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वादिकेसरी अऴगिय मणवाळ जीयर

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री वानाचलमहामुनये नमः

वादिकेसरी अऴगिय मणवाळ जीयर

तिरुनक्षत्र – स्वाति नक्षत्र , ज्येष्ठ मास

अवतार स्थल – मन्नार् कोइल(अम्बा समुद्र के नज़दीक)

आचार्य – पेरियवाचान् पिळ्ळै (से पंच संस्कार प्राप्त हुआ), नायनाराचान्पिळ्ळै ( से शास्त्र अभ्यास)

शिष्य शिष्य गण्.– यामुनाचार्य ( प्रमेय रत्नम्, तत्व भूषण के लेखक), पिन्चेन्ट्रविल्लि (पिन्चेन्द्रविल्लि),  इत्यादि… 

स्थल जहाँ से परमपद को प्रस्थान हुए – श्री रंगम् / तिरुवरंगम्

ग्रंथ रचना सूची – तिरुवाय्मोऴि १२००० पड़ि व्याख्यान, तिरुविरुत्तम् स्वापदेश व्याख्यान, द्रविड़ोपनिषद् संगति-तिरुवाय्मोऴि संगति श्लोक, आध्यात्म चिंतै, रहस्यत्रय विवरण्, दीप संग्रहम, तत्व दीपम, दीप प्रकाशिकै, तत्व  निरूपणम, भगवत् गीता वेन्बा- तमिल में भगवद गीता का अनुवाद, भगवद गीता व्याख्यान, इत्यादि.… 

वादिकेसरी अऴगिय मणवाळ जीयर को उनके माता- पिता से दिया हुआ नाम वरदराजर था । उन्होनें बहुत छोटे उम्र मे पेरियवाचान् पिळ्ळै के शिष्य बनकर तिरुमडपल्लि (रसोईघर) में कैंकर्य करते थे। जब वरदराजर ३२ साल के थे, एक दिन वो शास्त्र चर्चा करने वाले विद्वान लोगों के पास जाकर पूछें – किस शास्त्र की चर्चा हो रही है? उन विद्वान लोगों को यह मालूम था कि वरदराजर को शास्त्र विद्या में प्रवेश नहीं है ( शास्त्रों से वे विमुख (अज्ञान) थे ) । वरदराजर को परिहास करने के लिए वे सभी कहे – “मुसलकिसलयम्” (ऐसा शास्त्र है नहीं) की चर्चा चल रही है। और उन सभी ने वरदराजर को निरक्षर (अज्ञानी) बोलकर उनका परिहास किया । वरदराजर ने पेरियवाचान् पिळ्ळै को इस घटना के बारे मे बताया । पेरियवाचान् पिळ्ळै ने कहा – ” तुम विद्याहीन होने के कारण, वे सभी तुम्हारा मज़ाक कर रहे हैं “। इस घटना से शर्मिंदा होकर पेरियवाचान् पिळ्ळै से प्रार्थना करते हुए वरदराजर ने उनको शास्त्र सिखाने को कहा । अत्यंत दयालु पेरियवाचान् पिळ्ळै ने वरदराजर को काव्य, नाटक, तर्क, अलंकार, शब्द, पूर्व मीमांस, उत्तर मीमांस, इत्यादि शास्त्र सिखाना शुरू किये । पेरियवाचान् पिळ्ळै के कृपा के कारण वरदराजर ने सब शास्त्र में निपुण होकर मुसलकिसलयम् नामक ग्रन्थ निर्माण करके, उनका परिहास करने वाले विद्वानों को यह ग्रंथ प्रस्तुत किये । वरदराजर ने भगवद विषयम इत्यादि शास्त्र नायनाराचान्पिळ्ळै से सीखा । आचार्य (गुरु) की दया से शिष्य को ज़रूर अत्यंत उत्तम स्थान प्राप्त होगा, इस सत्य का उत्तम उदाहरण है वरदराजर का जीवन चरित्र । 

कुछ ही समय में, वरदराजर सांसारिक विषयों से अनासक्त होकर सन्यास आश्रम स्वीकृत करके अऴगिय मणवाळ जीयर (सुन्दर जामातृमुनि) का नाम लिया । तब से अऴगिय मणवाळ जीयर शास्त्र विषयों में अनेक विद्वान को जीत कर “वादी केसरी”(शास्त्र चर्चा में शेर) के नाम से प्रसिद्ध हुए । 

अऴगिय मणवाळ जीयर ने कई ग्रंथों की रचना की । इसमे तिरुवाईमोली का हर शब्द का अर्थ १२००० पड़ी की रचना सबसे प्रसिद्ध है। यह १२०००  पड़ी अनन्य ग्रन्थ है जिसमे अऴगिय मणवाळ जीयर ने श्री नम्माल्वार के हर एक भावावेश को प्रतिपादित किये । तिरुवाईमोली की अनेक विवरण ग्रन्थ किये हुए हैं , लेकिन उसमे १२००० पड़ी सर्वोत्तम माना जाता है। अऴगिय मणवाळ जीयर ने भगवद गीता सार को तमिल में अत्यंत सरल तरह से अनुवाद किया । इस के अलावा अऴगिय मणवाळ जीयर ने बहुत रहस्य ग्रंथों कि रचना की । 

