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An Introduction of shrI vaiShNava guruparamparA

नम्पिळ्ळै

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

पूर्व अनुच्छेद मे हमने ओराण्वळि के अन्तर्गत आचार्य “नन्जीयर” के बारें मे चर्चा की थी । आगे बढ़ते हुए अब हम ओराण्वळि के अन्तर्गत आचार्य ( नम्पिळ्ळै) के बारें मे चर्चा करेंगे ।

नम्पिळ्ळै – तिरुवल्ळिकेणि

तिरुनक्षत्र : कार्तिक मास , कृत्तिका नक्षत्र

अवतार स्थाल : नम्बूर

आचार्य : नन्जीयर

शिष्य :वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै, पेरियवाच्चान पिळ्ळै , पिण्बळगिय पेरुमाळ जीयर, ईयुण्णि माधव पेरुमाळ, नाडुविळ तिरुविधि पिळ्ळै भट्टर इत्यादि

परमपद प्रस्थान: श्री रंगम से

रचना : तिरुवाय्मोळि के ३६००० पडि ईडु व्याख्यान, कण्णिनुन् सिरुताम्बु व्याख्यान, तिरुवन्दादियों के व्याख्यान, तिरुविरुत्तम् व्याख्यान

नम्बूर गाँव में वरदराजन के नाम से पैदा हुए और नम्पिळ्ळै के नाम से प्रसिद्ध हुए । वे तिरुक्कलिकंरी दासर, कलिवैरी दासर ,लोकाचार्यर , सूक्ति महार्णवर, जगदाचार्य और उलगसीरियर इत्यादि नामों से भी जाने गए हैं ।

पेरिय तिरुमोळि ७.१०.१० में बतलाया जाता हैं की – तिरुकण्णमंगै एम्पेरुमान् तिरुमंगै आळवार् के पासुरों का अर्थ स्वयं उन्ही कि बोली में सुनना चाहते थे  – इसी कारण माना जाता हैं कि कलियन नम्पिळ्ळै हुए और एम्पेरुमान् पेरियवाच्चान पिळ्ळै के रूप में पुनरावतार लेकर अरुलिच्चेयल के सकल अर्थ उनसे सुने और सीखें।

नन्जीयर ने अपनी ९००० पड़ि कि व्याख्यान का एक अच्छी प्रति लिपि बनाना चाहा । जब श्री वैष्णव गोष्टि में विचार किया  तब नम्बूर वरदराजर का नाम प्रस्ताव किया गय़ा । वरदराजर नन्जीयर को आश्वासन देते हैं कि वे उनके मन को संतुष्ट होने कि तरह लिखेंगे । नन्जीयर पहले उन्हें ९००० पड़ि कि व्याख्यान को सुनाकर अनन्तर उन्हें मूल प्रति देते हैं । वरदराजर कावेरी के उस पार स्थित अपने स्वग्राम को जाकर लिखने कि योचना किये ताकि वोह लिखने पे ध्यान देकर जल्दी से समाप्त कर सके । नदि पार करते समय अचानक से बाड़ आ जाती हैं और वरदराजर तैर कर अगले तट पहुँचते हैं । तैरते समय मूल प्रति जो उनकी हाथों में थी छूट जाती हैं और वे बर्बाद हो जाते हैं । स्वग्राम पहुँचकर अपने स्वग्राम पहुँचकर आचार्य के दिव्यमंगलस्वरूप और उनके द्वारा बतलाये गए दिव्यार्थों पर ध्यानकेंद्रित कर वापस ९००० पड़ी व्याख्यान लिखना शुरू कर देते हैं । तमिळ भाषा और साहित्य के विद्वान होने के कारण उचित स्थल पर सुन्दर से अर्थ विशेषो को मिलाकर नन्जीयर के पास वापस जाकर उनको वोह पृष्टि सोंप देते हैं । नन्जीयर व्याख्यान पढ़कर जान लेते हैं कि उसमे कुछ बदलाव किया गया हैं और उनसे घटित घटना के बारे में पूछते हैं । वरदराजर उन्हें सब कुछ  बताते हैं और नन्जीयर सुनके प्रसन्न हो जाते हैं । वरदराजर की ख्याति समझते हुए उन्हें ” नम्पिळ्ळै “और ” तिरुक्कलिकंरी दासर” से उनका नाम करण करते हैं ।

जिस प्रकार भट्टर और नन्जीयर के बींच का रिश्ता और उनके संवाद ( संबन्ध ) थे , उसी प्रकार नन्जीयर और नम्पिळ्ळै के बींच का रिश्ता और संवाद अती आनन्ददायक और अत्युत्तम ज्ञानार्थों  से भर्पूर थे | इन्के बींच हुए संवाद आप भगवद्बन्धुवों के लिये निम्नलिखित इक्कों मे प्रस्तुत है  :

