Author Archives: Karthik Sriharsha

आण्डाल

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमद् वरवरमुनये नमः

श्री वानाचलमहामुनये नमः

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तिरुनक्षत्र : आशड मास, पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र

अवतार स्थल : श्री विल्लिपुत्तूर

आचार्य : पेरियाल्वार

ग्रंथ रचना : नाच्चियार तिरुमोलि, तिरुप्पावै

तिरुप्पावै ६००० पड़ी व्याख्यान में, श्री पेरियवाच्चान पिल्लै सर्वप्रथम अन्य आल्वारों की तुलना में आण्डाल के वैभव और महत्व का प्रतिपादन करते है | वे विभिन्न प्रकारों के जीवो का उदहारण देते हुए अत्यंत सुन्दरता से इनका विभाग करते है और इनके बीच का फर्क समझाते है जो आगे प्रस्तुत है :

सर्वप्रथम : संसारियो ( देहात्म अभिमानी संसारिक जन ) और ऐसे ऋषि जिन्हें स्वरूप ज्ञान का साक्षात्कार हुआ है इनमे छोटे पत्थर और बड़े पर्वत का फर्क है |

दूसरा : पूर्वोक्त ऋषियों (जिन्हें अपने बल बूते पर आत्म साक्षात्कार हुआ है, जो कभी कभी अपने स्थर से नीचे गिर जाते थे) और आल्वारों (जिन्हें केवल भगवान के निर्हेतुक कृपा से आत्म साक्षात्कार हुआ है और जो अत्यंत शुद्ध है) में भी छोटे पत्थर और बड़े पर्वत का फर्क है |

तीसरा : पूर्वोक्त आल्वारों (जो कभी कभी स्वानुभव और मंगलाशाशन पर केन्द्रित थे) और पेरियाल्वार (जो सदैव मंगलाशाशन पर केन्द्रित थे) में भी छोटे पत्थर और बड़े पर्वत का फर्क है |

चौथा : पेरियाल्वार और आण्डाल में भी छोटे पत्थर और बड़े पर्वत का फर्क है | इसके अनेनानेक कारन है जो निम्नलिखित है

) अन्य आल्वारों को सर्वप्रथम भगवान के निर्हेतुक कृपा के पात्र बनाकर सुसुप्त बद्ध जीवो को जगाया (दिव्य ज्ञान – भगवत विषय) | परन्तु श्री आण्डाल अम्मा ने (जो साक्षात् भू देवी की अवतार है) भगवान को अपनी नीदं से जगाया और उनके कर्तव्य का स्मरण कराया (सारे जीवो का संरक्षण) | नंपिल्लै ने तिरुविरुत्तम और तिरुवाय्मोलि के व्याख्या में यह प्रतिपादित किया है की आल्वार संसारी ही थे जिन पर भगवान का निर्हेतुक कृपा कटाक्ष हुआ है और अत: भगवान से दिव्य ज्ञान प्राप्त किये है | इसके विपरीत में आण्डाल अम्मा तो साक्षात् भू देवी का अवतार स्वरूप है, जो नित्यसूरी है, और भगवान की दिव्य महिषी है | इनके मार्गदर्शन में चलते श्री पेरिय वाच्चान पिल्लै ने भी यही निरूपण दिया है |

) आंडाल अम्मा एक स्त्री होने के नाते उनका भगवान के साथ पतिपत्नी का सम्बन्ध स्वाभाविक था | अत: इसी कैंकर्य का आश्रय लेकर उन्होंने कैंकर्य किया | इसके विपरीत देखा जाए तो अन्य आल्वार को पुरुष देह प्राप्त हुआ था | इसी कारण कहा जाता है की आण्डाल अम्मा और इन आल्वारों के भगवद प्रेम में बहुत अन्तर है | आण्डाल अम्मा का भगवद प्रेम आल्वारों के भगवद प्रेम से उत्कृष्ट और कई गुना श्रेष्ठ है |

पिल्लै लोकाचार्य स्वरचित श्रेष्ठ और उत्तम ग्रंथ श्री वचन भूषण में आण्डाल अम्मा के वैभव को इन निम्नलिखित सूत्रों से दर्शाते है जो इस प्रकार है :

सूत्र २३८ : ब्राह्मण उत्तम राणा पेरियाल्वारुम तिरुमगलारुम गोपजन्मत्तै अस्थानं पन्ननिण्णार्घळ

पिल्लै लोकाचार्य इस सूत्र में बिना जन्म, जाती, इत्यादी के भेदभाव से भागवतो की श्रेष्ठता को समझाते है | यहाँ वे यह समझाते है की ऐसे कई भागवत है जो स्वरुपनुरूप कैंकर्य और भगवद अनुभव हेतु विभिन्न योनियों में जन्म लेना चाहते है | वे आगे कहते है की हालाँकि पेरियाल्वार और आण्डाल अम्मा ने ब्राह्मण योनी में जन्म लिया परन्तु वे दोनों चाहते थे की वे वृन्दावन के गोपी बनकर भगवान की सेवा करे | आण्डाल अम्मा ने स्पष्ट रूप से दर्शाया है की भगवान को प्रिय कैंकर्य ही सभी जीवो का लक्ष्य और उद्देश्य है | इसीलिए हम सभी को ऐसे कैंकर्य का गुन गान करना चाहिए और चाहे कैंकर्य किसी रूप में हो ऐसे कैंकर्य की चाहना करनी और होनी चाहिए |

सूत्र २८५ : कोडुत्तुक कोळ्ळाते कोण्डत्तुक्क कैकुलि कोडुक्कवेन्णुम

इस प्रकरण में, पिळ्ळै लोकाचार्य जी कहते है की कैंकर्य किस प्रकार करना चाहिए | यह सूत्र २३८ से संबंधित है जिसमे लोकाचार्य कहते है कि किस प्रकार एक जीव को चाहना होनी चाहिए की भगवान् को प्रिय सेवा में कैसे तत्पर रहे | पूर्वोक्त सूत्र (२८४) में कहते है की कैंकर्य निस्वार्थ और अन्याभिलाश रहित होनी चाहिए | कैंकर्य के बदले में किसी भी प्रकार की चाहना नहीं होनी चाहिए | यानि तुच्छ फल की प्राप्ति हेतु कैंकर्य नहीं करना चाहिए | लेकिन इस सूत्र में लोकाचार्य जी कहते है की प्रत्येक जीव को भगवान का कैंकर्य करना चाहिए और अगर भगवान हमारे कैंकर्य से प्रसन्न है तो उनके प्रति और कैंकर्य करना चाहिए | श्री वरवरमुनि इस भाव को अत्यंत स्पष्ट और सरल रूप में आण्डाल अम्मा की स्वरचना नाच्चियार तिरुमोळिके ९.७ पासुर इन्रु वाण्तु इत्तनैयुम चेय्दिप्पेरिल णान् ओन्रु नूरु आयिरमागक्कोडुत्तु पिन्नुं आळुम चेय्वान” से समझाते है | इस पासुर में गोदाअम्मा जी कहती है की पूर्वोक्त पासुर के अनुसार उनकी इच्छा थी की वे भगवान तिरुमालिरुन्सोलै अळगर को १०० घड़े माखन और १०० घड़े मिश्रान्न समर्पित करे और जब उन्होंने यह सेवा सम्पूर्ण किया तो उन्होंने देखा की किस प्रकार भगवान उनकी इस सेवा से संतुष्ट है और आनंदोत्फुल्ल चित्त भाव से समर्पित भोग्य आहार को ग्रहण किये | तदन्तर गोदा अम्मा भी और हर्षोत्त्फुल्ल भाव से कही मै आपके के लिए इसी प्रकार की सेवा आशारहित होकर मै तत्पर रहूंगी और आपकी सेवा का आनंद का रसास्वादन करूंगी | अत: कुछ इस प्रकार से गोदा अम्मा ने स्वरचित पासुरों में हमारे संप्रदाय के उच्च कोटि विषय तत्वों को अत्यंत सरल रूप में प्रकाशित किया है |

