करता हूँ, जो श्रीपराशर भट्टर के शिष्य हैं, जो श्री रंगम की रक्षा करते हैं और जो ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि के सागर हैं।

-अदियेन् भगवति रामानुजदासी

आधार : https://guruparamparai.wordpress.com/2013/12/30/kura-narayana-jiyar/

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तिरुनारायणपुरत्तु आय् जनन्याचार्यर्

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

Untitled

जन्म नक्षत्र: अश्विनी, पूर्वाषाढा

अवतार स्थल: तिरुनारायणपुर

आचार्य: उनके पिता लक्ष्मणाचार्य (पञ्च संस्कार), नालूराच्चान् पिळ्ळै (देवराजाचार्य स्वामीजी) (ग्रंथ कालक्षेप)

स्थान जहाँ परमपद प्राप्त कियातिरुनारायणपुर

रचनाएं: तिरुप्पावै व्याख्यान (2000 पद और 4000 पद) और स्वापदेश, तिरुमालै व्याख्यान, आचार्य हृदयं और श्रीवचन भूषण के लिए व्याख्यान, मामुनिगल की महिमा में एक तमिल पासूर, आदि

उनके जन्म पर उनके माता-पिता ने उनका नाम देवराज रखा। उन्हें देव पेरुमाल, आसुरी देवराय, तिरुत्तालवार दासर, श्रीसानु दासर, मातरू गुरु, देवराज मुनीन्द्र और जनन्याचार्यर् नामों से भी जाना जाता है।

आय् अर्थात माता। वे तिरुनारायण भगवान के लिए दूध बनाने और भोग लगाने का कैंकर्य करते थे। एक बार जब उनके कैंकर्य में देरी हो गयी, भगवान ने आय् की उनके प्रति ममता के सम्मान में पूछा “आय् (माता) कहाँ है?” उस समय से, उन्हें आय् अथवा जनन्याचार्यर् के नाम से जाना जाता है। यह देव पेरुमाल से नडातुर अम्माळ् के संबंध के समान ही है।

वे एक महान विद्वान् थे और संस्कृत और द्राविड वेद/वेदांत दोनों में निपुण थे।

उन्होंने तिरुवाय्मोळि पिल्लै और तिरुवाय्मोळि आचान (इलम्पिलिचै पिल्लै) के साथ नालूराच्चान् पिळ्ळै से नम्पिल्लै के ईदू व्याख्यान सुना करते थे (ईदू का पूर्ण इतिहास https://guruparamparaihindi.wordpress.com/2015/06/21/eeyunni-madhava-perumal/ पर पढ़ा जा सकता है)। आचार्य हृदयं परंपरा के अंश होने से उनकी महिमा है (अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार – पेत्रार (1) – पेत्रार (2) – आय् जनन्याचार्यर् – मणवाल मामुनिगल)।

मामुनिगल ने आचार्य हृदयं के लिए व्याख्यान लिखना प्रारंभ किया। 22वें चूर्णिका के लिए व्याख्यान लिखते हुए, मामुनिगल कुछ स्पष्टीकरण चाहते थे। उन्होंने इस चूर्णिका की चर्चा आय् जनन्याचार्यर् के साथ करने का निर्णय लिया, जो तिरुवाय्मोळि पिल्लै के सहपाठी थे और मामुनिगल, आय् को अपने आचार्य भी मानते थे। मामुनिगल, नम्मालवार से तिरुनारायणपुर जाने और आलवार तिरुनगरी छोड़ने की अनुमति लेते हैं। उसी समय, मामुनिगल के यश और महान प्रसिद्धि के बारे में सुनकर, आय् जनन्याचार्यर् तिरुनारायणपूर से आलवार तिरुनगरी की और प्रस्थान करते हैं। वे दोनों आलवार तिरुनगरी के बाहर मिलते हैं और एक दूसरे को दण्डवत प्रणाम करते हुए, बड़े आनन्द के साथ एक दूसरे के गले लगते हैं। मामुनिगल के शिष्य इन महान आत्माओं की इस भेंट को पेरिय नम्बि (महापूर्ण स्वामीजी) और एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) की भेंट के समान मानते हैं और उनकी एक-दूसरे के प्रति आपसी श्रद्धा देखकर खुश हो जाते हैं। वे दोनों आलवार तिरुनगरी लौटते हैं और मामुनिगल, आय् से पूर्ण आचार्य हृदयं कालक्षेप सुनते हैं। व्याख्यान श्रृंखला के अंत में, मामुनिगल आय् के लिए सुंदर तनियन की रचना करते हैं और उन्हें प्रस्तुत करते हैं। आय्, उसे स्वयं के योग्य न मानकर, प्रतिक्रिया में, मामुनिगल की महिमा में निम्नलिखित सुंदर तमिल पासूर प्रस्तुत करते हैं –

पुतुरिल वंदुदित्त पुण्णियनो?
पुंगकमळुम् तातारूमगीलमार्भन तानिवनो?
तूतूर वनत नेडूमालो?
मणवालमामुनिवं एन्तैयिवर मुवरिलुम यार?

सामान्य अनुवाद:

क्या वे एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) हैं, जो श्रीपेरुम्बुतुर में अवतरित हुए और जो सबसे गुणी हैं?
क्या वे नम्मालवार हैं, जो वकुल पुष्प की माला धारण करते हैं?
क्या वे स्वयं श्रीकृष्ण हैं, जो पांडवों के हित के लिए उनके दूत बनकर गये – अपनी सौलभ्यता (सुगमता) को दर्शाते हुए?
मामुनिगल उपरोक्त तीनों में से कौन हैं, जो मेरे प्रति पिता समान स्नेह दर्शाते हैं?

इस तरह आय् आलवार तिरुनगरी में कुछ समय बिताते हैं और अंततः तिरुनारायणपूर लौट आते हैं। परंतु उनकी अनुपस्थिती में कुछ लोग जो उनसे इर्षा करते थे, वे उनके परमपद प्रस्थान करने की घोषणा कर देते हैं (क्यूंकि वे लम्बे समय तक लौटकर नहीं आये थे) और उनकी सारी संपत्ति मंदिर के संचालन में दे देते हैं। इसे देखकर, आय् बहुत प्रसन्न होते हैं और कहते हैं “भगवान कहते हैं जो उनके प्रिय हैं, वे उनका सभी धन ले लेते हैं, इसलिए यह एक महान आशीष है” और उसके पश्चाद वे एक सादा जीवन व्यतीत करते हैं। वे अपने अर्चाविग्रह भगवान (ज्ञान पिरान), जो उनके आचार्य के द्वारा दिए गये थे, से विनती करते हैं और अपना कैंकर्य जारी रखते हैं। तदन्तर, वे सन्यास आश्रम स्वीकार करते हैं और अंततः परमपद में भगवान की नित्य सेवा प्राप्त करने के लिए वे परमपद कि ओर प्रस्थान करते हैं।

इस तरह हमने तिरुनारायणपुरत्तु आय् के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे महान विद्वान् थे और और अपने आचार्य और मणवाल मामुनिगल के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र भागवत निष्ठा की प्राप्ति हो।

तिरुनारायणपुरत्तु आय् की तनियन:

आचार्य ह्रुदयस्यार्त्था: सकला येन दर्शिता:।
श्रीसानुदासम् अमलं देवराजम् तमाश्रये।।

अदियेन् भगवति रामानुजदासी

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