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तिरुवेंकट रामानुज एम्बार जीयर

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

1.untitled

तिरुनक्षत्र: श्रावण मास, रोहिणी

अवतार स्थलमधुरमंगलम

आचार्य: कोइल कन्दाडै रंगाचार्य स्वामी (चण्दमारुतं डोडाचार्य तिरुवंश)

शिष्य: अनेक शिष्य

स्थान जहाँ उन्होंने परमपद प्राप्त किया: भूतपुरी

तिरुवेंकट रामानुज एम्बार जीयर का जन्म गौरवशाली  श्रीवत्स वंश में, मधुरमंगलम क्षेत्र में 1805 क्रिस्चन इरा, आंग्ल  वर्ष में हुआ था।  में, भगवान श्रीकृष्ण और पेरीयावाच्चन पिल्लै के नक्षत्र में जन्म जन्मे , इस बालक का नाम , इनके पिता-माता राघवाचार्य और जानकी अम्मा ने कृष्णन रखा।

बालक कृष्णन को बाल्यकाल में ही माता पिता ने,  वैदिक संस्कारो  से अभिसिंचित किये । यद्यपि बहुत ही अल्प आयु में बालक कृष्णन को, भगवान के प्रति अत्यंत प्रगाढ़ प्रेम था। बचपन से ही वे सदा भगवान के दिव्य विग्रहों के साथ खेला करते थे और भगवत विषय के प्रति इनमे जिज्ञासा और तल्लीनता थी । कृष्णन उर्फ़ कृष्णमाचार्य  के विवाह योग्य उम्र पा लेने के बाद , पिताश्री राघवाचार्य , कृष्णमाचार्य के लिए योग्य कन्या की तलाश प्रारंभ करते हैं।

इसी दरम्यान एक बार पिताश्री राघवाचार्य, कृष्णमाचार्य को लेकर , एक यात्रा पर निकलते हैं । मार्ग में कृष्णमाचार्य  एक दंपत्ति को अपनी संतान के साथ यात्रा करते हुए दीखते हैं। कृष्णमाचार्य का ध्यान इस दम्पति की तरफ जाता है , और अनुभव करते है की , पति बहुत सारा  सामान,  और अपनी संतान को संभाले हुए चल रहा है,  साथ ही कभी कभी अपनी पत्नी के साथ ऊँची आवाज़ में झगड भी रहा है, कृष्णमाचार्य यह भी महसूस करते है की , वह व्यक्ति अपनी पत्नी के प्रति अत्यधिक प्रेम और लगाव की वजह से , झगडे के बावजूद भी उसके प्रति समर्पित भाव से उसके साथ चल रहा है ।

कृष्णमाचार्य वैवाहिक जीवन की इस  कटुता को महसूस कर स्तब्ध हो,  उसी क्षण निर्णय लेते है की वह कभी विवाह नहीं करेंगे और अपना यह निर्णय अपने पिता से भी कह देते हैं ।

कुछ समय बाद , कृष्णमाचार्य अपने आचार्य कोयिल कन्दाडै रंगाचार्य, को अपने पैतृक स्थान (कप्पियामुर) पधारने पर उनसे  आचार्य संबंध स्थापित कर , समाश्रयण लेते है। कोयिल कन्दाडै रंगाचार्य , कृष्णमाचार्य को पञ्च संस्कार संस्कार दीक्षा प्रदान कर , सत संप्रदाय के सभी महत्वपूर्ण सिद्धांतो का ज्ञान प्रदान करते हैं।

कृष्णमाचार्य अपने आचार्य के साथ कई  यात्राओं  में उनके साथ उनकी सेवा में सलंग्न रहते है ।