तिरुप्पावै के २०००पड़ी” और ४०००पड़ीके व्याख्यान कर्ता श्री आई जनन्याचार्य अपने व्याख्या की भूमिका में तिरुप्पावै के वैभव को अति सुंदर रूप में वर्णन करते है | इस भूमिका में वे श्री रामानुजाचार्य के समय हुई एक घटना का उदाहरण देते हुए कहते है की स्वयं गोदा देवी (जो आळ्वारों के उत्तम गुणों का समागम है) ही सर्वोत्कृष्ट और योग्य है जिनसे हम सभी उनकी स्वरचित भावमुग्ध भावनामृत तिरुप्पावै की कथा और श्रवण के रस का आस्वदान कर सकते है | इसी में श्री रामानुजाचार्य से एक बार कई शिष्यों ने निवेदन किया की वे गोदा अम्मा जी के भावमुग्ध भावनामृत तिरुप्पावै की कथा करे | तब श्री रामानुजाचार्य ने कहा हे उपस्थित शिष्यों ! आप सभी भलीभाँती जानते है की तिरुप्पल्लाण्डु की कथा और श्रवण करने के लिए बहुत से वैष्णव होंगे परन्तु भावमुग्ध भावनामृत तिरुप्पावै के नहीं | क्योंकि तिरुप्पल्लाण्डुनिम्न स्थर पर भगवद मंगलाशासन के लिए ही किया गया था और इसकी कथा और श्रवण करने के लिए बहुत सारे योग्य लोग होंगे परन्तु भावमुग्ध भावनामृत तिरुप्पावै की रचना श्री गोदा अम्मा जी ने भागवतो का मंगलाशासन के लिए किया है जो अत्यंत उच्च श्रेणी (चरमपर्व) की रचना है और जिसका रसास्वादन  कुछ महा रसिक भागवत ही कर सकते है | आगे रामानुजाचार्य कहते है की तिरुप्पावै की कथा और श्रवण के लिए पुरुष कभी भी योग्य नहीं है क्योंकि गोदा अम्मा जी के कैंकर्योत्फुल्ल और भावुक हृदय और तिरुप्पावै के गोपनीय अर्थों को समझने के लिए हमें भी पतिव्रता स्त्री (जो पति पर पूर्ण रूप से निर्भर होती है) के अनुसार भगवान की अहैतुक और निर्हेतुक कृपा पर निर्भर होना चाहिए | आगे और भी कहते है की भगवान की पत्नियाँ (जो स्वानुभव की प्रतीक्षा से कैंकर्य में तत्पर है) भी भावमुग्ध भावनामृत तिरुप्पावै की कथा और श्रवण नहीं कर सकती है | इसका पूर्ण श्रेय केवल श्री गोदा अम्माजी का ही है |

श्री वरवरमुनि स्वरचित उपदेश रत्नमाला के २२, २३, २४ पासुर में गोदा अम्मा जी के वैभव का गुण गान करते है जो इस प्रकार है :
पासुर २२ : श्री वरवरमुनि किस प्रकार भावोत्फुल्ल होकर सोचते है, किस प्रकार माता गोदा ने अपने निज निवास परमपद को छोड़कर, उन्हें बचाने के लिए (बद्ध जीवो का उद्धार हेतु) इस भव सागर में श्री पेरियाल्वर की पुत्री के रूप में अवतरित हुई | कहा जाता है की जिस प्रकार नदी में अपने शिशु को डूबते हुए  देखकर उसकी माता स्वयं नदी में कूदती है ठीक उसी प्रकार सभी जीवों की माता गोदा अम्मा भी इस भव सागर में कूदती (अवतार लेती)  है |

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पासुर २३ : इस पासुर में श्री वरवरमुनि कहते है की गोदा अम्मा के तिरुनक्षत्र की भांति कोई और नक्षत्र नहीं हो सकता है क्योंकि उनका तिरुनक्षत्र सर्वश्रेष्ट और अत्योत्तम है |
पासुर २४ : इस पासुर में श्री वरवरमुनि कहते है की गोदा अम्मा “अंजु कुडी” की बेटी है | उनके दिव्य कार्य अन्य आल्वारों के कार्यों से भिन्न और सर्वोत्कृष्ट है | और किस प्रकार से उन्होंने भगवान के प्रति अपने निष्क्रिय प्रेम भावना को छोटे उम्र में ही प्रकाशित किया | पिल्लै लोकम जीयर “अंजू कुडी” का मतलब समझाते हुए कहते है :
१) जिस प्रकार पांडवो के वंश का अंतिम उत्तराधिकारी परीक्षित महाराज थे उसी प्रकार हमारे आल्वारों के वंश की अंतिम उत्तराधिकारी गोदा अम्मा जी है |
२) वे आल्वारों के प्रपन्न कुल में अवतरित हुई |
३) वे पेरियाल्वार (जो सदैव भगवान के लिए भयभीत थे और मंगलाशसन किया करते थे) की उत्तराधिकारी थी |

कहा जाता है कि गोदाअम्माजी पूर्ण रूप से आचार्य निष्ठावान थी | कहते हैं कि पेरिय आळ्वार की भगवान में रति के कारन ही श्री आण्डाल अम्माजी भी भगवान में रति से संपन्न हुई और तदन्तर उनका मंगलाशाशन कर गुणगान किया | निम्नलिखित स्व वचनों पर आधारित कुछ प्रस्तुत है :

१) आप श्री अपने नाच्चियार तिरुमोळि के १०.१० वे पासुर में कहती है : ” विल्लिपुदुवै विट्टूचित्तार तंगळ देवरै वल्ल परिचु वरुविप्परेल अदु कान्ण्दुमे ” अर्थात वे स्वत: अपनी ओर से भगवद आराधना नहीं करेंगी अपितु अगर उनके पिताश्री भगवान को स्वयं बुलाकर मनाएंगे तभी आप श्री भगवद आराधना करेंगे |

२) श्री वरवरमुनि स्वामीजी अपने उपदेश रत्नमाला में सुन्दर रूप से पहले १० आळ्वारों का परिचय देते हुए तदन्तर “श्री गोदा अम्माजी”, “मधुर कवि आळ्वार”, “श्री भाष्यकार – एम्पेरुमानार” का परिचय देते है क्योंकि ये तीन मुख्यत: आचार्य निष्ठावान है |

पूर्वोक्त वाक्यांशों को ध्यान में रखते हुए, श्री गोदाम्माजी के चरित्र का संक्षिप्त वर्णन का अनुभव अब करे :

आण्डाल जी श्री विल्लिपुत्तूर के तुलसी वन (जहा वर्तमान नाच्चियार मंदिर है) में अवतरित हुई थी | जिस प्रकार राजा जनक की भूमि में भू सिंचन के जयिरे प्राप्त शिशु का नाम (हल के नाम के अनुसार) सीता रखा गया, उसी प्रकार श्री पेरियाल्वार ने तुलसी वन में प्राप्त शिशु (जो साक्षात् भू देवी की अवतार है) का नाम कोदै (गोदा – अर्थात माला) रखा इत्यादी |