  • नन्जीयर से नम्पिळ्ळै पूछते हैं कि क्यूँ जब उपयान्तर (अनेक उपाय) के लिए बहुत सारे प्रमाण हैं लेकिन शरणागति को कोई प्रमाण नहीं हैं । नन्जीयर पहले बताते हैं कि जब कोई विषय प्रत्यक्ष से जान सकते हैं उसे प्रमाण कि जरूरत नहीं होती हैं – उदाहरण बताते हैं कि  डूबता हुआ मनुष्य किसी साधन लेकर पकड़ कर ठहरता हैं या उसे थाम लेता हैं जो नहीं डूब रहा हैं – ठीक उसी तरह हम संसार में डूब रहे हैं और एम्पेरुमान् वोह हैं जो डूब नहीं रहे हैं और एम्पेरुमान् कि शरण लेना बहुत उचित उपाय हैं । अनन्तर वे शरणागति शास्त्र कि मान्यता बताते हुए शास्त्र से कुछ प्रमाण दिखाते हैं । वे कहते हैं कि एक विषय कि मान्यता उस पर आधारित प्रमाणो कि गिनती से नहीं किया जाता – उदाहरण के लिए इस संसार में संसारि ज्यादा और संन्यासी कम हैं , इसका मतलब यह नहीं हैं कि संसारि होना उचित हैं । यह जवाब सुनकर नम्पिळ्ळै प्रसन्न हो जाते हैं ।
  • नम्पिळ्ळै नन्जीयर से पूछते हैं कि कब एक मानव स्वयं को श्रीवैष्णव मान सकता हैं ?नन्जीयर उत्तर देते हुए बताते हैं कि जब अर्चावतार में परतत्व पेहचान सकेंगे , जब अन्य श्री वैष्णव के संतान और धर्म पत्नी को स्वपरिवार के सभ्य कि तरह मानते हैं (उन का लगाव स्वपरिवार और अन्य श्री वैष्णव के परिवार पर सामान रहेगा ) और जब अन्य श्री वैष्णव बेइज्जात करें उसे खुशी के साथ स्वीकार कर सकते हैं तब हम खुद को श्री वैष्णव कह सकते हैं ।
  • जब नम्पिळ्ळै नन्जीयर के पास श्री भाष्यम् सुन रहे थे तब नन्जीयर उन्हें आदेश देते हैं कि वे उनके एम्पेरुमान् का तिरुवाराधन करें । नम्पिळ्ळै उनसे कहते हैं कि तिरुवाराधन का क्रम उन्हें पता नहीं हैं तब नन्जीयर उनसे कहते हैं कि द्वय महा मंत्र (मध्य में सर्व दिव्य मंगल विग्रहाय “जोड़कर करने से अर्चावातर में एम्पेरुमान् के सौलभ्य गुण प्रकाशित होती हैं जो मूर्ति में उनकी व्यापन सूचित करती हैं । ) जपते हुए करें | इससे हमे यह साबित होता हैं कि अपने पूर्वाचार्य सब विषयों के लिए द्व्य महा मन्त्र पर पूरी तरह से निर्भर थे ।
  • नम्पिळ्ळै पूछते हैं कि एम्पेरुमान् के अवतारों का प्रयोजन क्या हैं ? नन्जीयर उन्हें बताते हैं कि एम्पेरुमान् ने बड़े-बड़े कार्य अपने कंधे पे ले लिया हैं यह सुनिश्चित करने के लिए कि जो कोई भी भागवत अपचार करेंगे उन्हें उचित तरह से दण्डित किया जा सके । ( उदाहरण के लिया कण्णन् एम्पेरुमान् (भगवान श्री कृष्ण ) ने खुद बहुत कष्ट सहन करके यह पक्का करते हैं कि दुर्योधन जो उनके भक्त के प्रति अपचार किया हैं उसे अंत में मरन दण्ड प्राप्त हो  )
  • नम्पिळ्ळै पूछते हैं कि भागवत अपचार का मतलब क्या होता हैं ? नन्जीयर बताते हैं कि अन्य श्री वैष्णव को खुद को समान मानना। वे आळ्वारों के कई पासुरों को उदाहरण के रूप मे प्रस्तुत करते हुए दर्शाते है की भागवत ( भगवान के प्रपन्न भक्त ) कैसे सर्वश्रेष्ट उत्तम और महान है । इस विषय को ध्यान मे रखते हुए हमे सदैव यह मानना चाहिये की प्रत्येक श्रीवैष्णव (जो कोई भी जाति / वर्ण इत्यादि से हो) हमेशा हमारि तुलना मे उत्तम और सर्वश्रेष्ट है । । वे यह भी कहते हैं कि आळ्वार और पूर्वाचार्यों कि तरह हमें भी सदैव भागवतों कि स्तुति करनी चाहिए ।
  • नन्जीयर नम्पिळ्ळै से कहते हैं कि भगवत अनुभव में निमग्न हुए भक्तों को इतर लोक के विषय अनुभव जैसे ऐश्वर्य , अर्थ ,काम पूरी तरह से त्यजनीय हैं । इस विषय को आळ्वार के कई पासुरों को उदाहरण लेकर समझाते हैं । उदाहरणों के लिये – नन्जीयर तिरुमंगै आळ्वार की वार्ता को दोहराते है । वे कहते है – तिरुमंगै आळ्वार ने भौतिक जगत के प्रति अपने आसक्ति का त्याग कर दिया जब उनको भगवान के दिव्यगुणो और वैभव का एहसास हुआ और तुरन्त अपने दिव्यप्रबंध को शुरू करते हुए उन्होने कहा – ” वाडिनेन वाडि  .. नारायणा एन्नुम् नामम् ”  ( जिसका मतलब हैं कि एम्पेरुमान् ( भगवान ) भगवान का दिव्यनाम ( तिरुनामम् ) मिलने तक मैं संसार के हाथों में दुःख झेल रहा था ) । यह सुनने के बाद नम्पिळ्ळै तुष्ट हो जाते हैं और उसी क्षण से उनका कैंकर्य करते और कालक्षेपं सुनते नन्जीयर के साथ रह जाते हैं ।
  • नन्जीयर तिरुवाय्मोळि कालक्षेप १०० बार करते हैं और नम्पिळ्ळै उनके लिए सदाभिषेक महोत्सव का आयोजन करते हैं । नन्जीयर के इन कालाक्षेपों के द्वारा पूर्वाचार्यों से दिये गए सारे अर्थ विशेषों का लाभ पाते हैं ।

नम्पिळ्ळै कई अनोखे लक्षण के समाहार हैं और उनकी महानता नाप नहीं सकते हैं । नन्जीयर तमिल (द्राविद), संस्कृत भाषा और भाषासंबंधित साहित्य मे असामान्य तौर से निपुण थे । उनके उपदेशों में वे तिरुक्कुरळ , नन्नुळ , कम्ब रामायणम् इत्यादि द्राविड़ ग्रंथों से और वेदान्तम् , विष्णु पुराण , श्री वाल्मीकि रामायण इत्यादि ग्रन्थ से कई उदाहरण बिना कुछ संकोच के साथ बताते थे । नन्जीयर इतने सक्षम और माहिर थे की वे किसी की भी शंखा (जो आळ्वारों और उनके अरुलिच्चेयल् पर आधारित हो) को श्रीमद्वाल्मीकि रामायण (जिसे प्रत्येक वैदिक व्यक्ति सर्वोच्च मानते थे) के मूल सिद्धांतो पर आधारित तर वितर्क से संतोषजनक समाधान से संतुष्ट करते थे । आईये देखें कुछ घटनाये जो उनकी महानता और विनम्रता को दर्शाती हैं ।

  • नम्पिळ्ळै श्री रंगम पेरिय कोविल मूल स्थान में प्रदक्षिण करने कि पूर्व दिशा (पेरिय पेरुमाळ तिरुवडि कि ओर ) में नित्य अपना भाषण देते थे । इसी कारण आज भी हम सन्निधि में दर्शन होने के बाद उस प्रदेश में प्राणाम करते हैं । नम्पिळ्ळै उपन्यास देते समय देखने के लिए पेरिय पेरुमाळ खड़े हो गए थे । तिरुविळक्कु पिच्छण् (एक श्री वैष्णव जो सन्निधि के दीप और रौशनी के जिम्मेदार हैं ) खड़े हुए पेरिय पेरुमाळ को देखते हैं और उन्हें धक्का देकर कहते हैं कि अर्चावतार में उन्हें हिलने कि इझाजत नहीं हैं । नम्पिळ्ळै को भाषण देते हुए देखने और सुनने के लिए एम्पेरुमान् ने उनकी अर्च समाधी को भी तोडा हैं ।