इनके शिष्य यामुनाचार्यार ( तिरुमालै आण्डान् की संतति) ने तत्व भूषणम और प्रमेय रत्नम् नामक दो रहस्य ग्रन्थ रचना किया । यह दोनों ग्रन्थ श्री वैष्णव सिद्धांत के विषयों से भरा हुआ है। 

तिरुवाय्मोळि के सभी व्याख्यानों का विचार करते समय श्री मणवाळ महामुनि ने अऴगिय मणवाळ जीयर की १२००० पड़ी की प्रशंसा किया था। उपदेशरत्नमालै की ४५ पासुर का अर्थ विचार करेंगे:

अंबोडु अऴगिय मणवाळ जीयर , पिनबोरुम कट्ट्ररिन्धु पेशुगैक्का |

तम् पेरिय पोदुमुडन मारन मरैयिन् पोरुल् उरैत्तदु,एदमिल् पन्नीर् आयिरम् ||

अनुवाद: श्री अळगिय मणवाळ जीयर ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए बहुत प्रेम, प्यार और सत्भावना से, श्री नम्माळ्वार के तिरुवाय्मोळि को शब्दार्थ सहित अपने १२००० पडि व्याख्यान मे प्रस्तुत किये, जो अत्यन्त शुद्ध और दोषरहित है, ताकि भविष्य मे प्रत्येक जीव इसका वर्णन आसानी से कर सकें ।

पिल्लै लोकम जीयर ने इसका विवरण इस प्रकार सूचित किया:- 

१. प्रेम: तिरुवाय्मोळि के बारे में भक्ति । सर्व जनता में दया। 

२. यद्यपि लोक में  तिरुवाय्मोळि के बारे में ४ विवरण हैं, कभी तिरुवाय्मोळि में कुछ संशय हुआ तो , सभी अऴगिय मणवाळ जीयर से किये हुए १२००० पड़ी का आश्रय लेते हैं। 

३. तिरुवाय्मोळि के बारे में वादिकेसरी अऴगिय मणवाळ जीयर के ज्ञान को श्री मणवाळ महामुनि प्रशंसा करते थे । 

४. नम्माल्वार का अनुभव सार को सही तरह से १२००० पड़ी में वर्णन किया गया है। यह पूर्णतः अन्य उपलब्ध व्याख्यानों से समकलिक है।

५. जैसा नम्माल्वार ने अपने तिरुवाय्मोळि को निष्कलंक कहा है , उसी तरह श्री मणवाळ महामुनि  कहते हैं कि अऴगिय मणवाळ जीयर की १२००० पड़ी भी निष्कलंक है। 

इस तरह अऴगिय मणवाळ जीयर का जीवन भागवत लोगों की सेवा में था  । पेरियवाच्चान पिल्लै और नायनार आच्चान पिल्लै के अत्यंत प्रिय थे । हम सभी ऐसे महापुरुष से प्रार्थना करें कि हम सभी ऐसे आचार्य निष्ठ रहें और उनकी सेवा मे तत्पर रहें।

वादिकेसरी अऴगिय मणवाळ जीयर का ध्यान श्लोक:

सुंदरजामातृ मुने: प्रपद्ये चरणामभुजम्।

संसारार्णव सम्मग्न जन्तु सन्तारपोतकम् ॥ 

अडियेन श्रीनिवास रामानुज दासन 

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कुरुगै कावलप्पन्

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री वानाचलमहामुनये नमः 

तिरुनक्षत्र – विशाखा नक्षत्र 

अवतार स्थल – आलवार तिरुनगरी (आऴ्वार तिरुनगरि)

आचार्य – नाथमुनिगल् (श्री नाथमुनि). 

कुरुगैकावलप्पन नाथमुनिगल् (श्री नाथमुनि) के प्रिय शिष्य थे | नाथमुनिगल् (श्री नाथमुनि), काटुमन्नार कोइल को लौटने के बाद, पेरिय पेरुमाळ  (श्री रंगनाथ पेरुमाळ) का ध्यान करते हुए कुछ समय बिताये ।  अनन्तर, उन्होंने कुरुगैकावलप्पन् को योग रहस्य सिखाकर उसको यही सिखाने का आदेश दिया । कुरुगैकावलप्पन्  ने आचार्य के आदेशानुसार योग रहस्य को सीख कर निरंतर अष्टांग योग के माध्यम से भगवान का ध्यान करने लगे । जब नाथमुनिगल् को परमपद प्राप्त हुआ, कुरुगैकावलप्पन् ने उसी जगह में रह कर, उस पवित्र जगह का ख्याल रखते हुए, भगवान का ध्यान करने लगे ।