आप श्री को बचपन से ही भगवान की दिव्य लीलाओं का रसास्वादन कराया गया था | इसी कारण आप विशेषत: भगवान से आकर्षित थी | आप श्री के पिता, श्री पेरियाल्वार हर रोज़ वटपत्रशायी भगवान के लिए सुघंदित पुष्पों की माला बनाते थे | भगवान भावनामृत रति के कारन आप श्री भगवान को ही उचित वर मान लिया और यही सुनिश्चित किया | आप श्री के पिता के अनुपस्थिति में, आप ने भगवान की माला (जो हाल ही में भगवान को समर्पित की जाने वाली थी) को स्वयं पहनकर आईने के सामने खड़ी होकर सोचने लगी – अरे ! कितनी सुन्दर माला है | मै खुद इस माला के प्रति आकर्षित हो रही है | क्या यह माला पहनकर मै भगवान के साथ योग्य हूँ या अयोग्य हूँ ?  ऐसा सोचकर तदन्तर आप श्री ने माला को उक्त जगह पर रख दी | तन्दंतर आप श्री के पिता, श्री पेरियाल्वार आये और यही माला भगवान को अर्पण किये | यह घटना क्रम कई दिनों तक चल रहा था | अचानक एक दिन आप श्री के पिता ने देखा – आप श्री भगवान के भोग्य वस्तु को (असमर्पित माला) स्वयं पहनकर उसका रसास्वादन कर रही थी | यह देखकर आप श्री के पिता बहुत व्याकुल और निराश हुए और तदन्तर उन्होंने यह माला भगवान को अर्पण नहीं किया | उस रात, भगवान स्वयं आप श्री के पिता जी के स्वप्न में आकर पेरियाल्वार से पूछे : श्रीमान, आप मेरे लिए फूलो की माला क्यों नहीं लाये ? आळ्वार ने कहा – आप सर्वज्ञाता है| मेरी बेटी ने असमर्पित माला को स्वयं पहन लिया | इसी कारण आप को यह उच्श्रिष्ट माला अर्पण नहीं किया | तदन्तर भगवान बोले – आपने ऐसा क्यों किया ? मुझे ऐसा प्रतीत हुआ की आप की बेटी के पहनने के कारन एक विशेष भक्तिरस की सुगंध आई | इस कारन आप इस कर्म को अनुचित ना समझे | मुझे ऐसी मालाये बहुत पसंद है | ऐसा भगवान से सुनकर अत्यंत प्रसन्न और भावुक आळ्वार ने प्रतिदिन – माला बनाकर, फिर अपनी बेटी को यही माला पहनाकर,फिर भगवान को अर्पण करना शुरू किया | अत: इस प्रकार से अपनी बेटी के प्रति उनका सम्मान और बड़ गया |

श्री आण्डाल नाच्चियार, जन्म से ही अत्यंत भक्ति भाव (परम भक्ति) से संपन्न थी क्योंकि आप श्री भू देवी की अवतार है और स्वभावत: आप श्री को भगवान से अनुरक्ति है | कहा जाता है की : आप श्री की भगवदानुरक्ति आप श्री के पिता के भगवदानुरक्ति से अधिकाधिक और सर्वश्रेष्ठ है | इस भगवदानुरक्ति के कारन आपमें विरह भाव की व्युत्पत्ति हुई और इस कारणवश आप सदैव व्याकुलता, भगवान को तुरंत पाने की इच्छा से ग्रस्त थी (भगवान् से ब्याह रचाना करना चाहती थी) | इस भावमयी अवस्था में आप श्री ने भगवान को पति के रूप में पाने के लिए तरह तरह के उपायो का अवलम्ब शुरू किया| जिस प्रकार वृन्दावन की गोपिकाओं ने श्री कृष्ण की प्राप्ति की थी, उन्ही के अनुसार दर्शाये मार्ग में श्री गोदा अम्मा जी ने श्रीविल्लिपुत्तूर को तिरुवैप्पड़ी (वृन्दावन), वटपत्रशायी भगवान को श्री कृष्ण, भगवान के मंदिर को श्री नंद बाबा का घर, स्थानीय कन्याओं को गोपीस्वरूप इत्यादी मानकर तिरुप्पावै व्रत का शुभारम्भ किया |

आपश्री तिरुप्पावै में निम्नलिखत वेद वाक्यांशों को दर्शाती है :

१) प्राप्य और प्रापक ( उपाय और उपेय) स्वयं भगवान ही है |

२) वैष्णव शिष्ठाचार ( पूर्वाचार्य अनुष्ठान ) का प्रकाशन ( क्या सही और क्या गलत ) |

३) भगवद अनुभव सदैव भक्तों के सत्संग में करना है और अकेले (स्वार्थपर) होकर नहीं |

४) भगवान के दर्शनार्थ और शरण लेने से पूर्व, सर्वप्रथम उनके द्वारपालक, बलराम जी, यशोदा माता, नंद बाबा इत्यादियों का आश्रय लेना चाहिए |

५) हमे श्री लक्ष्मी जी के पुरुषकार से ही भगवद प्राप्ति होती है और इनका आश्रय लेना प्रपन्नों का कर्त्तव्य है |

६) हमें सदैव भगवान का मंगलाशासन करना चाहिए |

७) हमें भगवान से कैंकर्य मोक्ष की इच्छा व्यक्त करते हुए उनसे प्रार्थना करनी चाहिए की भगवद-कैंकर्य का सौभाग्य प्रदान हो और हमारा कैंकर्य भगवान स्वीकार करे क्योंकि कि भगवद्कैंकर्य जीवात्मा का स्वस्वरूप है |

८) हमें पूर्ण रूप से समझना चाहिए की उपाय भगवान स्वयं है और एक क्षण के लिए यह नहीं सोचना चाहिए की स्वप्रयास भी उपाय है |

९) अन्याभिलाषी ना होते हुए,  केवल भगवदानुभव और भगवद्प्रीति हेतु भगवद्कैंकर्य करना चाहिए|

उपरोक्त व्रत के नियम पालन करने के बावजूद भी गोदा अम्माजी को भगवद-साक्षात्कार, भगवद्प्राप्ति नहीं हुई और भगवान ने उन्हें स्वीकार नहीं किया | यह जानकर, गोदा अम्माजी अत्यंत शोक ग्रस्त हुई | इसीलिए अपने असहनीय शोक और विरह भाव को स्वरचित “नाच्चियार तिरुमोलि” में व्यक्त करती है | हमारे सत्सम्प्रदाय के अनेकानेक विशेष तत्वों का निरूपण पूर्वोक्त ग्रन्थ में हुआ है | कहा जाता है कि नाच्चियार तिरुमोलि के श्रोताओं को वाकई में परिपक्व होना चाहिए वरना गलत भाव को समझेंगे | नाच्चियार तिरुमोलि में गोदा अम्मा जी कहती है ” मानिदवर्क्केंरु पेच्चुप्पदिल वाळगिन्रेन “: अगर कोई मेरे परिज्ञान के खिलाफ, बेईरादे से यह कह दे – आप श्री भगवान को छोड़कर किसी ओर से विवाहित है, मै तुरंत अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगी | मै ऐसा सुनना हरकिस सहन नहीं कर सकती हूँ |