  • नम्पिळ्ळै के भाषण इतने प्रसिद्ध थे कि लोग कहते थे कि क्या यह नम्पेरुमाळ कि गोष्टी हैं या नम्पिळ्ळै कि गोष्टी । जिस तरह नम्पेरुमाळ लोगों को अपनी पुरप्पाड इत्यादि कि ओर आकर्षित करते थे उसी तरह नम्पिळ्ळै अपने वचन से उन्हें आकर्षित करते थे ।
  • नम्पिळ्ळै की विनम्रता अद्वितीय और असामान्य थी । श्री नन्जीयर का जीवन एक ऐसा आदर्श जीवन था जो केवल श्री नम्पिळ्ळै से सीखा हुआ श्रीवैष्णवतत्व पर पूर्ण तरह से आधारित था । एक बार कन्दाड़ै तोळप्पर (मुदली आण्डान् वंशी ) नम्पेरुमाळ के आगे नम्पिळ्ळै कि निंदा स्तुति करते हैं । उनकी महानता तोळप्पर् से सहन नहीं हो रहा था और वोह असहनता कठिन व्याख्या ( शब्दों ) के रूप में बाहर आए । नम्पिळ्ळै ने बिना कुछ बोले उनकी बेइज्जति सहन करके अपनी तिरुमालिगै को निकल पड़ते हैं । तोळप्पर जब अपने तिरुमालिगै पहुँचते हैं , उनकी धर्म पत्नी जो इस विषय के बारे में जान लेती हैं उन्हें उनकी बर्ताव पे सलाह देती हैं और नम्पिळ्ळै की महानता बताती हैं । उनसे आग्रह करती हैं कि वे नम्पिळ्ळै के पास जाकर उनके चरण कमल पे माफ़ी माँगे । आख़िरकार उन्हें अपनी भूल समझ मे आती हैं और रात में नम्पिळ्ळै कि तिरुमालिगै को जाने कि ठान लेते हैं । जब घर से निकल पड़े और दरवाज़ खोला तब उन्होंने एक व्यक्ति उनका इंतज़ार करते हुए दिखाई दिये जो दूसरे कोई नहीं थे बल्कि नम्पिळ्ळै स्वयं थे । तोळप्पर को देखने के तुरंत बाद नम्पिळ्ळै नीचे गिर कर उन्हें प्रणाम करते हैं और कहते हैं कि उन्होंने कुछ भूल कियी होगी जिस के कारण तोळप्पर उनसे नाराज़ जो गए । तोळप्पर हैरान हो जाते हैं और उनकी महानता अच्छी तरह से समझ आती हैं । भूल उन्होंने किया हैं लेकिन नम्पिळ्ळै इतने विनम्र निकले कि उस भूल को उन्होंने अपने कंधे पे ले लिया और माफ़ी माँगने लगे । तोळप्पर तक्षण उन्हें प्रणाम करते हैं और कहे कि उनकी विनम्रता के कारण उन्हें उस दिन से “लोकाचार्य” के नाम से लोग जानेंगे । जो मानव महान होने के बावज़ूद अपनी चाल चलन में विनम्रता रखता हैं उन्हें “लोकाचार्य” कहते हैं और नम्पिळ्ळै उस पद के लायक हैं । नम्पिळ्ळै के प्रति अपनी द्वेष भाव को छोड़कर तोळप्पर अपनी पत्नी के साथ उनकी सेवा में जुड जाते हैं और कई शास्त्रार्थ उनसे सीखते हैं । इस संघटन को मामुनिगळ अपनी उपदेश रत्न माला में बताते हुए नम्पिळ्ळै और तोळप्पर को गौरवान्वित करते हैं । इसी से हम नम्पिळ्ळै कि निश्चलता/पवित्रता जान सकते हैं । हम यह भी जान सकते हैं इस घटना के बाद तोळप्पर भी नम्पिळ्ळै के सहवास से पवित्र होते हैं ।
  • नडुविळ तिरुवीधि भट्टर जो भट्टर वंशीय थे नम्पिळ्ळै की कीर्ति से असहन होते हैं और उन पे ईर्षा भाव बढ़ा लेते हैं । एक बार जब वे राजा के दरबार जा रहे थे तब उनके साथ पिन्बळगीय पेरुमाळ जीयर को अपने साथ लेकर जाते है । राजा उन दोनों को स्वागत करके उन्हें सम्भावन देकर आसीन करते हैं । राजा ने भट्टर से श्री रामायण से एक प्रश्न पूछते हैं । उन्होंने पूछा जब एम्पेरुमान ने एलान किया था कि रामावतार में वे परत्वता नहीं दर्शाएंगे तब वे कैसे जटायु को “गच्छ लोकान् उत्तमान”( सबसे उत्तम लोक – परमपद को जाईये ) कह सकते हैं । भट्टर को समाधान नहीं मालुम था और उनकी ख्याति के बारे में चिंतित हो रहे थे और इस बीच राजा कुछ अन्य कार्य में मग्न हो गए । भट्टर जीयर से पूछते हैं कि अगर नम्पिळ्ळै को यह प्रश्न पूछा गया होता तो वे इसका क्या उत्तर देंगे । जीयर तुरंत उत्तर देते हैं कि वे “सत्येन लोकान जयति” (एक सच्चा इन्सान तीनों लोकों को जीत सकता हैं ) इति सूत्र से समझाते । भट्टर उस श्लोक पर ध्यान करके उसका अर्थ जानकर राजा को समझाते हैं कि श्री राम सत्यवादी थे और उनकी सत्यनिष्ठा की शक्ति से किसी को भी किसी भी प्रदेश पहुँचा सकते हैं । जवाब सुनकर राजा बहुत प्रसन्न होकर भट्टर के ज्ञान की प्रशंसा करते हैं और उन्हें ढ़ेर सारा सम्पत्ति प्रदान करते हैं । नम्पिळ्ळै के केवल एक व्याख्या की महत्ता को जानकर भट्टर तुरन्त उनके पास जाकर सारा संपत्ती को समर्पित कर देते है । नम्पिळ्ळै के चरण-कमलों का आश्रय (शरण) पाकर उनके शिष्य बनते हैं और उसके बाद निरंतर नम्पिळ्ळै की सेवा में जुट जाते हैं ।

नम्पिळ्ळै के जीवन में ऐसे कई संघटन हैं जहाँ वे उनके शिष्यगण को अमूल्य पाठ और उपदेश देते है | आप भगवद्-बन्धुवों के लिये निम्नलिखित इक्कों मे इसका उल्लेख है :