एक समय की बात है जब कृष्णमाचार्य  तिरुवेंकटाचल में थे, एम्बार ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर मधुरमंगलं दिव्यदेश आने के लिए आमंत्रित करते है, साथ ही निर्देश देते है की आते समय , गर्म रजाई साथ लेकर आये, कहा की मधुरमंगलं में उन्हें बहुत शीतलता का आभास हो रहा है। कृष्णमाचार्य, भगवान वेंकटेश्वर के समक्ष पहुंचकर , उनसे मधुरमंगलं प्रस्थान करने की अनुमति लेते हैं,   भगवान श्री वेंकटेश उन्हें अपनी रजाई प्रदान करते हुए मधुरमंगलम यात्रा की विनती स्वीकार लेते है . कृष्णमाचार्य मधुरमंगलं पहुंचकर वेंकटचलपति द्वारा प्रदत्त रजाई एम्बार को समर्पित करते हैं। एम्बार की कृपा से, कृष्णमाचार्य में संन्यास आश्रम अंगीकार करने की प्रबल इच्छा जाग्रत होती है  । कृष्णमाचार्य वेंकटाचल लौटकर , वकुलाभरण जीयर (पेरिय जीयर) से,  सन्यास  दीक्षा प्रदान करने का आग्रह करते हैं।

वकुलाभरण जीयर सोचते हैं कि कृष्णमाचार्य अभी युवा हैं और उन्हें कुछ और समय प्रतीक्षा करनी चाहिए। इस पर कृष्णमाचार्य पेरिया जीयर से कहते हैं कि एम्बार की कृपा से उन्हें पुर्णतः विरक्ती की प्राप्ति हो गयी है और अब सन्यास  दीक्षा स्वीकार किये बिना उनका रहना संभव नहीं है। वकुलाभरण जीयर कहते हैं कि,  यदि पेरुमाल (वेंकटचलपति) इसकी स्वीकृति देते हैं तो वे उन्हें सन्यास  दीक्षा प्रदान करेंगे।

इसके पश्चात जीयर तिरुमाला के लिए प्रस्थान करते हैं , यात्रा करते समय जीयर को राह में एक त्रिदंड पर नज़र पड़ती हैं,  त्रिदण्ड अत्यंत कुशलता से बनाया हुआ था, जीयर उसे अपने साथ ले लेते हैं। राह में जब जीयर आराम के लिए रुकते हैं, तब  भगवान श्री वेंकटेशजी उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर आदेश देते हैं कि,  कृष्णमाचार्य को सन्यास दीक्षा से दीक्षित कर उन्हें यह त्रिदण्ड प्रदान करे।

भगवान का आदेश पाकर पेरिय जीयर प्रसन्नता पूर्वक कृष्णमचार्य को आमंत्रित कर , सन्यास दीक्षा  प्रदान करते हैं।।

2.untitled

तिरुमलै जीयर का चित्रपट, साथ में एम्बार जीयर –तिरुमाला जीयर मठ में देखी गयी

 वकुलाभरण जीयर, कृष्णमाचार्यजी का भगवान श्री वेंकटेश्वरजी के प्रति अतीव प्रेम और समर्पण भाव को जानते थे। इसलिए जीयर उन्हें तिरुवेंकट रामानुज जीयर नाम प्रदान करते है , तद्पश्चात  कृष्णमाचार्यजी  मधुरमंगलं प्रस्थान कर , वहां कुछ समय एम्बार के कैंकर्य में संलग्न होकर , मधुरमंगलं एम्बार जीयर नाम से गौरव प्राप्त करते है ।

तिरुवेंकट रामानुज जीयर, ने अनेक दिव्य देशों की यात्रा की  , अंत में भगवत श्रीरामानुज स्वामीजी की सेवा के उद्देश्य से , उनके अवतार स्थल श्री भूतपुरी पधारे। तिरुवेंकट रामानुज जीयर के शिष्यों ने मंदिर के दक्षिण दिशा में, तिरुवेंकट रामानुज जीयर के लिए एक मठ का निर्माण किये , तिरुवेंकट रामानुज जीयर इसी मठ में रहकर भगवत श्रीरामानुज स्वामीजी का कैंकर्य करने लगे।