वारणमायिरम दशक पद्य में, गोदा अम्माजी स्वप्न में भगवान से ब्याह रचने की लीला का वर्णन करती है | तदन्तर भावनारसरत गोदा अम्माजी को  आप श्री के पिता ने आप श्री को श्रीरंग जी के अर्चावतार का वैभव दर्श कराया और इस कारण वश आप श्री श्रीरंग भगवान के प्रति आकर्षित हुई | परन्तु अपनी बेटी की दुर्दशा देखकर पेरियाल्वार से रहा नहीं गया और वे भी शोक और व्याकुलता से ग्रस्त हुए | एक दिन, रात्री में, भगवान श्रीरंगनाथ उनके स्वप्न में आये और कहे – आप ज्यादा चिंतित ना हो श्रीमन ! आपको मै एक अच्छा शुभ दिन बतावूँगा और उस दिन आपको आपकी बेटी को मुझे सौपना होगा ताकि उनका उनकी प्रेमिका के मिलन हो | यह सुनकर हर्षित पेरियाल्वार ने भगवान को पुनः नमस्कार किया और बेटी की बारात की तय्यारी शुरी किया | भगवान के स्वयं उनके लिए अर्थात अपनी प्रेमिका भविष्य पत्नी के लिए पालकी, चामर, छत्री और उनके नित्य और वर्तमान कैंकर्यपरों को श्रीविल्लिपुत्तूर भेजा | आळ्वार अपने इष्टदेव श्री वतपत्रशायी भगवान से आज्ञा लेकर, बेटी को पालकी में बिठाकर, पूरे बरातीयों के साथ मंगल वाद्य यंत्रो के साथ श्रीरंग की ओर रवाना हुए |

सुसज्जित, अत्यंत सुन्दर, आभूषणों से अलंकृत गोदाम्माजी ने श्रीरंग में प्रवेश करते ही, पालकी से उतरी, मंदिर में प्रवेश करते हुए, तदन्तर मंदिर के गर्भ स्थान में प्रवेश की | तदन्तर आप श्री ने साक्षात श्रीरंग के चरण कमलों को छुआ और अंतर्धान हो गयी और इस प्रकार से अपने नित्य वास परमपद में प्रवेश किया|

 

यह दृष्टांत देखकर, उपस्थित अचंबित भक्तों ने भगवान के ससुर जी का अत्यंत आदर और सत्कार किया | भगवान ने तुरंत डंका घोषणा किये की पेरियाल्वार समुद्रराज की तरह उनके ससुर हो चुके है अत: उनका विशेष आदर और सत्कार हो | तदन्तर आप श्री के पिता, पेरियाल्वार श्रीविल्लिपुत्तूर को प्रस्थान हुए और वटपत्रशायी की सेवा में संलंग हुए |

श्री गोदा अम्माजी के जीवन वृत्तान्त की असीमित वैभव को सदैव या साल में मार्गशीष मॉस में अवश्य सुनते हुए मनन चिंतन करते है | परन्तु प्रत्येक बार हमें कुछ नया सा महसूस होता है जब भी इनकी कथा का श्रवण करे क्योंकि इनके स्वरचना और अन्य दिव्यप्रबंध में ऐसे असंख्य साम्प्रदायिक तत्त्व है  जिन्हें एक बार में जाना नहीं जा सकता है |

श्री गोदाम्माजी और उनकी स्वरचित तिरुप्पावै के असली वैभव के दृष्टांत को समझने के लिए, पराशरभट्टर जी के दिव्य वचन से समाप्त करेंगे | पराशर भट्टर कहते है – प्रत्येक प्रपन्न को तिरुप्पावै का पाठ और अनुसन्धान करना चाहिए | अगर यह संभव नहीं है तो मुख्य पासुर, अगर वों भी संभव नहीं हो तो अंत के दो पासुर (शित्तम शिरुघाले ..) का नित्य पाठ अवश्य करना चाहिए | अगर यह भी संभव नहीं है, तो याद करे श्री पराशर भट्टर को, जिन्हें तिरुप्पावै अत्यंत प्रिय है और जो तिरुप्पावैरत है | केवल यही सोच भगवान को संतुष्ट करती है | जैसे एक गाय, घास की पत्तियों और नकली चर्म से बने बछडे के स्पर्श मात्र से ही निसंकोच दूध देना शुरू करती है, उसी प्रकार भगवान जीवात्मा (जो नित्य तिरुप्पावै या तिरुप्पावैरत श्रीपराशर भट्टर का पाठ मनन चिंतन करता हो) के आचार्य सम्बन्ध को जानकर संकोच रहित अपनी कृपा वर्षा बरसाते है | श्री गोदाम्माजी ने अहैतुक कृपा से इस संसार में अवतार लिया और तिरुप्पावै का विशेष प्रसाद अनुगृहित किया ताकि बद्ध जीवात्माए भी भगवान के अहैतुक कृपा के पत्र बन सके और इस संसार के भव-बंधनों से विमुक्त होकर नित्य परमपद में भगवदनुभव और भगवद्कैंकर्य के आनंद का रसास्वादन करे |

श्री गोदाम्माजी का तनियन

नीळातुंगस्तनगिरितटी सुप्तमुद्बोध्य कृष्णम्
पारार्थ्यम् स्वम् श्रुतिशतशिरस्सिद्धमद्ध्यापयन्ती ।
स्वोचिष्ठायाम् श्रजनिगळितम् याबलात्कृत्य भुङ्ते
गोदा तस्यै नम इदं इदं भूय एवास्तु भूयः ॥

अडियेन सेत्तालूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तिक रामानुज दास
अडियेन सेत्तालुर वैजयंती आण्डाल रामानुज दासी

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पेरियाळ्वार

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री वानाचलमहामुनये नमः

 

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पेरियाळ्वार

 

तिरुनक्षत्र – स्वाति नक्षत्र , ज्येष्ठ मास

अवतार स्थल – श्री विल्लिपुत्तूर

आचार्य – श्री विष्वकसेन

ग्रंथ रचना सूची – तिरुप्पल्लाण्डु, पेरियाळ्वार तिरुमोळि

पेरियवाच्चान पिळ्ळै श्री पेरियाळ्वार के तिरुप्पल्लाण्डु व्याखा की भूमिका मे अत्यन्त सुन्दरता से उनका गुणगान करते है । पेरियवाच्चान पिळ्ळै यहाँ तादात्म्य रूप से स्थापित करते है की बद्ध जीवात्माओं को इस भव सागर से उत्थान हेतु श्री पेरियाळ्वार का अवतार हुआ है । श्री पेरियाळ्वार भगवान श्रीमन्नारायण के निर्हेतुक कृपा से सहज रूप मे भगवान श्रीमन्नारायण के दास्य से अलंकृत है । कहते है की आप श्रीमान चाहते थे की आपका जीवन केवल भगवद्-कैंकर्य मे ही होना चाहिये और इसी कारण आप ने शास्त्रों का अध्ययन कर पता लगाया कि सर्वश्रेष्ठ कैंकर्य क्या है । यह (सर्वश्रेष्ठ कैंकर्य के बारें मे) आपने भगवान श्री कृष्ण अवतार से संबन्धित लीला (कहते है की कंस की सभा मे प्रवेश करने से पहले श्री कृष्ण भगवान मथुरा मे प्रस्थान कर एक मालाकार के घर मे ठहरे और जहाँ उन्होने अपने वस्त्र इत्यादि बदले । तत्पश्चात उन्होने मालाकार से निवेदन किया की उन्हे निर्मल नूतन माला भेंट के रूप मे दे । मालाकार श्री कृष्ण भगवान की सुन्दरता से मुग्ध होकर अत्यन्त प्रेमभावना से भगवान को माला दिया । और जिसे स्वयम भगवान ने हर्ष से माला को स्वीकार किया) को स्मरण कर यह प्रतिपादित किया की फूलों की माला ही सर्वश्रेष्ठ कैंकर्य है । और इस प्रकार अपने शेष काल पर्यन्त तक वे भगवान के लिये स्वयम फूलों के बगीचे का निर्माण कर, फूलों के बीजों को बोकर, उसका संरक्षण कर, उत्पन्न फूलों से फूलों की माला बनाकर अत्यन्त प्रेमभावना से श्रीविल्लिपुत्तूर भगवान को अर्पण करते रहे ।

