Monthly Archives: July 2015

वडुग नम्बि (आंध्रपूर्ण स्वामीजी)

श्री:
श्रीमते शठकोपाये नमः
श्रीमते रामानुजाये नम:
श्रीमदवरवरमुनयेनम:
श्री वानाचलमहामुनयेनमः

Untitled1

तिरुनक्षत्र: चैत्र, अश्विनी

अवतार स्थल: सालग्राम (कर्नाटक)

आचार्य: एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी)

स्थान जहाँ परमपद प्राप्त किया: सालग्राम

रचनाएँ: यतिराज वैभव, रामानुज अष्टोत्तर सत् नाम् स्त्रोत्रं, रामानुज अष्टोत्तर सत् नामावली

अपनी तिरुनारायणपुर की यात्रा के दौरान, एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) मिथिलापुरी सालग्राम पहुँचते हैं, जहाँ वे मुदलियाण्डान (दाशरथि स्वामीजी) को निर्देश देते हैं कि वे स्थानीय जल के स्त्रोत (नदी) को अपने चरण कमलों से स्पर्श करें। मुदलियाण्डान (दाशरथि स्वामीजी) के चरण कमलों की पवित्रता से, जिन स्थानीय लोगों ने उस नदी में स्नान किया वे भी पवित्र हुए और एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के शिष्य हो गये। उन्हीं में से एक थे वडुग नम्बि, जिन्हें आंध्रपूर्ण नाम से भी जाना जाता है। एम्पेरुमानार, अपनी निर्हेतुक दया से, वडुग नम्बि का उद्धार करते हैं, उन्हें हमारे संप्रदाय के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत सिखाते हैं और उन्हें आचार्य निष्ठा में  पूर्णतः स्थापित करते हैं। और उसके बाद वडुग नम्बि एम्पेरुमानार से कभी अलग नहीं हुए।

वडुग नम्बि पूर्ण रूप से आचार्य निष्ठा में स्थित थे। वे एम्पेरुमानार की चरण पादुकाओं का प्रतिदिन अराधना किया करते थे।

एक बार एम्पेरुमानार के साथ यात्रा करते हुए, वडुग नम्बि अपने अर्चा भगवान (एम्पेरुमानार की पादुकायें) उसी पेटी में लेकर चले जिसमें एम्पेरुमानार के अर्चा भगवान विराजे थे। यह जानकार एम्पेरुमानार बहुत अचंभित होते हैं और वडुग नम्बि से पूछते हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? वडुग नम्बि त्वरित उत्तर देते हैं “मेरे आराध्य भगवान भी आपके आराध्य भगवान के समान ही श्रेष्ठ है, इसलिए आपके भगवान के साथ मेरे भगवान के होने में कुछ भी गलत नहीं है”।

जब भी एम्पेरुमानार, पेरिय पेरुमाल का मंगलाशासन करने जाते थे, वे उनके दिव्य स्वरुप से आनंदित हो जाया करते थे। परंतु वडुग नम्बि, पूरे समय एम्पेरुमानार के दिव्य स्वरुप के दर्शन करके आनंदित हुआ करते थे। यह देखकर एम्पेरुमानार उनसे पेरिय पेरुमाल के सुंदर नेत्रों के दर्शन करने के लिए कहते हैं। वडुग नम्बि, तिरूप्पाणाळवार (योगिवाहन स्वामीजी) के शब्दों द्वारा कहते हैं “एन अमुदिनैक कण्ड कण्गल मर्रोंरिनैक काणावे” अर्थात “मेरे नेत्रों, जिन्होंने एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) का दिव्य स्वरुप देखा है, वे अब और कुछ भी नहीं देखेंगे”। ऐसा सुनकर एम्पेरुमानार उनकी आचार्य निष्ठा से बहुत प्रसन्न होते हैं और उन्हें आशीष देते हैं।