3.untitled

आदि केशव पेरुमालभाष्यकार मंदिर, भूतपुरी

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एम्बार जीयर मठ, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कोइल स्ट्रीट, भूतपुरी

भूतपुरी में उनके समय में अनेक श्रीवैष्णवों ने उनके सानिध्य में हमारे सत संप्रदाय के विशेष सिद्धांतों का अध्ययन किया। हमारे पूर्वाचार्यों की श्रीसूक्तियों में वर्णित सिद्धांतों को उन्होंने अत्यंत कुशलता से समझाया और उस समय के बहुत से विद्वानों के ज्ञान को पोषित किया।

वे इस लीला विभूति में अल्प समय (77 वर्ष) के लिए रहे और विष्णु वर्ष के पौष्य मास कृष्ण पक्ष त्रयोदशी तिथि के दिन परमपद प्रस्थान किया।

उनकी सभी रचनाओं में से मुख्य है श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा पिल्लै लोकाचार्य के श्रीवचनभूषण पर रचित व्याख्यान के लिए अरुमपदम। उन्होंने न केवल हमारे संप्रदाय के उत्कृष्ट ग्रंथ (श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र) पर व्याख्यान की रचना की अपितु श्रीवचन भूषण में दर्शाए गए भगवत/ भागवत कैंकर्य को सम्पूर्ण निष्ठा के साथ अपने जीवन में अनुसरण किया। हमारे सत संप्रदाय के सिद्धांतों को स्थापित करने के लिए उन्होंने अन्य कई ग्रंथों की रचना की।

विष्णु पुराण, तत्व त्रय, यतीन्द्रं मत दीपिका आदि ग्रंथों के आधार पर उन्होंने अत्यंत सूक्ष्मता से ब्रह्माण्ड की संरचना का वर्णन किया। इस संरचना को चित्रों द्वारा दर्शाया गया है और कुछ समय पहले ही श्री रवि नामक श्रीवैष्णव के प्रयत्नों से उसका पुनः मुद्रण किया गया है।

5.untitled

तिरुवेंकट रामानुज एम्बार जियर स्वामी का चित्रपट

6.brahmandam

ब्रह्मांड– ब्रह्मा के ब्रह्माण की कल्पना

रचनाएँ: उनकी रचनाओं की सूचि इस प्रकार है:

  1. श्रीवचन भूषण के लिए अरुमपदम
  2. सिद्धोपाय सुदरिसनम
  3. सददरिसन सुदरिसनम
  4. दुदरिसन करिसनम
  5. विप्रतीपत्ति निरसनम
  6. श्री शठकोप स्वामीजी की श्रीसुक्ति “चेत्तत्तिन”…..पर व्याख्यान
  7. शरणागतिक्कु अधिकारी विशेषणत्व समर्थतनम्
  8. ज्योतिष पुरानंगलुक्कु ऐक कंत्य समर्थतनम्
  9. दुरुपदेसाधिक्कारम
  10. शरण शब्दार्थ विचारं
  11. श्रुतप्रकाशिका विवरणं
  12. मुक्तिपदशक्ति वादं
  13. ब्रह्मपदशक्ति वादं
  14. भूकोळ निर्णयं
  15. त्यागशब्दार्थ टिपण्णी
  16. गीतार्थ टिपण्णी
  17. कैवल्य सतदूषणी
  18. श्रीरामानुज अष्टपति
  19. सिद्धांत तूलिकै
  20. सिद्धोपाय मंगल दीपिका
  21. धर्मग्या प्रामाण्य प्रकाचिका
  22. सिद्धांत परिभाषा
  23. श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य विग्रह के ध्यान से श्रृंगारित – तिरुमंजन कट्टियम् आदि