कहते है की अन्य आळ्वारों और आप श्रीमान मे आसमान और जमीन का फर्क है । अन्य आळ्वार अपने इच्छावों की पूर्ती की चाह रखते थे (भगवान की सेवा करना) । परन्तु आप श्रीमान इनके विपरीत थे । आप श्रीमान तो केवल भगवान की इच्छावों की परिपूर्णता की चाह रखते थे (यानि भव सागर मे त्रस्त सभी जीवात्माये भगवाद्-धाम जाकर नित्य कैंकर्य करे चाहे यह उनके चाहना के विपरीत क्यों ना हो) । अन्य आळ्वार सोचते थे की भगवान ही रक्षक है और इस कारण वे सभी संरक्षित है (यानी भगवान का धर्म है उनके शरणागत का संरक्षण करना) और इस प्रकार अपनी चिन्ता दूर करते थे । परन्तु आप श्रीमान तो यह सोचते थे की आप भगवान के संरक्षक है और भगवान की रक्षा, देखभाल इत्यादि करना आपका कर्तव्य है । यही बात श्री पिळ्ळै लोकाचार्य और श्री वरवरमुनि जी ने अती सुन्दरता से बताया है जिसका वर्णन अब आगे है ।

आप श्रीमान की रचना तिरुप्पल्लाण्डु भी अन्य दिव्यप्रबन्धों की तुलना मे पूर्वोक्त कारण से सर्वोत्तम माना जाता है और अत्यधिक रूप से इसीका गुणगान होता है । अन्य दिव्यप्रबन्ध हलांकि वेदान्त, अनेकानेक तत्वविषयों को प्रतिपादित करते है परन्तु इनकी गणना मे आप श्रीमान का तिरुप्पल्लाण्डु केवल भगवान का मंगलाशासन करता है । अन्य प्रबन्ध बहुत बडे है परन्तु आपकी यह रचना बहुट छोटी, सरल और स्पष्ट है । कहते है की आपने बारह पासुरों मे मूल सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है ।

स्वामी पिळ्ळै लोकाचार्य अपने दिव्य ग्रंथ श्रीवचनभूषण मे कहते है – मंगलाशासन सिद्धोपाय निष्ठ भक्त का दैनिक कार्य है (यानि जो केवल भगवान ही उपाय और उपेय है मे आस्था रखता है) । श्रीवैष्णव दिनचर्य इस लिंक_1, लिंक_2 मे उपलब्ध है और इसका विवरण भी बताया जा चुका है जो की श्रीवैष्णव लक्षण के अन्तर्गत आने वाले अनुक्रम मे है ।

मंगलाशासन क्या है ? मंगलाशासन माने किसी के सुख, शान्ति, सम्वृद्धि के लिये प्रार्थना करना । सभी आळ्वार भगवान के हित के बारे मे नित्य सोचा करते थे । श्री पिळ्ळै लोकाचार्य यह दर्शाते है की पेरियाळ्वार का भगवान के प्रति लगाव अन्यों से अधिकाधिक था । यह पूर्व ही आप श्रीमान के अर्चावतारनुभव मे बताया गया है ।

अब हम देखेंगे की श्री वचनभूषण के 255वा सूत्र कैसे आप श्रीमान और यतीराज जी के वैभव को दर्शाता है –

अल्लातवर्गळैप्पोळे केट्किरवर्गळ उडैयवुम्, चोल्लुकिरवरगळ उडैयवुम् तनिमैयैत् तविर्क्कैयन्रिक्के आळुमार एन्गिरवन् उडैय तनिमैयैत्तविर्क्कैकागवायित्तु भाष्यकाररुम् इवरुम् उपदेच्चिप्पतु ।

अन्य आचार्य/आळ्वारों की भान्ति, आप श्रीमान और श्री भाष्यकार ने शास्त्रों के अर्थों को उपदेश देकर सभी जीवात्वामों को सुधारकर और इन सभी को भगवान के नित्य कैंकर्य मे संलग्न किये । और इस प्रकार से आपने श्री भगवान के एकाकिपन को दूर किया क्योंकि भगवान अपने बेटों समान जीवात्मावों का नित्य हित चाहते है और सभी जीव उनका शरण पाकर उनका नित्य कैंकर्य करे । अगर कोई भी जीव इस भवसागर मे त्रस्त दिखाई पडता है तो भगवान एक दम से उदास और अप्रसन्न हो जाते है । जिस प्रकार एक पिता या माता को अपने स्वात्मज पर प्रेम भावना रहती (ज्योकि अगर उनके साथ उस वक्त नही है) है उसी प्रकार की भावना भगवान मे भी है । यहा शिक्षक-शिष्य का एकाकिपन और जीवों का उद्धार वास्तव मे महत्त्वपूर्ण उद्देष्य नहि अपितु भगवान की इच्छा की पूर्ती और जीवों का स्वभाविक रूप से कैंकर्य करना ।

श्री मणवाळमहामुनि पूर्वोक्त सूत्र की व्याख्या मे कहते है की पेरियाळ्वार को श्री एम्पेरुमान के सुशील और कोमल स्वभाव का ज्ञान था और स्पष्ठ रूप से दर्शाते है की ऐसे भगवान कभी भी जीवात्मावों के विरह मे नही रह सकते है । अतः भावनामुग्ध आळ्वार इसी भाव मे पूर्ण रूप से स्थित रहकर उनकी सेवा करना चाहते थे । श्री मणवाळमहामुनि इसके ज़रिये श्री पिळ्ळैलोकाचार्य के कथन “भाष्यकार” शब्द के वैभव को भी दर्शाते है । वे कहते है – श्री भाष्यकार (स्वामि रामानुजाचार्य) ने वेदान्त के सार को अपने श्रीभाष्य मे दर्शाया है यह केवल पूर्ण रूप से भगवान की इच्छा पूरी करने हेतु ही किया गया है अर्थात भगवद्-कैंकर्य है । और यह वेदान्त के मार्गदर्शन से अभिन्न है ।

श्री मणवाळमहामुनि अपने उपदेश रत्नमाला मे श्री पेरियाळ्वार के वैभव को क्रमानुसार पांच पासुरों मे वर्णन करते है जो इस प्रकार है –

पहला – सौलहवें पासुर मे, वह अपने हृदय से कहते है की ज्येष्ठ मास का स्वाति नक्षत्र अत्यन्त पावन और पवित्र है क्योंकि उसी दिन श्री पेरियाळ्वार का आविर्भाव हुआ है जिन्होने तिरुप्पल्लाण्डु का निर्माण किया । और यह पूरे विश्व के लिये शुभदायक कल्याणकारक और मंगलदायक प्रतीत हुआ है ।

दूसरा – सत्रहवें पासुर मे कहते है, हे मेरे हृदय तुम सुनो ! ऐसे महाजनों महाज्ञानीयों का कोई बराबर नही जो श्री पेरियाळ्वार के तिरुनक्षत्र का नाम सुनकर हर्ष से प्रफ़ुल्लित होते है ।

तीसरा – अठारहवें पासुर मे कहते है, भगवान का मंगलाशासन करने की उनकी इच्छा अन्य आळ्वारों की तुलना मे सर्वश्रेष्ठ है । और भगवान के प्रति वात्सल्य भाव की वजह से आप सदैव के लिये पेरियाळ्वार के नाम से जाने गए ।

चौथा – वरवरमुनि इस उन्नीवसें पासुर मे कहते है, अन्य दिव्य पासुरों की तुलना मे सर्वश्रेष्ठ और अग्रगण्य तिरुप्पल्लाण्डु है क्योंकि वह केवल भगवान के मंगलाशासन ही करता है । जिस प्रकार वेदों मे प्रणव शब्द ओम् कार है उसी प्रकार द्राविड वेद की शुरुवात तिरुप्पल्लाण्डु से होति है । हर एक आळ्वार द्वारा विरचित पासुर दिव्य अनोखा और निष्कलंक है ।