  • एक बार नम्पिळ्ळै अपने शिष्य गण के साथ तिरुवेळ्ळरै से वापस नाव मे आ रहे थे , उसी समय नाविक ( नौका चलाने वाला ) ने अपने दृष्टिकोण से कहा – कावेरी मे बाढ आया है और इस कारण उपस्थित गोष्टि मे किसी एक व्यक्ति को नदी के पानी मे कूदना होगा जिससे नाव संतुलित रहेगा और नम्पिळ्ळै बच जाए । यह सुनते ही एक बूढ़ी औरत बाढ के पानी में कूद पड़ती है और यह देखकर नम्पिळ्ळै दुःखित हो जाते हैं । जब वे तट पहुँचते हैं तब उस बूढ़ी औरत कि आवाज़ नजदीकि द्वीप से सुनायी देती हैं । बूढ़ी औरत बताती हैं कि नम्पिळ्ळै प्रत्यक्ष हो कर उनकी रक्षा किये । इस संघटन मे बूढी औरत यह स्पष्ट रूप से दर्शाति है की किस तरह उन्होने अपने प्राण-त्याग करके अपने आचार्य की सेवा की उसी प्रकार हमे भी करना चाहिये । नम्पिळ्ळै ने यह दर्शाया है की कैसे एक आचार्य विपरीत परिस्थितियों मे अपने निर्भर शिष्यों का संरक्षण कैसे करे ।
  • नम्पिळ्ळै के समीप एक घर मे एक श्री वैष्णव स्त्री रहती थी । एक दिन श्री वैष्णव उस औरत के पास जाकर उनसे विनती करते हैं कि अगर वे उनका घर नम्पिळ्ळै के घर से मिला दें तब उनका घर (तिरुमालिगै) बड़ा हो जायेगा और बहुत सारे श्रीवैष्णवों के लिये आश्रय होगा । पहले उनकी विनती को अस्वीकार कर देती हैं लेकिन बाद में नम्पिळ्ळै के पास जाकर उनसे विनती करते हैं कि उनके घर के बदले में उन्हें परम पद में स्थान अनुग्रह करें । नम्पिळ्ळै एक पत्र लिख कर उसके हाथ में देते हैं । उस पत्र को लेकर थोड़े दिन के बाद अपना चरम शरीर छोड़कर औरत परमपद प्राप्त कर लेती हैं ।
  • नम्पिळ्ळै की दो पत्निया थी । एक बार उनकी पहली पत्नि से अपने बारे में उनका विचार पूछते हैं । जवाब देते हैं बतलाती हैं कि उन्हें स्वयं एम्पेरुमान् का स्वरुप मानती हैं और उन्हें अपने आचार्य के स्थान में देखती हैं । उनकी उत्तर से नम्पिळ्ळै बहुत प्रसन्न हो जाते हैं और उनसे मिलने तिरुमालिगै को आने वाले श्री वैष्णवो के तदियाराधन कैंकर्य में पूरी तरह से झुट जाने के लिए कहते हैं । उनकी दूसरी पत्नी से अपने बारे में उनका विचार पूछते हैं । वे उत्तर देते हैं कि नम्पिळ्ळै उनके प्रिय पति हैं । नम्पिळ्ळै उनसे पहले पत्नी की सहायता करके श्री वैष्णव का प्रसाद पाने के लिए कहते हैं । वे कहते हैं श्री वैष्णवों का शेष प्रसाद पाने से उनका शुद्धिकरण होगा और उनके लौकिक विचार (पति-पत्नि) आध्यात्मिक (आचार्य-शिष्य) विचारों मे बदलेंगे ।
  • जब महा भाष्य भट्टर उनसे पूछते हैं कि जब अपनी निज स्वरुप (चैतन्य) एहसास होने के बाद श्री वैष्णव की सोच कैसी होनी चाहिए । नम्पिळ्ळै उत्तर देते हैं कि ऐसे श्री वैष्णव नित्य एम्पेरुमान् ही उपाय और उपेय मानना चाहिए , स्मरणातीत काल से सँसार के इस बिमारी के चिकित्सक आचार्य के प्रति कृतज्ञता से रहना चाहिए, एम्पेरुमानार के श्रीभाष्य द्वारा स्थापित सिद्धान्तों को सत्य मानना चाहिये , श्री रामायण के द्वारा भगवद् गुणानु भव करना चाहिए , अपना सारा समय आळ्वारों के अरुळिचेयल में बिताना चाहिए । अंत में कहते हैं कि यह दृढ़ विशवास होना चाहिये की इस जीवन के अंत में परमपद की प्राप्ति निश्चित हैं ।
  • कुछ श्री वैष्णव पाण्ड्य नाडु से नम्पिळ्ळै के पास आकर पूछते हैं की अपने साम्प्रदाय का मूल तत्व क्या हैं । नम्पिळ्ळै उनसे समुद्र तट के बारे में सोचने के लिए कहते हैं । चकित होक पूछते हैं कि समुद्र तट के बारे में क्या सोचने कि लिए हैं । नम्पिळ्ळै समझाते हैं कि चक्रवर्ति तिरुमघन श्री राम रावण से युद्ध करने के पहले समुद्र तट पर शिविर में विश्रान्त ले रहे थे और वानर सेना उनकी रक्षा के लिए उस इलाके कि चौकीदारी कर रहे थे । ठकान के कारण वानर सेना सो जाती हैं और एम्पेरुमान् उनकी रक्षा करने उस इलाके कि चौकीदारी करने में झुट जाते हैं । नम्पिळ्ळै समझाते हैं कि एम्पेरुमान् हमें सोने के वक्त भी रक्षा करते हैं और इसलिए उन पर अटूट विश्वास होना चाहिए कि वे ज़रूर हमें जागृत अवस्था में भी रक्षा करेंगे । यथा हमें स्व रक्षणे स्वान्वयम् ( खुद अपने आप कि रक्षा करने कि मनो दृष्टी ) को छोड़ देना चाहिए ।
  • अन्य देवि देवताओं के भजन के बारे में नम्पिळ्ळै ने अद्भुत रूप से विवरण दिया हैं । एक बार उनसे प्रश्न किया जाता हैं कि नित्य कर्म करते समय आप अन्य देवता ( जैसे इंद्र , वायु , अग्नि ) कि पूजा कर रहे हैं लेकिन यह पूजा उनके मन्दिर को जाकर क्यूँ नहीं कर रहे हैं ? तत्क्षण अति चतुर जवाब देते हैं कि क्यूँ आप यज्ञ के अग्नि को नमस्कार करते हैं और वहीँ अग्नि जब स्मशान में हैं तब उससे दूर हैं ? इसी तरह शास्त्र में निर्बन्ध किया गया हैं कि नित्य कर्म को भगवद् आराधन मानकर करना चाहिए । यह कर्म करते समय हम सभी देवताओं के अंतरात्मा स्वरूप एम्पेरुमान् को दर्शन करते हैं । वही शास्त्र बतलाती हैं कि हमे एम्पेरुमान् के अलावा किसी अन्य देवता कि पूजा नहीं करनी चाहिए इसीलिए हम दूसरे देवताओं के मंदिर को नहीं जाते हैं । साथ ही साथ जब यह देवताओं को मंदिर में प्रतिष्टा की जाती हैं तब उन में रजो गुण भर जाता हैं और अपने आप को परमात्मा मानने लगते हैं और क्योंकि श्री वैष्णव सत्व गुण से सम्पन्न हैं और वे रजो गुण सम्पन्न देवता को पूजा नहीं करते हैं । अन्य देवता भजन या पूजा न करने के लिए क्या इससे बेहतर विवरण दिया जा सकता हैं ।
  • एक श्री वैष्णव उनसे मिलने आते हैं और बताते हैं कि वे पहले से भी बहुत दुबले हो गए हैं । नम्पिळ्ळै उत्तर देते है कि जब आत्मा उज्जीवन कि दिशा में बढ़ती हैं अपने आप शरीर घट जाता हैं ।
  • दूसरी बार एक श्री वैष्णव उन्हें देखकर कहते हैं कि वे बलवान नहीं लग रहे हैं तब नम्पिळ्ळै कहते हैं उनके पास एम्पेरुमान् कि सेवा करने के लिए शक्ति हैं जो खाफी हैं और बलवान होकर उन्हें कोई युद्ध लड़ने नहीं जाना हैं । इससे यह निरूपण होता हैं कि श्री वैष्णव को शारीरिक रूप से मजबूत बनाने कि चिन्ता नहीं करनी चाहिए ।
  • जब नम्पिळ्ळै अस्वस्थ्य हो जाते हैं तब एक श्री वैष्णव बहुत चिन्ति हो जाते हैं । उन्हें देखकर नम्पिळ्ळै बताते हैं कि किसी भी तरह कि कष्ट भुगतनेलायक हैं क्योंकि शास्त्र में बताया गया हैं कि एम्पेरुमान् के कमल चरणों में आत्मा समर्पण किये महान लोग मृत्यु देवता को ख़ुशी – ख़ुशी आमन्त्रित करते हैं ।
  • उस दौर नम्पिळ्ळै के प्रति प्रेम के कारण और उन्हें अस्वस्था से राहत दिलाने के आकाँक्षी कुछ श्री वैष्णव एक रक्षा कि डोर बाँधना चाहे और एङ्गलाळ्वान के आदेश के अनुसार नम्पिळ्ळै रक्षा बँधवाने के लिए ना करते हैं । इस नाकरात्मित्कित को कुछ श्री वैष्णव प्रश्न करते हुए कहते हैं “यह शायद ठीक हैं कि एक श्री वैष्णव अपने शरीर के बारे में चिंताक्रान्त ना हो लेकिन उनसे क्या भूल हुयी हैं जब वे अन्य श्री वैष्णव कि अस्वस्था के बारे में चिन्ता करें । नम्पिळ्ळै विवरण देते हुए कहते हैं कि अगर अपने खुद कि अस्वस्था का इलाज़ करने कि कोशिश करें तो उससे यह पता लगता हैं कि हमें स्वस्वरूप ज्ञान जिससे यह प्राप्त होता हैं कि हम केवल एम्पेरुमान पे ही पूरी तरह से निर्भर हैं । अगर हम अन्य श्री वैष्णव कि अस्वस्था का इलाज़ के बारे में सोच रहे हैं तब यह साबित होता हैं कि हमें एम्पेरुमान का ज्ञान और शक्ति के बारे में पूरी अवगाहन नहीं हुआ कि भक्तों कि बाधाएँ दूर करने के लिए एम्पेरुमान पे निर्भर होना चाहिए । नम्पिळ्ळै कि निष्ठा इस प्रकार कि थी और वोह अपनी पूरी जिंदगी उस के अनुसार थे । इसी समय हमें यह भी जान लेना चाहिए कि श्री वैष्णव के कष्ट देखकर उसके बारे में चिन्ता करना अपना कर्तव्य हैं जैसे मारिनेरी नम्बि ने आळवन्दार् के दुख को देखकर किया था ।
  • नम्पिळ्ळै के शिष्य कई आचार्य पुरुष के परिवारों से थे और श्री रंगम में सब उनके समय को नल्लड़िकाल्(सबसे अच्छा समय ) करके स्तुति करते हैं । इनके शिष्य नाडुविळ तिरुविधि पिळ्ळै भट्टर् (१२५०० पड़ि ) और वडक्कु तिरुविधि पिळ्ळै (ईडु ३६००० पड़ि ) दोनों ने तिरुवाय्मळि का व्याख्यान किया था । लेकिन नम्पिळ्ळै ने पहल ग्रन्थ बहुत ही विस्तरणीय होने के कारण उसे नकार दिया और दूसरा व्याख्यान को स्वीकृत् करके ईयुण्णि माधव पेरुमाळ को दे दिया ताकि भविष्य काल में उसके निगूढ़ अर्थ अळगीय मणवाळ मामुनि के द्वारा सभी जान सकें । उन्होंने पेरियवाच्छान् पिळ्ळै को भी आदेश दिया कि तिरुवाय्मळि का व्याख्यान लिखे और आचार्य के आदेश अनुसार उनकी इच्छा पूर्ति करते हुए उन्होंने २४००० पड़ि व्यख्यान लिखें और नम्पिळ्ळै ने उस ग्रन्थ को बहुत प्रशंसा कि ।
  • नम्पिळ्ळै पेरिय कोविल वळ्ळलार् से “कुलं तरुं ” का अर्थ पूछते हैं तब वळ्ळलार् कहते हैं कि “जब मेरा कुल जन्म कुल से नम्बूर् कुल(नम्पिळ्ळै का कुल) में बदल गया हैं तो उसे कुलं तरुं कहते हैं ” । यह विषय ठीक पेरियाळ्वार् श्री सूक्ति पंडै कुल(जन्म कुल ) से तोंड़ा कुल ( आचार्य सम्बन्ध और कैंकर्य प्राप्त होता हैं ) । नम्पिळ्ळै इतने महान थे ।