इस तरह हमने अप्पन तिरुवेंकट रामानुज एम्बार जीयर के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे एक महान विद्वान् थे और उन्होंने हमारे सत संप्रदाय के हितार्थ बहुत से साहित्यिक रचनाओं का योगदान किया। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों का भी भगवत विषय में उनके अंश मात्र ज्ञान/भक्ति की प्राप्ति हो।

अप्पन तिरुवेंकट रामानुज एम्बार जीयर की तनियन:

श्रीवादुल रमाप्रवाल रुचिर सरकसैन्य नाथाम्चज
श्रीकुरविन्द्रम महार्य लभ्ध निजसत सत्तम चरुथा भिष्ठं
श्रीरामानुज मुख्य देसिकलसत कैंकर्य समस्तापकम
श्रीमतवेंकटलक्ष्मणार्य यमिनाम तमसतगुणम भावये

-अदियेन् भगवति रामानुजदासी

आधार : https://guruparamparai.wordpress.com/2013/08/28/sriperumbuthur-first-embar-jiyar/

स्त्रोत्र : तिरुवेंकट रामानुज एम्बार जीयर प्रभावं नामक एक प्राचीन ग्रंथ- इस पूर्ण ग्रंथ को यहाँ देखा जा सकता है – https://drive.google.com/?tab=go&authuser=0#folders/0ByVemcKfGLucZnZBMjlIa1JHdFk

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अप्पाच्चियारण्णा

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

अप्पाच्चियारण्णा – श्रीदाशरथी स्वामीजी तिरुमंगलै, सिंगप्पेरुमाल कोयिलअप्पाच्चियारण्णा – श्रीदाशरथी स्वामीजी तिरुमाळिगै, सिंगप्पेरुमाल कोयिल

तिरुनक्षत्र: श्रवण, हस्त नक्षत्र

अवतार स्थल:  श्रीरंगम

आचार्य: पोन्नडिक्काल् जीयर

शिष्य: अण्णाविलप्पन (उनके पुत्र), आदि

श्रीरंगम में जन्मे, उनके पिता श्री सिररण्णर द्वारा उनका नाम वरदराजन रखा गया था। उनका जन्म श्री श्रीदाशरथी स्वामीजी के प्रसिद्ध वादुल वंश में हुआ और वे आण्डान वंश के नव वंशज हुए। वे आय्चियार के पुत्र थे, जो तिरुमंजन अप्पा की पुत्री थी। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी , जो उन्हें अपना प्रिय मानते थे, के द्वारा उनको अप्पाच्चियारण्णा नाम प्रधान हुआ और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उन्हें बड़े प्यार से  “नम् अप्पाच्चियारण्णावो” (क्या यह हमारे अप्पाच्चियारण्णा है?) ऐसा कहकर उनका अभिवादन करते हैं। वे पोन्नडिक्काल् जीयर के भी प्रिय शिष्य थे और वे पोन्नडिक्काल् जीयर के चरण कमल के रूप में जाने जाते हैं (ठीक वैसे ही जैसे पोन्नडिक्काल् जीयर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरण कमलों के रूप में जाने जाते हैं)।

तिरुमंजन अप्पा, श्रीरंगम पेरिय कोयिल में एक स्वार्थहीन कैंकर्यपारर थे और उनकी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति अत्यंत प्रीति थी। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के वैभव को जानकर, वे नित्य प्रतिदिन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अनुसरण करते थे| जब भी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी स्नान के लिए जाया करते थे, वे वहां स्नान किया करते थे जहाँ से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के स्नान करने का जल बह कर आता था और वह पवित्र जल जो श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा स्नान के लिए प्रयोग किया था उसके पवित्र संबंध से शुद्ध ज्ञान को प्राप्त किया। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का पूर्ण आश्रय लिया और पुर्णतः श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का कैंकर्य प्रारंभ किया।