पांचवा – बीसवें पासुर मे वे अपने हृदय से कहते है तुम वेद, वेदांगो, और अन्य प्रमाणों मे ढूँधकर बतलावों की क्या तिरुप्पल्लाण्डु से बडकर कोई प्रबन्ध है और क्या पेरियाळ्वार से सर्वश्रेष्ठ और अग्रगण्य अन्य आळ्वारों मे कोई है ? अर्थात् कोई नही । उनके जैसा कोई नही ।

उनकी एक और खासियत है की वे साक्षात परब्रह्म श्री रंगनाथ जी के ससुर थे । अर्थात अपनी दत्तक पुत्री श्री आण्डाळ अम्माजी को उनको समर्पित कर और उन दोनों की विवाह करवाया ।

इस धारणा से अपने मन को एक चित्त करते हुए, उनके वैभवशाली चरित्र को आगे देखे ।

पेरियाळ्वार श्रीविल्लिपुत्तूर मे प्रकट हुए जहाँ कई सारे वेदों के तत्वज्ञ रहते थे । वे ज्येष्ठ मास के स्वाति नक्षत्र मे प्रकट हुए और उनके माता-पिता ने उनका विष्णुचित्त नाम रखा । कहते है की जैसे गरुड (जो वेदात्म से जाने जाते है – यानि जिनका शरीर ही वेद है) सदैव अपने स्वामी श्रीमन्नारायण के दिव्यचरण को पडके हुए रहकर परत्व का प्रतिपादन करते है ठीक उसी प्रकार पेरियाळ्वार ने परत्व का निरूपण दिया (अर्थात सकलगुणसंपन्न अखिल जगत के सृष्टि करता धरता भगवान श्रीमन्नारायण ही परवत्व है और यही वेदों मे प्रतिपादित है) । और इसी कारण उन्हे श्री गरुड का अंशावतार माना जाता है । हलांकि कहा जाता है की हमारे आळ्वार ऐसे जीव है जो भगवान के निर्हेतुक कृपा से चुने गए है | और जिन्होने दिव्य व्यक्तित्व तत्पश्चात प्राप्त किया ।

कहा जाता है की जिसप्रकार भगवान की कृपा से भक्त प्रह्लाद जन्म से ही भगवद्-भक्ति से संपन्न थे उसी प्रकार पेरियाळ्वार भी जन्म से श्री वटपत्रशायि भगवान की असीम कृपा से संपन्न थे ।

शास्त्र कहता है – “ना अकिंञ्चयचित्कुर्वतस्च शेषत्वम्” अर्थात् अगर जीव भगवान के लिये छोटे से छोटा कैंकर्य ना करे तो उस जीव का शेषत्व नष्ट (जीवित) नहि रहता ।

केवल भगवान की इच्छा हेतु वे सोचने लगे की अब उनको भी कुछ कैंकर्य करना चाहिये वरना उनका शेषत्व तो नष्ट हो जायेगा । इसी विचार से उन्होने अनेकानेक पुराणों, उपनिषद इत्यादि मे भगवद्-कैंकर्य के बारे मे दूंढने लगे । वे यह देखते है की सर्वेश्वर भगवान श्रीमन्नारयण मथुरा मे श्री कृष्ण के रूप मे अवतरित हुए है ज्योकि इस प्रकार से वर्णित है –

एष नारायण श्रीमान क्षीरार्णव निकेतनः ।
नाग पर्यंकम् उत्सृज्य ह्यागतो मथुरापुरीम् ॥

अर्थात् – यह श्रीमन्नारायण जिनका निज धाम श्री क्षीर सागर निकेतन है , वही अपने पर्यंक आदि शेष को छोडकर मथुरा पुरी मे श्री कृष्ण के रूप मे अवतरित हुए है ।

नम्माळ्वार कहते है – “मन्णणिन् भारम् णीकुतर्के वडमथुरैप्पिरन्तान्” अर्थात – आदि पुरुष भगवान श्रीमन्नारायण माने श्री कृष्ण भगवान धरती के भोज को कम करने हेतु अवतरित हुए है । महाभारत मे भी कुछ इस प्रकार से कहा गया है – वह नित्य भगवान श्री कृष्ण के रूप मे अवतार लेकर संत साधु योगियों इत्यादियों के समरक्षण, धर्म की स्थापना, और दुष्टों का विनाश हेतु अपने धाम द्वारका मे रहते है । ऐसे भगवान अत्यन्त सुन्दर श्री देवकी के गर्भ से जन्म लिये और उनका पालन पोषण अत्यन्त सुन्दर सुशील श्री यशोदा मय्या ने किया । ऐसे सुन्दर भगवान श्री कृष्ण जो सदैव नित्यसूरियों के भव्य मालावों से सुशोभित है, वे मालाकार (जो कंस के लिये सेवा करता था) के पास जाकर उन्से एक सुन्दर माला भेंट के रूप मे निवेदन करते है । स्वयम् भगवान ने मुझसे मेरी माला का निवेदन किया यह सोचकर मालाकार अत्यन्त प्रसन्नता से उन्हे ताज़ा और अत्योत्तम माला समर्पण करता है । यह वार्ता पुराणों, इतिहासों इत्यादि मे देखर, अचम्भित पेरियाळ्वार यह निर्धारण करते है की – भगवान को अति प्रिय सेवा है – ” माला बानाकर उनको समर्पित करना ” । और इस प्रकार से एक चित्त पेरियाळ्वार ने इस सेवा को आरंभ किया और श्रीविल्लिपुत्तूर के श्री वटपत्रशायि भगवान को यह मालायें समर्पित करने लगे ।

उस समय पाण्ड्य राज्य का राजा श्री वल्लभदेव (जिसने अपने दिव्य विजय मीन चिह्न को मेरु पर्वत पर स्थापित किया) अपने राज्य (दक्षिण मदुरै) का परिपालन अत्यन्त धार्मिकता से कर रहा था । एक रात्रि को राजा ने सोछा राज्य मे मेरा परिपालान किस प्रकार से हो रहा है ये मै अपने आखों से देखू । अतः वेश बदलकर वे अपने राज्य की नगरी मे प्रवेश किये । इसी दौरान राजा गौर करते है की एक ब्राह्मण किसी अन्य के घर के सामने बैठा हुआ था । उसके पास जाकर, राजा ने उस ब्राह्मण से पूछा – अरे ब्राह्मण ! अपना परिचय दो । ब्राह्मण तुरन्त बोला – मै हाल ही मै गंगा के किनारे गंगा स्नान करके लौटा हूँ । यह सुनकर प्रसन्न राजा ने ब्राह्मण से पूछा – अरे ब्राह्माण ! क्या तुम्हे कोई श्लोक पता है ? अगर पता है तो कृपया बतावो । तुरन्त ब्राह्मण ने कहा –

वर्षार्थमस्तौ प्रयतेत मासान् निचार्थामरत्तम् द्विशम् यतेथ ।
वार्द्दग्यहेतोर्वायास नवेण परत्र हेतोरिह जन्मनास्च ।

अर्थात् – प्रत्येक मनुष्य बारिश के चार महीने निश्चिंत रहने के लिये आठ महीने निरन्तर काम करते है, रात्री मे खुश होने के लिये दिन भर काम करते है, बुढापे मे आराम दायक ज़िन्दगी के लिए जवानि मे घोर परिश्रम करते है, अतः इस प्रकार हम सभी अगले अच्छे जन्म के लिये इस जन्म मे निरन्तर परिश्रम करते है ।