आईये अंत में सामाप्त करते हुए देखे कि एळै एळलन पदिग् ओथु वाईमैयुम (पेरिय तिरु मोळि – ५.८. ७ ) में नम्पिळ्ळै के बारे में पेरियवाच्छान्  पिळ्ळै ने क्या बताया हैं । पेरियवाच्छान पिळ्ळै जब “अन्ताणं ओरुवन ” ( अनोखे विद्वान ) का अर्थ समझाने के समय पे मौके का लाभ उठाते हुए अपने आचार्य नम्पिळ्ळै कि कीर्ति के बारे में बताते हैं और अनुगामी शब्द प्रयोग करते हुए व्यक्त करते हैं कि उनके आचार्य सबसे अनोखे विद्वान हैं ” मुर्पड़ ढवायत्तिक् केट्टु , इत्तिहास पुराणांगलियुम अथिगारित्तु , परपक्ष प्रत्क्षेपत्तुक्कुडालग ,न्याय मीमामंसैकलुम अथिगारित्तु,पोतुपोक्कुम अरुलिचेयलीलेयमपडि पिळ्ळैप्पोले अथिगारिप्पिक्क वल्लवनायिरे ओरुवन एंबतु ”
(முற்பட த்வயத்தைக் கேட்டு, இதிஹாஸ புராணங்களையும் அதிகரித்து, பரபக்ஷ ப்ரத்க்ஷேபத்துக்குடலாக ந்யாயமீமாம்ஸைகளும் அதிகரித்து, போதுபோக்கும் அருளிசெயலிலேயாம்படி பிள்ளையைப்போலே அதிகரிப்பிக்க வல்லவனையிரே ஒருவன் என்பது). सुलभ तरह से भाषांतर करने से यह प्राप्त होता हैं कि जो पहले द्वयं सुनता हैं , उसके बाद पुराण और इतिहास सीखता हैं और बाह्य / कुदृष्टि लोगों को हराने के लिए न्याय और मीमांस अभ्यास करता हैं , अपना सारा समय आळ्वार् अरुळिचेयळ और उनके अर्थ विशेष सीखने और सीखाने में व्यतीत करते हैं उन्हें अनोखा विद्वान कहा जा सकता हैं और साक्षात उदाहरण नम्पिळ्ळै हैं । यहाँ पेरियवाच्छान सांदीपनि मुनि को कुछ अंश में नम्पिळ्ळै कि तरह मानते हैं ( वास्तव में नम्पिळ्ळै सांदीपनि मुनि से कई गुना बेहतर हैं क्यूंकि नम्पिळ्ळै पूरी तरह से भगवद् विषय में डूबे थे लेकिन सांदीपनि मुनि यह जानते हुए भी कण्णन एम्पेरुमान मुकुन्दन , मतलब मोक्ष प्रदाता हैं उनसे अपने मरे हुए संतान प्राप्त करने कि कामना करते हैं )

तमिल और संस्कृत के साहित्य पे इनके अपार ज्ञान के कारण व्यख्यान करते समय श्रोतगण को सम्मोहित करते थे । इन्हीं के बल तिरुवाय् मोळि को नई ऊँचाईयाँ प्राप्त हुई हैं और अरुळिचेयळ के अर्थ सभी को समझ आने लगे । तिरुवाय् मोळि के ६००० पडि व्याख्यान के आलावा अन्य ४ व्याख्यान में इनका कोई न कोई रिश्ता था

  • ९००० पड़ि मूल् ग्रन्थ नंजीयर् से रचित था लेकिन नम्पिळ्ळै ने सूक्ष्म दृष्टि और नए अर्थ विशेषों के साथ फिर से लिखा हैं ।
  • २४००० पड़ि पेरियवाच्छान् पिळ्ळै ने नम्पिळ्ळै के आदेश और उपदेश अनुसार रचना कियी हैं ।
  • ३६००० पड़ि वडक्कु तिरुविधि पिळ्ळै ने नम्पिळ्ळै के व्याख्यान को सुनकर रचना कियी हैं ।
  • १२००० पड़ि पेरियवाच्छान् पिळ्ळै के शिष्य वादि केसरि अळगीय मणवाळ जीयर् ने लिखा हैं और अर्थ विशेष पे गौर करने से कह सकते हैं कि यह ग्रन्थ नम्पिळ्ळै के ३६००० पड़ि को अनुगमन करता हैं ।