एक बार जब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी स्नान के लिए जा रहे थे तभी बरसात प्रारंभ हो गयी। तो उन्होंने एक श्रीवैष्णव के घर के बरामदे में कुछ देर विश्राम किया। उस घर में रहने वाली एक महिला जीयर को देखते ही घर से बाहर आई और उनके बैठने के लिए आसन की व्यवस्था की। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की भीगे हुई पादुकायें ली जिनमें से पानी झर रहा था और उन्हें अपने मस्तक पर धारण की। उन्होंने फिर उसे पोंछकर, अत्यंत श्रद्धा से उन्हें अपने मस्तक पर धारण किया। उन पादुकाओं के संबंध मात्र से उन पर कृपा हुई और उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अपने आचार्य रूप में स्वीकार करने का निश्चय किया। जब जीयर ने उनसे उनका परिचय पूछा तब उन्होंने बताया कि उनका नाम आच्चि है और वे तिरुमंजन अप्पा की पुत्री है, तिरुमंजन अप्पा से उनके संबंध को सुनकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए। वे बताती है कि उनक विवाह कन्दाडै सिर्रण्णार (श्रीदाशरथि स्वामीजी के वंशज) से हुआ है। जब बरसात बंद हुई, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कावेरी के लिए प्रस्थान किया।

कुछ समय पश्चाद, उन्होंने अपनी अभिलाषा अपने पिताश्री को बताई और उनके पिता श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा उनके पञ्च संस्कार विधि की व्यवस्था एक गोपनीय विधान में करते हैं (क्यूंकि वे एक आचार्य पुरुष परिवार से संबंधित थी, इसीलिए सार्वजनिक रूप से ऐसा करने से भयभीत थी)। हालाँकि उनके वर्त्तमान संबंध को देखते हुए प्रथमतः श्रीवरवरमुनि स्वामीजी संकोच करते हैं, परंतु उनके अत्यधिक श्रद्धा को देखते हुए, वे उनकी पञ्च संस्कार विधि पूर्ण करते हैं।

अंततः, कन्दाडै परिवार के बहुत से आचार्यों ने भगवान की दिव्य अनुकम्पा के माध्यम से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की शरण ली। कोयिल कन्दाडै अण्णन्, जो प्रमुख आचार्य हैं, वह एक दिव्य स्वपन के माध्यम से, पोन्नडिक्काल् जीयर के मार्गदर्शन से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरण कमलों में शरण लेते हैं। वे कन्दाडै तिरुवंश के संभवतः सभी आचार्य पुरुषों को भी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की शरण कराते हैं।

कोयिल अण्णन् और अन्य को पञ्च संस्कार प्रदान करने के पश्चाद, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, पोन्नडिक्काल् जीयर के प्रति अपनी सर्वाधिक प्रीति को प्रदर्शित करते हैं। वे सब से कहते हैं “पोन्नडिक्काल् जीयर मेरे जीवन श्वांस के समान है और मेरे हितैषी है। जो भी मेरा वैभव है, उन्हें भी वही प्राप्त होना चाहिए”। जिसप्रकार श्रीदाशरथि स्वामीजी के वंशजों के साथ मेरा संबंध (आचार्य के समान) है, उसी प्रकार पोन्नडिक्काल् जीयर के सानिध्य में भी उनके परिवार से सम्बंधित कुछ शिष्य होना चाहिए” अण्णन, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी के ह्रदय को समझकर कहते हैं “तब आप मुझे पोन्नडिक्काल् जीयर के शिष्य होने का आदेश प्रदान किए होते !” और श्रीवरवरमुनी स्वामीजी यह कहते हुए अण्णन के प्रति अपना विशेष अनुराग दर्शाते हैं “जो मेरे निमित्त है, उनका त्याग मैं कैसे कर सकता हूँ (स्वयं पेरिय पेरुमाल के दिव्य आदेश के अनुसार)?” तब कोयिल अण्णन् अपने सभी संबंधियों की ओर देखते हैं और तभी अप्पाच्चियारण्णा खड़े होकर विनम्रता से कहते हैं “हे हमारे स्वामी वानमामलै रामानुज जीयर, कृपया मुझे अपनी शरण में लीजिये”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उनसे बहुत प्रसन्न होते हैं और उन्हें “नम अप्पाचियारण्णावो?” (क्या यह हमारे अप्पाचियारण्णा है), ऐसा कहकर उनका अभिवादन करते हैं। श्रीवरवरमुनी स्वामीजी फिर पोन्नडिक्काल् जीयर को अपने सिन्हासन पर बैठाते हैं और उनके हाथों में शंख और चक्र प्रदान करते हुए उनसे अप्पाचियारण्णा की पञ्च संस्कार विधि संपन्न करने के लिए कहते हैं। पोन्नडिक्काल् जीयर पहले विनम्रता से मना करते हैं, परंतु श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के आग्रह करने पर कि ऐसा करने से उन्हें प्रसन्नता होगी, पोन्नडिक्काल् जीयर उसे स्वीकार करते हैं।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी (श्रीरंगम) - पोन्नडिक्काल जीयर (वानमामलै)- अप्पाच्चियारण्णा