वडुग नम्बि नियमित रूप से एम्पेरुमानार का शेष प्रसाद पाया करते थे और उसे पाने के बाद, सम्मान से, वे अपने हाथ अपने मस्तक से पोंछ लिया करते थे (हाथों को जल से धोने के बजाये) – सामान्यतः भगवान/ आचार्य, आलवार का प्रसाद, जो अत्यंत पवित्र है, उसे पाने के पश्चाद हमें अपने हाथों को जल से नहीं धोना चाहिए, अपितु अपने हाथों को अपने मस्तक से पोंछना चाहिए। एक बार, यह देखकर एम्पेरुमानार अचंभित होते हैं और शेष प्रसाद पाने के बाद वे नम्बि को अपने हाथ धोने के लिए कहते हैं। नम्बि उनकी आज्ञा का पालन करते हैं और अपने हाथ धो लेते हैं। अगले दिन, जब एम्पेरुमानार को भगवत प्रसाद प्राप्त होता है, वे उसमें से थोडा पाकर, शेष वडुग नम्बि को प्रदान कर देते हैं। वडुग नम्बि उसे पाकर अपने हाथों को जल से धो लेते हैं। एम्पेरुमानार फिर से अचंभित होकर वडुग नम्बि से पूछते हैं कि भगवत प्रसाद पाने के बाद उन्होंने अपने हाथों को क्यों धोया। वडुग नम्बि, बड़ी ही विनम्रता और सुंदरता से उत्तर देते हैं “मैं तो केवल भगवान द्वारा दिए हुए कल के निर्देश का पालन कर रहा हूँ”। एम्पेरुमानार कहते हैं “आपने मुझे बड़ी सरलता से पराजित कर दिया” और उनकी निष्ठा की सराहना करते हैं।

एक बार वडुग नम्बि, एम्पेरुमानार के लिए दूध तैयार कर रहे थे। उस समय, नम्पेरुमाल की सवारी एम्पेरुमानार के मठ के बाहर से निकलती है। एम्पेरुमानार, वडुग नम्बि को बाहर बुलाते हैं पर वडुग नम्बि कहते हैं “अगर मैं आपके भगवान के दर्शन के लिए बाहर आऊंगा, तो मेरे भगवान का दूध जल जायेगा। इसलिए मैं नहीं आऊंगा”।

एक बार वडुग नम्बि के शरीर संबंधी (जो श्री वैष्णव नहीं थे) उनसे भेंट करने के लिए आते हैं। उनके जाने के पश्चाद वडुग नम्बि सभी बर्तन नष्ट कर देते हैं और स्थान को पूरी तरह से शुद्ध करते हैं। फिर वे मुदलियाण्डान (दाशरथि स्वामीजी) के निवास पर जाकर, उनके द्वारा त्याग दिए गए बर्तन उठाते हैं और उन्हें उपयोग करना प्रारंभ करते हैं। इस तरह वे स्थापित करते हैं कि जिनके पास शुद्ध आचार्य संबंध होता है, उनसे सम्बंधित सभी कुछ (यहाँ तक की उनकी त्याग की हुई वस्तुयें भी) पूरी तरह से शुद्ध/पवित्र होती है और हमारे लिए स्वीकार करने योग्य होती है।

Untitled2

एक बार एम्पेरुमानार तिरुवनंतपुरम जाते हैं और वहां अनंत-शयनम् भगवान के मंदिर का आगमन बदलने के बारे में सोचते हैं। परंतु भगवान की योजना कुछ और ही थी। इसलिए जब एम्पेरुमानार शयन करते हैं, भगवान उन्हें वहां से उठाकर तिरुक्कुरुन्गुडी दिव्य देश पहुंचा देते हैं। एम्पेरुमानार प्रातः जागकर, पास की नदी में स्नान करके, द्वादश उर्ध्वपूर्ण लगाकर (12 उर्ध्वपूर्ण), तिरुमण का शेष वडुग नम्बि को प्रदान करने के लिए वडुग नम्बि को पुकारते हैं(जो उस समय तिरुवनंतपुरम में थे)। तिरुक्कुरुन्गुडी नम्बि, स्वयं वडुग नम्बि का रूप लेकर उनके शेष तिरुमण (पवित्र मिट्टी) को स्वीकार करते हैं। तत्पश्चाद एम्पेरुमानार तिरुक्कुरुन्गुडी नम्बि को शिष्य रूप में स्वीकार करते हैं।