यही नहीं नम्पिळ्ळै ने अपनी अपार कारुण्य के साथ सम्प्रदाय के दो कीर्तिमान स्तम्बो की स्थापना की हैं – पिळ्ळै लोकाचार्यर् और अळगीय मणवाळ पेरुमाळ नायनार् जिन्होंने पूर्वाचार्य से प्रसादित ज्ञान से क्रमानुसार श्री वचन भूषण और आचार्य हृदय को प्रदान किया हैं । यह चरित्र अपने अगले अनुच्छेद में देखेंगे (वडक्कु तिरुविधि पिळ्ळै)।

nampillai-pinbhazakiya-perumal-jeer-srirangam

नम्पिळ्ळै – पिण्बळगिय् पेरुमाळ जीयर् – श्री रंगम

नम्पिळ्ळै अपने चरम तिरुमेनि को श्री रंगम में छोड़कर परम पद प्रस्थान हुए । उस अवसर पर नाडुविळ तिरुविधि पिळ्ळै भट्टर् अपने पूरे सिर के केश मुण्डन करवाते हैं (शिष्य गण और पुत्र केश मुण्डन करते हैं जब पिता या आचार्य परम पद प्रस्थान होते हैं ) और जब उनके भाई नंपेरुमाळ से शिकायत करते हैं कि कूर कुल में पैदा होने के बावज़ूद उन्होंने ऐसा बर्ताव किया तब नंपेरुमाळ भट्टर् को उनके सामने उपस्थिति का आदेश देते हैं और भट्टर् विवरण से कहते हैं कि उनके कुटुम्ब सम्बन्ध से भी नम्पिळ्ळै से उनके सम्बन्ध को वे अधिक महत्व देते हैं । यह सुनकर नंपेरुमाळ बहुत खुश हो जाते हैं ।

आईये नम्पिळ्ळै के चरण कमलो का आश्रय ( शरण ) लेते हुए प्रार्थना करे कि हम भी उन्ही कि तरह एम्पेरुमान और आचार्य के प्रति प्रेम प्राप्त हो ।

नम्पिळ्ळै तनियन्:

वेदान्त वेद्य अमृत वारिरासेर्वेदार्थ सारा अमृत पुरमाग्र्यम् |
आधायवर्षन्तमहं प्रपद्ये कारुण्य पूर्णम् कलिवैरिदासं ||

अपने अगले अनुच्छेद में वडक्कु तिरुविधि पिळ्ळै के बारे में जानेंगे ।

अडियेन् इन्दुमती रामानुज दासि

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नन्जीयर

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

पूर्व अनुच्छेद मे हमने ओराण्वळि के अन्तर्गत आचार्य “पराशर भट्टरर्” के बारें मे चर्चा की थी । आगे बढ़ते हुए अब हम ओराण्वळि के अन्तर्गत अगले आचार्य ( नन्जीयार ) के बारें मे चर्चा करेंगे ।

तिरुनक्षत्र : फालगुनि मास उत्तर फालगुनि नक्षत्र

अवतार स्थाल : तिरुनारायण पुरम् ( मेलुकोटे )

आचार्य : पराशर भट्टर

शिष्य : नम्पिळ्ळै, श्री सेनाधिपति जीयर इत्यादि

परमपद प्रस्थान : श्रीरंग

रचना : तिरुवाय्मोऴि 9000 पडि व्याख्यान , कन्निनुन् शिरुत्ताम्बु व्याख्यान , तिरुप्पावै व्याख्यान , तिरुवन्दादि व्याख्यान, शरणगति गद्य व्याक्यान , तिरुप्पल्लाण्डु व्याख्यान, रहस्य त्रय विवरण ( नूट्ट्टेट्टु नामक ग्रन्थ ) इत्यादि

नन्जीयर माधवर के रूप मे जन्म लेकर अद्वैत तत्वज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान बने । भविष्यकाल मे श्री पराशर भट्टर की असीम कृपा से वह नन्जीयर के नाम से प्रसिद्ध हुए और वह निगमान्त योगी और वेदान्ति के नाम से भी जाने गए ।

श्रीमाधवर अद्वैत तत्वज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान थे जिन्का निवास स्थान तिरुनारायणपुरम (मेलुकोटे) था । एम्पेरुमानार ( श्री रामानुजाचार्य ) की इच्छा थी की माधवर का परिवर्तन/सुधार हो और अद्वैततत्वज्ञान का त्याग कर श्रीविशिष्टाद्वैत को स्वीकार कर भगवान श्रीमन्नारायण की सेवा मे संलग्न हो । इसी सदिच्छा से श्री पराशरभट्टर को तिरुनारायणपुरम जाकर माधवर को सुधारने का आदेश देते है । श्रीगुरुपरम्परा के आधार पर यह स्पष्ट है की माधवर अद्वैतिन होने के बावज़ूद भी श्री रामानुजाचार्य को उनके प्रती सम्मान/आदर था ।

माधवर ने भी भट्टर के कई किस्से सुने और भट्टर से मिलने मे बहुत उत्सुक थे । भगवान की असीम कृपा से उन दोनो का सम्मेलन वादविवाद से शुरू हुआ और अन्ततः माधवर पराजित होकर भट्टर के शिष्य बन गए । वादविवाद के पश्चात , माधवर के घर आसपास के अन्य श्रीवैष्णव पहुँचते है और माधवर को परिवर्तित देखर आश्चर्यचकित हो जाते है । उसी दौरान भट्टर से वादविवाद मे पराजित पाकर , भट्टर से विनम्र भावना से माधवर कहते है आप श्रीमान श्रीरंगम से अपने आचार्य के आदेशानुसार, अपने निज वैभव को छोड़कर, सामान्य पोशाक पेहनकर मुझे परिवर्तन करने हेतु मुझसे आप श्रीमान ने वादविवाद किया .. इसी कारण मै आपका शुक्रगुज़ार/आभारि हूँ और आप श्रीमान बताएँ की अब मै क्या करूँ । श्रीभट्टर उनके विनम्रता से प्रसन्न होकर कहा माधवर तुम अरुळिच्चेयल् (दिव्यप्रभंध) , सत्साम्प्रदाय के ग्रन्थो मे निपुणता प्राप्त करो और फिर श्रीरंगम चले गए ।

श्रीमाधवर अपनी सत्पत्नियों की (उनके) कैंकर्य के प्रति प्रतिकूल व्यवहार से, आचार्यसंभन्ध के वियोग मे, परेशान/असंतुष्ट होकर संयास लेने की इच्छा से अपने आचार्य की सेवा करने हेतु श्रीरंगम चले गए । जाने से पेहले अपना धनसंपत्ति दोनो बिवियों को बराबर बाँट कर (शास्त्र कहता है संयास लेने से पेहले बिवियों का देखभाल/खयाल/ध्यान रखने का इन्तेज़ाम करना चाहिए) । संयासाश्रम स्वीकार कर माधवर श्रीरंगम की ओर निकल पडे । उनके यात्रा के दौरान, उनकी भेंट श्री अनन्ताळ्वान से हुई । श्री अनन्ताळ्वान ने उनसे संयासाश्रम लेने का कारण जाना और माधवर से कहा वह तिरुमंत्र मे पैदा हो (आत्मस्वरूपज्ञान को समझे), द्वयमंत्र मे फलेफूले (एम्पेरुमानपिराट्टि) की सेवा मे संलग्न हो और भट्टर की सेवा करे तो अवश्य एम्पेरुमान उनको मोक्ष प्रदान करेंगे । भट्टर माधवर की उत्कृष्ट आचार्यभक्ति और निष्टा से प्रसन्न होकर उनको स्वीकार कर नम्जीयरसे सम्भोधित करते है और तबसे नम्जीयर के नाम से प्रसिध्द हुए ।

भट्टर और नन्जीयर आचार्यशिष्य संभन्ध के उपयुक्त/आदर्शस्वरूप उदाहरन है क्योंकि नन्जीयर सब कुछ छोड़कर अपने आचार्य की सेवा मे जुट गए । भट्टर अपने शिष्य नन्जीयर को तिरुक्कुरुगै पिरान्पिळ्ळान् के 6000 पाडि व्याख्यान ( जो तिरुवाय्मोळि पर आधारित है ) सिखाए । भट्टर के निर्देशानुसार नन्जीयर ने तिरुवाय्मोळि पर 9000 पाडि व्याख्यान की रचना किए । नन्जीयर की विशेषता यह थी की उन्होने अपने सौ वर्षों के जीवनकाल मे तिरुवाय्मोळि पर सौ बार प्रवचन दिए ।