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी (श्रीरंगम)   – पोन्नडिक्काल जीयर (वानमामलै)   – अप्पाच्चियारण्णा

इसके पश्चाद अप्पाच्चियारण्णा श्रीरंगम में निरंतर पोन्नडिक्काल् जीयर और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की सेवा में संलग्न हुए।

एक समय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी वेंकटाचल की यात्रा पर सभी शिष्य के साथ प्रस्थान करते हैं। वे प्रथमतय कांचीपुरम पहुँचते हैं और वहां देव पेरुमाल भगवान का मंगलाशासन करते हैं। उस समय जीयर और उनके सहयोगी वैशाख महोत्सव पर देव पेरुमाल की आराधना करते हैं और गरुड़ वाहन में विराजे भगवान का मंगलाशासन करते हैं।

गरुड़ वाहन पर देव पेरुमाल- श्रीवरवरमुनि स्वामीजी

गरुड़ वाहन पर देव पेरुमाल- श्रीवरवरमुनि स्वामीजी

कांचीपुरम के श्रीवैष्णव श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के समक्ष पहुंचकर उनकी बहुत प्रशंसा करते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उन्हें श्रीवैष्णव आचरण और सिद्धांतों के महत्त्व का वर्णन करते हैं और उन्हें दिव्य प्रबंधन आदि विषयों में दक्षता प्राप्त करने के लिए कहते हैं। वे उनके निर्देशों को प्रसन्नता से स्वीकार करते हैं और उनसे विनती करते हैं कि वे किसी की नियुक्ति करे जो सदा वहां निवास करते हुए उनका मार्गदर्शन करे । श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, पोन्नडिक्काल् जीयर से अप्पाच्चियारण्णा को उनके समक्ष लाने के लिए कहते हैं और वे उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। तद्पश्चाद वे सभी श्रीवैष्णवों से कहते हैं “अप्पाच्चियारण्णा को मेरे समान ही माने” और अप्पाच्चियारण्णा को निर्देश देते हैं कि “क्यूंकि आप श्रीदाशरथि स्वामीजी के कुल से सम्बंधित हैं, आप मेरे नियुक्त अधिकारी बनकर यहाँ सभी का मार्गदर्शन करते हुए आण्डान, कन्दाडै थोलप्पर आदि पूर्वजों को प्रसन्न करें और प्रतिदिन देव पेरुमाल का मंगलाशासन करें। हस्तगिरी नाथ सदा आपका मंगल करेंगे”। अप्पाच्चियारण्णा, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के निर्देशों को स्वीकार करते हैं परंतु जीयर की तिरुमाला यात्रा में उनका अनुसरण करते हैं। बहुत से दिव्य देशों की यात्रा के पश्चाद, वे अंततः श्रीरंगम लौटते हैं।