  • पेरियालवार तिरुमोली 4.3,1 – मणवाल मामुनिगल (वरवरमुनी स्वामीजी) व्याख्यान – यह पद “नाव कारियम” (ऐसे शब्द जिनका उच्चारण नहीं करना चाहिए) के विषय में दर्शाता है। वडुग नम्बि के जीवन की एक घटना यहाँ दर्शायी गयी है। एक बार, वडुग नम्बि के समीप, एक श्री वैष्णव तिरुमंत्र का उच्चारण करते हैं। उसे सुनकर, वडुग नम्बि (जो पुर्णतः आचार्य निष्ठा में स्थित हैं) कहते हैं “यह नाव कारियम है” और वहां से चले जाते हैं। इस संबंध में यह स्मरणीय है कि जब भी हम तिरुमंत्र, द्वय मंत्र और चरम श्लोक का ध्यान करते हैं, तब प्रथम हमें गुरु परंपरा का ध्यान करना चाहिए और उसके उपरांत ही रहस्यत्रय का ध्यान करना चाहिए। पिल्लै लोकाचार्य इसे श्री वचन भूषण दिव्य शास्त्र (सूत्र 274) में इस प्रकार दर्शाते हैं “जपत्वयं गुरु परम्परैयुम द्वयमुम” (गुरु परंपरा और द्वय महामंत्र का निरंतर ध्यान करते रहना चाहिए)।
  • पेरियालवार तिरुमोली 4.4.7 – मणवाल मामुनिगल व्याख्यान – जब वडुग नम्बि परमपद के लिए प्रस्थान करते हैं, एक श्रीवैष्णव, अरुलाल पेरुमाल एम्पेरुमानार को यह समाचार यह कहते हुए देते हैं कि “वडुग नम्बि ने परमपद की ओर प्रस्थान किया”। अरुलाल पेरुमाल एम्पेरुमानार कहते हैं “क्यूंकि वडुग नम्बि एक आचार्य निष्ठ थे, आपको कहना चाहिए कि उन्होंने एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के चरण कमलों को प्राप्त किया। आपको यह नहीं कहना चाहिए कि उन्होंने परमपद के लिए प्रस्थान किया”।
  • वडुग नम्बि ने यतिराज वैभवं नामक एक सुंदर ग्रंथ कि रचना की। इस ग्रंथ में उन्होंने दर्शाया कि 700 सन्यासी, 12000 श्री वैष्णव और कई वैष्णवीयाँ आदि, एम्पेरुमानार के अनुयायी थे और वे लोग सदा उनकी सेवा और पूजा किया करते थे।

पेरियवाच्चान पिल्लै, माणिक्क माला में दर्शाते हैं कि “वडुग नम्बि ने स्थापित किया है कि आचार्य का पद (स्थान) सबसे श्रेष्ठ है और केवल एम्पेरुमानार के लिए ही उपयुक्त है”।

पिल्लै लोकाचार्य वडुग नम्बि की महानता को श्री वचन भूषण दिव्य शास्त्र (सूत्र 411) में दर्शाते हैं –

वडुग नम्बि आलवानैयुम आण्डानैयुम इरुकरैयर एन्बर।

मामुनिगल समझाते हैं कि वडुग नम्बि, मधुरकवि आलवार के समान थे जिनके लिए नम्मालवार ही सब कुछ थे। कुरत्तालवान (कूरेश स्वामीजी) और मुदलियाण्डान (दाशरथि स्वामीजी) पूर्ण रूप से एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के आश्रित/ समर्पित थे – फिर भी समय समय पर वे भगवान का मंगलाशासन किया करते थे और इस क्रूर संसार को सहन करने में असमर्थ होने पर उनसे मोक्ष प्रदान करने की प्रार्थना करते थे। इसलिए वडुग नम्बि कहते हैं कि “यद्यपि उन दोनों का संबंध एम्पेरुमानार के साथ था, वे भगवान और एम्पेरुमानार दोनों पर निर्भर थे”।