नन्जीयर का आचार्यभक्ति असीमित थी । उनके जीवन मे संघटित कुछ संघटनों पर विशेष दर्शन प्रस्तुत है ।

एक बार भट्टर अपनी पालकी पर सवार हुए थे तब नन्जीयर अपने एक भुज पर त्रिदण्ड रखे हुए आचार्य की पालकी को अपने दूसरे भुज से सहारा दिए । तब भट्टर नन्जीयर से कहे – “जीया, यह व्यवहार तुम्हारे संयासाश्रम के लिए शोभदायक नही है और तुम्हे मुझे इस प्रकार सहारा नही देना चाहिए। यह सुनकर नन्जीयर कहते है अगर मेरा त्रिदण्ड आपकी सेवा मे बाधा है तो मै अभी इसी वक्त इस दण्ड को तोडकर अपने संयास का त्याग कर दूंगा ।

एक बार नन्जीयर के कुछ अनुचर (एकांगि) श्रीभट्टर के आगमन से उनके बगीचे मे मची उपद्रव को लेकर नन्जीयर से शिकायत किए । नन्जीयर ने कहा यह बगीचा उनके आचार्य की सेवा के लिए है नाकि भगवान की सेवा के लिए और आगे से यह बात को अच्छी तरह ध्यान मे रखते हुए उनकी सेवा करें ।

आचार्य अपना मस्तक शिष्य के गोद मे रखकर सोने का व्यावहारिक प्रथा पौरानिक काल से प्रचलित है । इसी संदर्भ मे एक बार श्री भट्टर नन्जीयर के गोद मे बहुत देर तक सो गए । जब भट्टर की निद्रावस्था सम्पूर्ण हुई उन्हे तब एहसास हुआ की उस दौरान नन्जीयर स्थितप्रज्ञ / निश्चल रहे । उनकी निश्चलता और दृढ़ता को देखर श्रीभट्टर ने उन्हे वापस द्वयमहामंत्र का उपदेश फिर से किया ।

नन्जीयर बहुत जल्दि अरुळिच्चेयल् सीखकर अरुळिच्चेयल् मे निपुण हो गए । हर रोज़ भट्टर नन्जीयर से अरुळिच्चेयल् पाशुरों को सुनकर उनका गूढ़ार्थ सुस्पष्ट अप्रत्यक्ष सुन्दर तौर से प्रस्तुत किया करते थे । एक बार नन्जीयर तिरुवाय्मोळि के 7.2.9 पाशुर को एक बार मे ही सुना दिया । यह सुनकर भट्टर मूर्छित हो गए और जब भट्टर मूर्छित अवस्था से उठे, उन्होने कहा की यह वाक्य पूर्ण तरह से पढ़कर सुनाना चाहिए और इसे पढ़ते वक्त इसका विच्छेद कदाचित नही करना चाहिए क्योंकि विच्छेद से वाक्य तात्पर्य

नन्जीयर के अरुळिच्चेयल् निपुणता को भट्टर हमेशा प्रसंशनीय मानते थे क्योंकि नन्जीयर तो संस्कृत के विद्वान थे जिन्की मातृभाषा तमिळ नहीं थी ।

भट्टर और नन्जीयर के बींच मे चित्ताकर्षक दिलचस्प वार्तालाप होते रहते थे । हलांकि संस्कृत विद्वान होने के बावज़ूद नन्जीयर हमेशा निश्चित रूप से अपने संदेहो का स्पष्टीकरण समाधान अपने आचार्य भट्टर से पाते थे । अब वही वार्तालाप का संक्षिप्त वर्णन भगवद्बन्धो के लिए प्रस्तुत है

  • नन्जीयर भट्टर से पूछते है क्यों सारे आळ्वार भगवान श्रीकृष्ण के प्रती आकर्शित थे, उसका क्या कारण है ? भट्टर इसका उत्तर कुछ इस प्रकार देते है जैसे साधारण मानव/मनुष्य हाल ही मे घटित संघटनो को याद रखते है उसी प्रकार आळ्वारों ने अभीअभी अवतरित भगवान श्री कृष्ण और उन्की लीलाओं के प्रती विशेष आकर्शन था । इसके अलावा कुछ आळ्वारों का अविर्भाव भगवान श्री कृष्ण के समय मे हुआ परन्तु भगवान से मिल नही पाए और इस कारण भी वह सारे आकर्शित थे ।
  • भट्टर समझाते हुए नन्जीयर से कहते है भगवान श्री कृष्ण गोप कुल ( नन्द कुल ) मे पैदा हुए । भगवान श्री कृष्ण जहा भी गए उनका सामना मामा कंस ने असुरनुचरों से हुआ और कई तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे कब श्री कृष्ण आए और कब वह उनका संहार करें । हलांकि स्वाभिक रूप से श्री कृष्ण उतने सक्षम नही की वह असुरों का संहार करे (यानि श्री कृष्ण तब शिशोरवस्था/बाल्यवस्था मे थे) परन्तु इसके विपरीत मे देखे तो भगवान के भूतपूर्वअवतार श्री रामावतार मे भगवान श्रीराम अस्त्रशस्त्र विद्या सीखें, उनके पिता राजा दशरथ भी अस्त्रशास्त्र मे निपुण थे और यही निपुणता उन्होने इन्द्र को सहायता देकर साबित किए, भगवान श्री राम के भाई लक्ष्मण, भरत, शऋघ्न भी भलिभाँन्ति अस्त्रशस्त्र विद्या से परिचित और निपुण थे यह सब सोचकर श्री पेरियाळ्वार सदैव श्री कृष्ण भगवान के लिए चिन्ताग्रस्त और व्याकुल रहते थे .. इसी कारण वह भगवान के खुशहालि के लिए प्रार्थना किया करते थे और यह स्पष्ट रूप से उनके तिरुमोळि मे उन्होने दर्शाया है ।
  • कलियन् (तिरुमंगैयाळ्वार) अपने तिरुमोळि के अन्त पाशुरों के इस ओरु नाल् शुट्ट्रम्पाशुर मे कई दिव्यदेशों का मंगलशाशन करते है । नन्जीयर भट्टर से इस पाशुर मे कलियन् द्वारा किए गए मंगलशाशन के विषय पर संदेह प्रकट करते है । भट्टर तब कहते है जैसे एक विवाहित स्त्री अपने सखासखीयों, रिश्तेदारों से मिलकर बिदा लेती है उसी प्रकार कलियन् इस भौतिक जगत मे स्थित दिव्यदेशों के एम्पेरुमानों का दर्शन पाकर उनका मंगलाशाशन करके श्रीधाम की ओर प्रस्थान हुए ।
  • नन्जीयर भट्टर से पूछते है क्यों भक्त प्रह्लाद जो धनसंपत्ति मे कदाचित भी रुचि नही रखते थे उन्होने अपने पोते महाबलि को यह श्राप दिया – “तुम्हारा सारा धनसंपत्ति का विनाश होगा अगर तुम भगवान का निरादर करोगे। इस पर भट्टर ने कहा जिस प्रकार एक कुत्ते को अगर दंड देना हो तो उसका मैला/गंदा खाना उससे दूर कर दिया जाता है उसी प्रकार का दंड प्रह्लाद ने अपने पोते को दिया ।
  • नन्जीयर भट्टर से वामन चरित्र के संदर्भ मे कुछ इस प्रकार पूछते है क्यों महाबलि पाताल लोक गए ? क्यों शुक्राचार्य की एक आँख चली गई ? भट्टर इसके उत्तर मे कहते है शुक्राचार्य ने महाबलि को उनके धर्म कार्य करने से रोका और अपना आँख गवाए । श्री बलि महाराज ने अपने आचार्य की बात / सदुपदेश नही माने और अतः उन्हे दंड के रूप मे पाताल लोक जाना पडा ।
  • नन्जीयर पूछते है प्रिय भट्टर कृपया बताएँ क्यों श्री रामचन्द्र के पिताजी श्री दशरथ जो भगवान का वियोग सह नही पाऐ और प्राण त्यागने पर उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई ? भट्टर इसके उत्तर मे कहते है श्री दशरथ को केवल सामान्यधर्म (सच बोलने का धर्म) के प्रती लगाव था और पिता होने के बावज़ूद उन्होने उन्के संरक्षण का धर्म त्याग दिया इस कारण उन्हे तो नरक प्राप्त होना चाहिए परन्तु भगवान के पिता का भूमिका निभाने के कारण उन्हे स्वर्ग की प्राप्ति हुई ।
  • नन्जीयर पूछते है भट्टर कृपया कर बताएँ क्यों वानर राजा सुग्रीव, विभीषण को स्वीकार करने मे संकोच कर रहे थे हलांकि विभीषण तो श्री रामचन्द्र के भक्त थे । इसके उत्तर मे भट्टर कहते है जिस प्रकार भगवान श्री राम अपने शरणागत भक्त श्री विभीषण को स्वीकार करने और उनके संरक्षण के इच्छुक थे उसी प्रकार राजा सुग्रीव के शरणागत मे आए हुए भगवान को संरक्षण दे रहे थे और उन्हे चिंता थी की विभीषण कहीं भगवान को हानि न पहुँचाए ।
  • नन्जीयर भट्टर से पूछते है जब भगवान श्रीकृष्ण अपने दुष्ट मामा कंस का उद्धार करके अपने मातापिता (देवकिवसुदेव) से मिले, तब अत्यन्त वात्सल्य भाव मे मग्न होने से उनकी माता देवकि के स्तन भर गए । भगवान श्रीकृष्ण ने यह कैसे स्वीकार किया ? इस पर श्री भट्टर ने गम्भीरतारहित बताया यह एक माँ और बेटे के बींच का संबन्ध है । इसके विषय मे आगे भट्टर ने कहा जिस प्रकार भगवान ने पूतना ( जो भगवान को विषपूरित स्तन दूध से मारना चाहती थी ) को माँ स्वरूप स्वीकार किया उसी प्रकार भगवान ने माँ देवकि के इस वात्सल्य भाव को स्वीकार किया ।
  • भट्टर ययाति के जीवन चरित्र को अपने उपन्यास के दौरान समझाते है । यह उदाहरण के तौर पर समझाने के पश्चात नन्जीयर भट्टर से पूछते है यह चरित्र का उद्देश्य क्या है स्वामि ? भट्टर यह चरित्र के उदाहरण से भगवान श्रीमन्नारायण (एम्पेरुमान) के विशेष स्थान और महत्ता/श्रेष्ठता को दर्शाते हुए समझाते है कि भगवान अपने प्रपन्न भक्तों को कम से कम साम्याप्ति मोक्ष देने मे सक्षम है और इसके विपरीत मे अन्य देवता अन्य प्राणि (जिसने सौ अश्वमेध यज्ञ पूरा किया हो) को अपने योग्य कदाचित भी स्वीकार नही कर सकते और किसी ना किसी तरह के षडयंत्र से अन्य देवता जीव को स्वर्ग के प्रति असक्षम बनाकर उसे इस भौतिक जगत मे ढकेलते है ।