यह सुनकर राजा अपने भविष्य जन्म के बारें मे सोचने लगे । अरे ! इस जन्म मे मै तो राजा हूँ, मुझे सकल सम्पन्नों का सौभाग्य मिला है, कैसे आनन्ददायक सुख साधन है क्या ये सभी अगले जन्म मे भी मुझे प्राप्त होंगे ? अब मै क्या करू । मै अगले जन्म की तैय्यरी कैसे करू और इसका साधन क्या होगा ? किसके शरणागत होना चाहिये ? कौन परत्व को दर्शाता है ? और परत्व को किस माध्यम से प्राप्त कर सकेंगे ? इस प्रकार से विचलित राजा ने अपने राज पण्डित श्री शेल्वनम्बि से इसके बारे मे पूछा । श्री शेल्वनम्बि (जो भगवान श्रीमन्नारायण के प्रिय भक्त है) ने कहा – आप तुरन्त इस राज्य के सभी पण्डितों को बुलाये और वेदान्त दर्शन से इसका समाधान उनके माध्यम से करे । यह सुनकर प्रसन्न राजा ने (आपस्तम्भ सूत्र – “धर्मज्ञानसमयः प्रमाणम् वेदास्च अर्थात् – वेदज्ञात के कार्य ही प्राथमिक प्रमाण है और वेद द्वितीय प्रमाण है ” के अनुसार) तुरन्त पण्डितों की गोष्टि का आयोजन किया और कहे की जो कोई भी परत्व को दर्शायेगा उसे बहुमूल्य धनसम्पत्ति से भरा हुआ थैलि इनाम के रूप मे प्राप्त करेगा । इस थैलि को उन्होने अपने राज दरबार के छत से टांग दिया । इस प्रकार राजा का आमन्त्रण पाकार सभी पण्डित उनके राज दरबार मे तत्वनिरूपण के लिये उपस्थित हुए ।

वटपत्रशायि भगवान जीवों के उत्थापन के लिये, और अपना परत्व निरूपण पेरियाळ्वार के द्वारा दर्शाने के लिये, भगवान स्वयम् उनके स्वप्न मे आकर कहे – तुम उस सभा मे जाओ और मेरा परत्वनिरूपण कर अपने ईनाम को जीतके लाओ । बाकि मै सब संभालूंगा । आळ्वार यह सुनकर विनम्र होकर भगवान से कहते है – परत्व का निरूपण वेद वेदान्तों से करना है । मै तो मामूली सा ब्राह्मण मालाकार हूँ । मै भला यह कार्य कैसे सिध्द कर सकता हूँ ? भगवान आग्रह करते हुए कहते है – आप भला इन सब की चिन्ता ना करे । मै ये सब संभालूंगा । क्योंकि मै वेदों को प्रकट करता हूँ और उससे संबंधित अर्थ को भी यथा तथा दर्शाता हूँ । अतः आप निश्चिंत रहिये । भगवान का आश्वासन पाकर अगले ही दिन, ब्रह्म मुहुर्त मे उठकर (शास्त्र कहता है – ब्राह्मे मुहुर्ते च उत्थाय) अपना नित्य नैमित्य कार्य संपूर्ण कर, मदुरै की सभा के लिये रवाना हुए ।

सभा मे प्रवेश करते ही राजा और ब्राह्मनोत्तम शेल्वनम्बि ने उनको प्रणाम करते हुए स्वागत किया और उन्हे बैठने के लिये एक सिंहासन भी दिया । सभा मे उपस्थित स्थानीय पण्डितों ने राजा को बताया – आप किन्हे बुलाकार ले आए । ये तो एक तुच्छ मालाकर है । इन्हे वेद वेदान्त का परिज्ञान नही है । परन्तु राजा और शेल्वनम्बि भलिभान्ति इनके कैंकर्य और वटपत्रशायि भगवान के प्रति उनके लगाव को जानते थे । इसी लिये उन्होने उनको (पेरियाळ्वार को) परत्व निरूपण देने का मौका दिया । तदन्तर पेरियाळ्वार, भगवान की निर्हेतुक कृपा से प्राप्त दिव्य दृष्टि के आभास से वेद वेदान्त के सारतम ज्ञान को प्रस्तुत किये । जिस प्रकार श्री वल्मीकी भगवान ॠषि ने ब्रह्म के कृपाकटाक्ष से महत्त्वपूर्ण तत्वों को समझा, जैसे प्रह्लादाळ्वान भगवान के पांञ्चजन्य शंख के स्पर्श से सर्वज्ञ हुए, ठीक उसी प्रकार भगवान की निर्हेतुक कृपा से आप समझे की शास्त्रों का सार भगवान श्रीमन् नारायण ही है । इसका प्रमाण तार्किक अनुक्रम मे आगे देखेंगे ।

समस्त शब्दः मूलत्वादक्षरयो स्वभावतः समस्त वाच्य मूलत्वात् ब्रह्मणोपि स्वभावतः वाच्यवाचक संभन्धस्तयोरर्थात् प्रदीप्यते ॥

सारे अक्षर ‘अ’ अक्षर के माध्यम से ही उत्पन्न हुए है, सारे अक्षरों के अर्थ ब्रह्म से ही उत्पन्न है । अतः ‘अ’ शब्द और ब्रह्म भिन्न नही है और उनका संबन्ध स्वभाविक है ।

गीताचार्य श्री कृष्ण भगवान कहते है – “अक्षराणाम् अकारोऽस्मि” अर्थात् मै ही सारे अक्षरों के मूल ‘अ’ अक्षर हूँ ।

कहा गया है – “अकारो विष्णुवाचकम्” अर्थात् ‘अ’ अक्षर स्वयम् विष्णु यानि श्रीमन्नारायण ही है जो परमपुरुष और परमात्मा है ।

तैत्तिरिय उपनिषद् ऐसे परम पुरुष परमात्मा श्रीमन्नारायण के विशिष्ठ गुणों को इस प्रकार दर्शाता है – यता वा इमाणि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्ति अभिसम्विचन्ति, तत् विज्ञस्व ब्रह्मेति । अर्थात् – (वह) जिससे पूरा संसार और जीव की व्युत्पत्ति होती है, जिसपर पूरा विश्व निर्भर है, प्रलय् मे उस मे विलीन हो जाता है, जहा जीव मोक्ष को प्राप्त करते है, वह निश्चिंत रूप से ब्रह्म है । ऐसे परम पुरुष भगवान के तीन गुणों का प्रतिपादन हुआ है जो इस प्रकार है –

पहला – “जगत कारणत्व” – इस पूरे जगत का कारण है (वह)
दूसरा – “मुमुक्षु उपायस्त्व” – मोक्ष की चाहना रखने वालों के पूज्य देवता (वह)
तीसरा – “मोक्ष प्रदत्व” – (जो) मोक्ष दे सकता है (वह) ।

यह सरे लक्ष्ण या गुण श्रीमन्नारायण मे पूर्ण रूप मे देख सक्ते है जैसे विष्णु पुराण मे है –

विष्णोस्सकाचादुद्भूतम् जगत् तत्रैव च स्थितम् ।
स्थिति सम्यमकरर्थ्तासौ जगतोऽस्य जगच्छ सः ॥

विष्णु से ही जगत की व्युत्पत्ति होती है, प्रलय काल मे फिर से उन्मे ही लीन होता है, वही उसको संभालते है और वही विनाश भी करते है और उन्ही का शरीर ही यह पूरा जगत है ।