अंततः, आर्ति प्रबंध (पासूर 11) में, मामुनिगल स्थापित करते हैं कि वडुग नम्बि का स्थान (आचार्य निष्ठ) ऐसा है, जिसे प्राप्त करने की उत्कट चाहना उनकी भी है और वे एम्पेरुमानार से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें भी वडुग नम्बि के समान बनने का आशीर्वाद दे। वडुग नम्बि की एम्पेरुमानार के प्रति इतनी अतुल्य श्रद्धा थी कि वे अलग से भगवान की पूजा में संलग्न नहीं होते थे। हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा यह स्थापित किया गया है कि जब हम आचार्य का पूजन करते हैं , भगवान का पूजन स्वतः ही हो जाता है। परन्तु जब हम भगवान की पूजा करते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि हमनें अपने आचार्य का पूजन भी कर लिया। इसलिए, आचार्य की आराधना और उन पर पूर्ण निर्भरता हमारे संप्रदाय का सबसे अभीष्ट सिद्धांत है और मामुनिगल दर्शाते हैं कि इसे वडुग नम्बि ने पुर्णतः प्रकट किया है।

इस तरह हमने वडुग नम्बि के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे भागवत निष्ठा में पूर्णतः स्थित थे और एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र भागवत निष्ठा की प्राप्ति हो।

वडुग नम्बि की तनियन:

रामानुजार्य सच्शिष्यम् सालग्राम निवासिनम् ।
पंचमोपाय संपन्नाम सालग्रामार्यम् आश्रये।।

-अदियेन् भगवति रामानुजदासी

आधार : https://guruparamparai.wordpress.com/2013/04/01/vaduga-nambi/

archived in https://guruparamparaihindi.wordpress.com , also visit http://ponnadi.blogspot.com/

pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava Education/Kids Portal – http://pillai.koyil.org

Advertisement

नडातुर अम्माल

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमदवरवरमुनयेनम:
श्री वानाचलमहामुनयेनमः

इंगलाल्वान के चरण कमलों में नडातुर अम्माल

इंगलाल्वान के चरण कमलों में नडातुर अम्माल

तिरुनक्षत्र : चैत्र, चित्रा

अवतार स्थल: कांचीपुरम

आचार्य: एन्गलाल्वान्

शिष्य: श्रुतप्रकाशिका भट्टर (सुदर्शन सूरी), किदाम्बी अप्पिल्लार आदि

स्थान जहाँ परमपद प्राप्त किया: कांचीपुरम

रचनायें: तत्व सारं, परत्ववादी पंचकं (वृस्तत विवरण http://ponnadi.blogspot.in/2012/10/archavathara-anubhavam-parathvadhi.html पर), गजेन्द्र मोक्ष श्लोक द्वयं, परमार्थ श्लोक द्वयं, प्रपन्न पारिजात, चरमोपाय संग्रहम्, श्री भाष्य उपन्यासं, प्रमेय माला, यातिराज विजय भाणं, आदि।

कांचीपुरम में जन्म के बाद उनके माता पिता ने उनका नाम वरदराजन रखा। वे नादतुर आल्वान के पौत्र हैं, जो स्वयं एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) द्वारा नियुक्त किये गए श्रीभाष्य सिंहासनाधिपतियों में एक हैं।

वे प्रतिदिन कांचीपुर के देव पेरुमाल (श्री वरदराज भगवान्) की सेवा में गर्म दूध का भोग लगाते थे। जैसे एक माता ठीक तरह से जाँच कर अपने बालक के लिए दूध बनाती है, उसी प्रकार वे भी भगवान के लिए उत्तम गर्माहट युक्त, उचित ताप का दूध बनाया करते थे। इसीलिए स्वयं देव पेरुमाल ने सानुराग उन्हें अम्माल और वातस्य वरदाचार्य कहकर सम्मानित किया।