मणक्काल् नम्बि (श्री राममिश्र)  ने उनके शिष्य  आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) को  कुरुगैकावलप्पन्  से योग रहस्य सीखने का आदेश दिया था । आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) शिष्यों के साथ कुरुगैकावलप्पन् के पास गये । उस वक्त कुरुगैकावलप्पन्  भगवान के ध्यान में मग्न थे | कुरुगैकावलप्पन् के ध्यान को विघ्न देना नहीं चाहते हुए आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) शिष्यों के साथ कुरुगैकावलप्पन्  के पीठ पीछे दीवार के पीछे चुपचाप खड़े हुए । एकाएक कुरुगैकावलप्पन ध्यान से उत्तेजित होकर पूछे कि कोई “चोट्ट कुल” (महान परिवार) में पैदा  हुआ आदमी मेरे पीछे है ?  तब आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) बाहर आकर प्रकट करते कि वह नाथमुनिगल् (श्री नाथमुनि) के पौत्र हैं और पूछते कि -” हम सब दीवार के पीछे थे । आप बिना देखे कैसे पहचाना कि कोई “चोट्ट कुल” (महान परिवार) का आदमी आया हैं ?” कुरुगैकावलप्पन् ने बताया की -“जब वह भगवान के ध्यान में मग्न होते, तो कभी भी पेरिय पेरुमाळ  (श्री रंगनाथ पेरुमाळ) ने, पेरिय पिराट्टि (श्री रंगनाच्चियार्) के बुलाये जाने पर भी मेरे से नज़र नहीं हटाते थे । लेकिन जब आप मेरे पीठ के पीछे खड़े हुए, पेरिय पेरुमाळ  (श्री रंगनाथ पेरुमाळ) मेरे कन्धों को नीचे दबाकार बार-बार मेरे पीठ के पीछे देखने लगे । इससे मैने पहचाना कि भगवान का अत्यंत प्रिय नाथमुनिगल् (श्री नाथमुनि) के परिवार में से कोई व्यक्ति मेरे पीठ के पीछे है “।  कुरुगैकावलप्पन् के ध्यानानुभव और नाथमुनिगल् (श्री नाथमुनि) के प्रति भगवान के प्रेम और प्रीति को जानकर आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) अत्यन्त संतुष्ट हुए |

फिर आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) ने कुरुगैकावलप्पन् के चरण-कमल में आश्रित होकर योग रहस्य सिखाने की प्रार्थना किये । कुरुगैकावलप्पन् ने आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) को वचन दिया कि वे इस संसार को छोड़कर जाते वक्त आळवन्दार को वह योग रहस्य सिखा देंगे । योग रहस्य में विशेष विद्वान् होने के कारण कुरुगैकावलप्पन् इस संसार को छोड़ने का दिन ठीक से जानते थे। कुरुगैकावलप्पन् ने उस दिन का,यानि दिनांक और समय सहित विवरण को आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) के समक्ष प्रकट किये और पूर्वोक्त दिन, योग रहस्य सीखने के लिए वापस आने को कहा । आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) ने कुरुगैकावलप्पन् की बात मान कर श्रीरंगम् वापस होकर पेरिय पेरुमाळ  (श्री रंगनाथ पेरुमाळ) की सेवा करने लगे ।

तदनंदर,  श्रीरंगम् में अध्ययन उत्सव के समय पर, पेरिय पेरुमाळ  (श्री रंगनाथ पेरुमाळ) के समक्ष तिरुवरन्गप्पेरुमाळ् अरयर् नम्माऴ्वार का तिरुवाय्मोऴि के गान का निवेदन प्रस्तुत करते हुए, आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) की ओर देखते है और तिरूवनन्तपुरम् का पासुर (गाना) “नाडुमिनो नमार्गलुल्लिर नामुमक्कू अरियच्चोंनोम “(भक्त लोग  एक बार  तिरूवनन्तपुरम् को आना) गाते है | इसको भगवान का आदेश मानकर आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) तिरूवनन्तपुरम् चले गए। तिरूवनन्तपुरम् में भगवान की पूजा करते वक्त आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) को एहसास होता है कि यह वही दिन है जिस दिन कुरुगैकावलप्पन् उन्हें योग रहस्य सिखाना चाहते थे । तुरंत उधर पहुँचने के लिए पुष्पक विमान् नहीं सोच कर आळवन्दार् (श्री यामुनाचार्य) को बहुत शोक हुआ ।

कुरुगैकावलप्पन् ध्यान में भगवान का स्मरण करते उनको आचार्य का श्री चरण प्राप्त हुआ |

इस प्रकार, भगवान और आचार्य भक्ति बढ़ने के लिए कुरुगैकावलप्पन् के श्री चरण में प्रार्थना करे ।

कुरुगैकावलप्पन् ध्यान श्लोक्: 

नाथमौनी पदासक्तं ज्ञानयोगादि सम्पदम्।

कुरुगाधिप योगींद्रं नमामि सिरसा सदा॥

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अडियेन श्रीनिवासराघव रामानुज दास