जैसे वराह पुराण मे ,

नारायणनाथपरो देवो ना भूतो ना भविष्यति ।
एतत् रहस्यं वेदानां पुराणां च सम्मतम् ॥

अर्थात् – श्रीमन्नारायण के जैसा परमपुरुष ना भूतकाल मे था, ना भविष्य मे होगा । यह वेदों का रहस्य है और पुराणों की भी यही संमति है ।

जैसे नारदीय पूराण मे,

सत्यम् सत्यम् पुणस्सत्यम् उद्धृत्य भुजमुञ्च्यते ।
वेदाः शास्त्रात् परम् नास्ति न दैवम् केशवात् परम् ॥

अर्थात् – मै पुनः पुनः अपनी भुजावों को उठाकर ज़ोर से बता रहा हूँ, वेद और शास्त्रों मे केशव से बडकर कोई देव परम नही है ।

अतः कुछ इस प्रकार वेद, पुराणों और इतिहासों से पेरियाळ्वार ने भगवान श्रीमन्नारायण के परत्व का प्रतिपादन किया । तदन्तर, लटकी इनाम थैलि अपने आप नीचे गिर गई और तुरन्त पेरियाळ्वार उसे उठा लेते है । यह रमणीय दृष्य देखकर अचंभित स्थानीय पण्डितों के साथ राजा और शेल्वनम्बि इत्यादि सभी अत्यन्त हर्ष से उनको दण्डवत प्रणाम करते है । उपस्थित सभी कहते है – वेदों का सारतम सार उन्होने अत्यन्त सरल और सुगमता से प्रतिपादन किया है । और अत्यन्त प्रेमभाव मे, सभी उनके सत्कार मे उन्हे एक सुसज्जित हाथि पर बैठाकर, उनके चारों ओर अनेक पण्डित छत्रि और चामर पकडे हुए, धण्का घोषणा कर रहे थे – “ऐसे महनीय विश्वसनीय महात्मा जिन्होने वेदों का सार सारतम् तत्व का प्रतिबोधन किया उनका स्वागत किया जा रहा है और वही पधार रहे है” । श्री वल्लभ राजा उनका मान सत्कार कर उन्हे पट्टर्पिरान से संभोदित करते है अर्थात जिन्होने अनेकानेक भट्टरों को महान उपकार किया है । राजा भी इस सवारि मे हिस्सा लेकर अत्यन्त हर्षित होते है । और सभी जगह मे इनके आगमन का उत्सव मानाने की तय्यारि ज़ारी रही ।

जिस प्रकार एक माता/पिता अपने सन्तानों की अभिवृद्धि देखर हर्षित होते है, उसी प्रकार परमपदनाथ भगवान श्रीमन्नारायण भी हर्षित हुए । और तदन्तर स्वयम् भगवान चक्र गदा इत्यादि से सुशोभित श्री गरुड जी पर अपनी धर्मपत्नी श्री लक्ष्मी अम्मा जी के समेत विराजमान होकर उनकी सवारी के बींचों बींच प्रकट हुए । इनका सम्मान करने अन्य देवि – देवता अपने अपने परीवार सहित सभी भी प्रकट हुए । चक्र, गदा इत्यादि से सुशोभित भगवान को इस भौतिक जगत मे देखकर अपने सवारी की चिंता ना करते हुए केवल भगवान की खुशहालि हेतु हाथि पर लटके हुए घण्ठा को निकालकर उन्होने अहंकार रहित प्रेम और वात्सल्य भाव से घण्ठा बजाते हुए उनका मंगलाशाशन किया । यही दिव्यानुभूति ही तिरुपल्लाण्डु से जानी गई है ।

अनुवादक टिप्पणि – भगवान सर्वज्ञ, सर्वशक्त, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ इत्यादि है । परन्तु यहाँ आळ्वार वात्सल्य भाव की नदिया मे बह गए । आळ्वार अपने शेषत्व को भूलकर, शेषी मानकर भगवान के बारें मे सोचने लगे । वे सोचने लगे अरे – ऐसे परमपुरुष जो निर्मल स्वभाव के है, जिनका शरीर पञ्च उपनिषद् तत्वों (आध्यात्मिक) का है, जो ब्रह्म शिव इत्यादि देवि देवताओ के लिये पहुचने योग्य नहि, जो नित्य सूरी का सहवास करते है, वही अभी अपने नित्य धाम को छोडकर यहा मेरे समक्ष उपस्थित हुए है । शायद कृदुष्टों से इनको कोई हानी ना पहुचे इसिलिये आळ्वार सबों (ऐश्वर्यार्थि – धन की इच्छा करने वाले, कैवल्यार्थि – जो आत्मानुभव की चाहना रखता हो, भगवद् शरणार्थि – भगवान के शरण रहकर उन्की नित्य सेवा करना) को अमन्त्रित कर उन्स सभी से निवेदन करते है आप सभी भी भगवान का मंगलाशाशन करे और तदन्तर तुरन्त उनका मंगलाशाशन करते है ।

इसके पश्चात भगवान अन्तर्धान होकर अपने निज धम को लौट जाते है । तदन्तर, पेरियाळ्वार राजा को आशीर्वाद देते है और राजा उनका मान सम्मान अत्यन्त वैभव से करता है । आळ्वार अपने निज स्थान श्री विल्लिपुत्तूर पहुचकर ईनाम का सारा धन अपने प्रिय भगवान को समर्पित कर देते है ।

जैसे मनु स्मृति मे,

त्रयैवाधन राजन् भार्य दासस्तथा सुतः ।
यत्ते समदिगच्छन्ति यस्यैते तस्य तद्धनम् ॥

अर्थात् – पत्नी, पुत्र, दास इन सभी के पास कुछ भी नही हो, उनकी कमाई उनके निज संबंधि उत्तारिधिकारि को जायेंगे (पती, मालिक, पिता) ।

उपरोक्त तथ्य के अनुसार, श्री पेरियाळ्वार ने अपने स्वामि वटपत्रशायि को आर्जित धन सौंप दिया । अपना कर्तव्य निभारकर अपने नित्य कैंकर्य – फूलों की माला बनाना और उसी को भगवान को समर्पण फिर से करने लगे । अतः इस प्राकार मालाकार की सेवा का अत्यन्त लाभ उठाकार स्वयम् अती प्रसन्न उस मालाकार और भगवान श्री कृष्ण का गुणगान करने लगे । श्री कृष्ण भगवान के दिव्य चरित्र से अत्यन्त लगाव होने के कारण, याशोदा मय्या का भाव रूप धारण कर, भगवान के सौशील्य और सौलभ्य गुणो का रसास्वादन करते हुए वात्सल्यभाव के प्रवाह मे उन्होने दिव्य प्रबन्ध की रचना की जिसे हम सभी पेरियाळ्वार तिरुमोळि के नाम से जानते है । सदैव श्रियपति पर चिन्तन करते हुए, उन्होने हर एक शिष्य और उन पर आश्रित श्रेयोभिलाषियों और अन्यों सहित सबों को आशीर्वाद दिया ।

यह कथा अभी पूर्ण नही हुई है अपितु इसका शेष हम श्री गोदाअम्माजी के वैभव मे देखेंगे ।

श्री पेरियाळ्वार जी का तनियन् –

गुरुमुखमनधीत्य प्राहवेदानशेषान् नरपति परिक्लुप्तम् शुल्कमादातु कामः ।
स्वसुरममर वन्द्यम् रन्गनाथस्य साक्शात् द्विज कुल तिलकम् विष्णुचित्तम् नमामि ॥

पेरियाळ्वार का अर्चावातार अनुभव इस लिंक पर उपलब्ध है ।

अडियेन सेतलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दास

Source: http://guruparamparai.wordpress.com/2013/01/20/periyazhwar/

अडियेन वैजयन्त्याण्डाळ रामानुज दासि