जब अम्माल अपने दादाजी से श्रीभाष्य सीखने की विनती करते हैं, तो वे अपनी वृद्धावस्था के कारण अम्माल से कहते हैं कि वे एंगलाल्वान के पास जाएँ और उनसे श्रीभाष्य सीखें। अम्माल, एंगलाल्वान के निवास पर जाकर दरवाज़ा खटखटाते हैं। जब एंगलाल्वान पूछते हैं “कौन है?” तब अम्माल उत्तर देते हैं “मैं वरदराजन”। इस पर एंगलाल्वान कहते हैं “मैं के मरने के बाद वापस आना”। अम्माल अपने निवास पर लौट आते हैं और अपने दादाजी को पूरा द्रष्टांत बताते हैं। नदातुर आल्वान उन्हें समझाते हैं कि हमें हमेशा पूर्ण विनम्रता से अपना परिचय “अदियेन”(दास) ऐसा कहकर देना चाहिए और मैं, मेरा आदि जो अहंकार सूचक शब्द है उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। सिद्धांत को समझकर, अम्माल एंगलाल्वान के पास लौटते हैं और फिर दरवाज़ा खटखटाते हैं। इस समय जब इंगलाल्वान पूछते हैं कि दरवाज़े पर कौन है, तब अम्माल कहते हैं “अदियेन् वरदराजन”। ऐसा सुनकर प्रसन्न, एंगलाल्वान, अम्माल का स्वागत करते हैं, उन्हें अपना शिष्य स्वीकार करके उन्हें संप्रदाय के मूल्यवान सिद्धांत सिखाते हैं। क्यूंकि एंगलाल्वान नडातुर अम्माल जैसे महान विद्वान् के आचार्य हैं, उन्हें अम्माल के आचार्य के रूप में भी जाना जाता है।

अम्माल के प्रमुख शिष्य श्रुतप्रकाशिका भट्टर हैं (सुदर्शन सूरी– वेद व्यास भट्टर के पौत्र), जिन्होंने अम्माल से श्रीभाष्य सीखा और श्रीभाष्य पर महान व्याख्यान श्रुत प्रकाशिक और वेदार्थ संग्रह और शरणागति गद्यम पर भी व्याख्यान लिखा।

एक बार अम्माल दर्जनों श्रीवैष्णवों को श्रीभाष्य सिखा रहे थे। शिष्य कहते भक्ति योग का पालन करना बहुत कठिन है। तब वे उन्हें प्रपत्ति के बारे में समझाते हैं। वे लोग फिर कहते हैं कि प्रपत्ति का अभ्यास करना तो और भी कठिन है। उस समय अम्माल कहते हैं, “एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के चरण कमल ही हमारा एक मात्र आश्रय है केवल ऐसा ध्यान करो और यही तुम्हें मुक्ती प्रदान करेगा”।

चरमोपय निर्णय में भी समान घटना दर्शाई गयी है।

नडातुर अम्माल कुछ श्री वैष्णवों को श्रीभाष्य का अध्यापन कर रहे थे। उस समय उनमें से कुछ लोग ने कहा “जीवात्मा द्वारा भक्ति योग का अभ्यास नहीं किया जा सकता क्यूंकि वह बहुत कठिन है (उसमें बहुत से अधिकारों की आवश्यकता है जैसे पुरुष होना, त्रिवर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, एक समान ध्यान और भगवान की सेवा आदि) और प्रपत्ति भी नहीं की जा सकती क्यूंकि वह स्वरुप के विरुद्ध है (जीवात्मा पुर्णतः भगवान के आधीन है, चरम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए स्वयं के द्वारा किया गया कोई भी कार्य उस पराधीनता के विरुद्ध है)। ऐसी स्थिति में, जीवात्मा चरम लक्ष्य को कैसे प्राप्त कर सकता है?”। नडातुर अम्माल कहते हैं “उनके लिए जो यह सब करने में असमर्थ है, एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) का अभिमान ही परम मार्ग है। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है। मैं इस बात पर द्रढ़ता से विश्वास करता हूँ”। अम्माल के अंतिम निर्देश इस लोकप्रिय श्लोक में समझाया गया है:

प्रयाण काले चतुरस् च्वशिष्याण् पदातिकस्ताण् वरदो ही वीक्ष्य
भक्ति प्रपत्ति यदि दुष्करेव: रामानुजार्यम् नमतेत्यवादित् ।।