उस समय, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, अप्पाच्चियारण्णा को आमंत्रित करते हैं और उन्हें अपने कांचीपुरम लौटने के कर्तव्य के विषय में स्मरण कराते हैं। अप्पाच्चियारण्णा, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरणकमल अनुरागी श्रीवैष्णव भागवत गोष्ठी का साथ छूटने पर अपना दुःख प्रकट करते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, अप्पाच्चियारण्णा के मनोभाव को समझकर, उन्हें पेरुमाल की सन्निधि में ले जाते हैं। उनके पास एक सोम्बू (छोटा पात्र) था, जिसे वे श्री रामानुज के नाम से संबोधित करते थे, परंतु उसे उन्होंने पोन्नडिक्काल् जीयर को प्रदान किया जो उन्हें अपनी पूजा पेटी में विराजमान कर प्रतिदिन अत्यंत श्रद्धा से आचार्य प्रसाद समझकर उसकी आराधना करते थे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, पोन्नडिक्काल् जीयर को वह सोम्बू लाने का आदेश देते हैं, और उसे लेकर अप्पाच्चियारण्णा को प्रदान करते हुए कहते हैं कि “क्यूंकि इसमें अंकित तिरुमण, शंख, चक्र और श्रीरामानुज नाम सभी लुप्त हो गए हैं, कृपया इस धातु से आप मेरे दो विग्रह बनाये और एक अपने आचार्य (पोन्नडिक्काल् जीयर) को समर्पित करके, द्वितीय विग्रह को अपने तिरुवाराधन में विराजे”। वे अपने तिरुवाराधन में भी “एन्नै तीमनम केडुत्तार” (जिन्होंने मेरे मन को शुद्ध किया-यह दिव्य नाम श्रीशठकोप स्वामीजी की तिरुवाय्मौली 2.8 पधिगम से लिया गया है) नामक दिव्य विग्रह अप्पाच्चियारण्णा को प्रदान किये।

एन्नैथ तिमनम केदुत्तार-श्रीदाशरथी स्वामीजी तिरुमंगलै, सिंगप्पेरुमाल कोयिल

एन्नै तीमनम केडुत्तार -श्रीदाशरथी स्वामीजी तिरुमंगलै, सिंगप्पेरुमाल कोयिल

इन भगवान की आराधना आत्कोण्डविल्ली जीयर (श्रीरामानुज स्वामीजी के शिष्य) और कन्दाडै आण्डान, श्रीदाशरथि स्वामीजी के पुत्र, जो आत्कोण्डविल्ली जीयर के प्रिय थे, के द्वारा की गयी है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं “क्यूंकि आप भी कन्दाडै आण्डान के वंशज हैं और आप इन भगवान की आराधना करने के अधिकारी हैं, आप इन्हें अपने तिरुवाराधन में विराजमान कर प्रतिदिन इनकी सेवा करे”। अप्पाच्चियारण्णा के प्रति अपने अत्यधिक प्रीति को दर्शाते हुए श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं कि अप्पाच्चियारण्णा स्वयं देव पेरुमाल के अंश स्वरुप हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के निर्देशों को स्वीकार करते हुए, अप्पाच्चियारण्णा कांचीपुरम में निवास करते हुए वहां सभी श्रीवैष्णवों का मार्गदर्शन करते हैं।

इस प्रकार, हमने अप्पाच्चियारण्णा के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और अपने आचार्य पोन्नडिक्काल् जीयर के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी अपने आचार्य के प्रति अंश मात्र अभिमान की प्राप्ति हो।

अप्पाच्चियारण्णा की तनियन:

श्रीमत वानमहाशैल रामानुज मुनिपिर्यम
वादुल वरदाचार्यं वन्दे वात्सल्य सागरं

-अदियेन् भगवति रामानुजदासी

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