अनुवादक टिप्पणि ययाति सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पूर्ण करने के पश्चात स्वर्ग मे प्रवेश करने का अधिकार पाकर स्वर्ग के अधिपति इन्द्र के सिंहासन के सहभागी हुए । परन्तु इन्द्र और अन्य देवता यह सहन नही कर पाए और एक षडयंत्र के माध्यम से ययाति को वापस इस भौतिक जगत के प्रति उकसाकर ययाति को भव सागर मे ढकेल दिया ।

कहते है ऐसे कई चिरस्स्मरणीय वार्तालाप है जिन्मे दिव्यप्रबंध (अरुळिच्चेयळ्) और शास्त्रों के गुप्त गूडार्थों का संक्षिप्त निरूपण है । यही वार्तालाप के आधार पर नन्जीयर ने दिव्यप्रबंधो पर अपनी निपुणता से विशेष टिप्पणि प्रस्तुत की और इसी का स्पस्टीकरण उन्होने उनके शिष्यों के लिये प्रस्तुत किया ।

नन्जीयार दिव्यप्रबंधो पर आधारित अपनी टिप्पणि के (जो नौ हज़ार पाडि व्याख्यान से प्रसिद्ध है) प्रतिलिपि को हस्तलिपि (पाण्डुलिपि) के रूप मे प्रस्तुत करना चाहते थे । इस कार्य के योग्य सक्षम व्यक्ति श्री नम्बूर वरदाचार्य हुए और वरदाचार्य ने यह कार्य सम्पूर्ण किया । कार्य संपूर्ण होने के पश्चात नन्जीयर ने उन्हे श्री नम्पिळ्ळै का नाम दिया और यही नम्पिळ्ळै हमारे सत्साम्प्रदाय के अगले दर्शन प्रवर्त हुए । वरदाचार्य की व्याख्यान को नन्जीयार अत्यधिक प्रसंशा करते थे जब वो नन्जीयार से भी अति उत्तम रूप मे गुप्तगुडार्थों को प्रस्तुत किया करते थे । यह नन्जीयर के उदारशीलता को दर्शाता है ।

नन्जीयार कहते थे वह व्यक्ति तभी श्रीवैष्णव होगा अगर वह दूसरे श्रीवैष्णव के दुख को समझने के काबिल हो और यह जानकर दुखित हो । यह सद्भावना और सम्मान नन्जीयार को अपने काल के आचार्य और सभी श्रीवैष्णवों के प्रति था ।

नन्जीयर अपने अन्त काल के दौरान रोगग्रस्त हुए । उस अवस्था मे उनकी भेंट पेत्त्रि नामक स्वामि हुई । अरयर स्वामि (पेत्त्रि) ने नन्जीयार से पूछा स्वामि मै आप की क्या सेवा कर सकता हूँ ? नन्जीयार ने व्यक्त किया वह श्री तिरुमंगै आळ्वार द्वारा विरचित पेरियतिरुमोळि के तीसरे दशम का छटा पासुर सुनना चाहता हूँ । नन्जियर कहते है कि वह इस पदिगम को सुन्ने की इच्छा व्यक्त करते है जो तिरुमन्गै आळ्वाऱ का एम्पेरुमान के लिये संदेश है (आळ्वाऱ ने उन प्रथम ४ (4) पासुरो द्वारा अपने संदेश  एम्पेरुमान् को व्यक्त किये परन्तु उसके पश्चात  उनके कमज़ोरी के कारण उस संदेश को पूर्ण तरह से व्यक्त नही  कर सके) –  अरयर स्वामी नम्पेरुमाल के सामने इस प्रसंग का ज़िक्र करते है जिसे सुनकर नन्जीयर भावुक हो जाते है । नन्जीयर उनके अन्तकाल मे एम्पेरुमान से निवेदन करते है कि वह उनके स्वयम तिरुमेनि मे प्रकट हो और नम्पेरुमाल उन्की यह इच्छा को सम्पूर्ण करते है। नन्जीयर उस घटना से संतृष्ट होकर अपने शिष्यो को कई अन्तिम उपदेश देते है और अपने चरम तिरुमेनि को त्याग कर परमपदम को प्रस्थान हुए।