उनके अंतिम दिनों में, जब नडातुर अम्माल के शिष्य उनसे पूछते हैं कि हमारे आश्रय क्या है, अम्माल कहते हैं “भक्ति और प्रपत्ति तुम्हारे स्वरुप के लिए उपयुक्त नहीं है; केवल एम्पेरुमानार (रामानुज स्वामीजी) के चरण शरण होकर पुर्णतः उनके आश्रित हो जाओ; तुम्हें परम लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा”।

वार्ता माला में, कई द्रष्टांतों में नडातुर अम्माल को दर्शाया गया है। उनमें से कुछ हम अब देखते हैं:

  • 118 – एंगलाल्वान नडातुर अम्माल को चरम श्लोक का उपदेश दे रहे थे। “सर्व धर्मान् परित्यज्य” समझाते हुए– नडातुर अम्माल सोचते हैं कि भगवान इतनी स्वतंत्रता से शास्त्रों में बताये गए सभी धर्मों (उपायों) का त्याग करने के लिए क्यूँ कह रहे हैं? एंगलाल्वान कहते हैं- यह भगवान का वास्तविक स्वरुप है– वे पुर्णतः स्वतंत्र हैं– इसलिए उनके लिए ऐसा कहना एकदम उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त वे कहते हैं कि भगवान जीवात्मा को किसी भी अन्य उपायों, जो जीवात्मा के वस्तविक स्वरुप के विरुद्ध है, में प्रयुक्त होने से बचाते हैं– क्यूंकि जीवात्मा पूर्ण रूप से भगवान के आश्रित है, जीवात्मा के लिए भगवान को उपाय स्वीकार करना ही उपयुक्त है। इसलिए, एंगलाल्वान स्पष्टतया समझाते हैं कि यहाँ भगवान के शब्द सबसे उपयुक्त है।
  • 198 – जब नडातुर अम्माल और एक श्री वैष्णव जिनका नाम आलीपिल्लान था (संभवतया एक अब्राह्मण श्रीवैष्णव या आचार्य पुरुष्कार हीन) एक साथ प्रसाद पा रहे थे, पेरुंगुरपिल्लाई नामक एक अन्य श्रीवैष्णव उसे बहुत आनंद से देखते हैं और कहते हैं “आपको इन श्री वैष्णव के साथ स्वतंत्र रूप से घुलते-मिलते देखे बिना, यदि मैं केवल सामान्य निर्देश सुनाता कि वर्णाश्रम धर्म का सब समय पालन करना चाहिए, तो मैं सारतत्व को पूरी तरह से खो देता”। अम्माल कहते हैं “सत्य यह है कि कोई भी/ कैसा भी, जो एक सच्चे आचार्य से सम्बंधित हो हमें उसे स्वीकार करके गले से लगा लेना चाहिए। इसलिए एक महान श्रीवैष्णव के साथ घुलने मिलने के मेरे इस अनुष्ठान को विशेष निर्देश (भागवत धर्म) जो हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा समझाया गया है के अनुसार समझना चाहिए”।

पिल्लै लोकाचार्य के तत्व त्रय के सूत्र 35 के व्याख्यान में (http://ponnadi.blogspot.in/p/thathva-thrayam.html), मणवाल मामुनिगल अम्माल के तत्व सारं के एक सुंदर श्लोक के माध्यम से प्रत्येक कार्य के प्रथम विचार में जीव का स्वातंत्रियम् (भगवान द्वारा जीव को दी गयी स्वतंत्रता) स्थापित करते हैं और यह बताते हैं कि कैसे भगवान प्रत्येक कार्य के प्रथम विचार द्वारा जीवात्मा का मार्ग दर्शन करते हैं।

इस तरह हमने नडातुर अम्माल के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे एक महान विद्वान् थे और एंगलाल्वान के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र भागवत निष्ठा की प्राप्ति हो।

नडातुर अम्माल की तनियन:

वन्देहम् वरदार्यम् तम् वत्साबी जनभूषणं
भाष्यामृतं प्रदानाद्य संजीवयती मामपि ।।

-अदियेन् भगवति रामानुजदासी

आधार : https://guruparamparai.wordpress.com/2013/04/05/nadathur-ammal/

archived in https://guruparamparaihindi.wordpress.com , also visit http://ponnadi.blogspot.com/

pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava Education/Kids Portal – http://pillai.koyil.org