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An Introduction of shrI vaiShNava guruparamparA

पराशर भट्टर्

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

पूर्व अनुच्छेद मे हमने ओराण्वळि के अन्तर्गत आचार्य “एम्बार” के बारें मे चर्चा की थी । आगे बढ़ते हुए अब हम ओराण्वळि के अन्तर्गत आचार्य ( पराशर भट्टरर्) के बारें मे चर्चा करेंगे ।

तिरुनक्षत्र : वैशाख मास , अनुराध नक्षत्र

अवतार स्थाल : श्री रंगम

आचार्य : एम्बार

शिष्य :नन्जीयर

परमपद प्रस्थान: श्री रंगम से

रचना : अष्ट स्लोकि , श्री रंग राजा स्तव , श्री गुण रत्न कोष , भगवद गुण दर्पण( श्री विष्णु सहस्रा व्याख्यान ), श्री रंग राजा स्तोत्र

पराशर भट्टर् कूरत्ताळ्वान् और आण्डाळ के सुपुत्र हैं । श्री पराशर भट्टर् और श्री वेदव्यास भट्टर् (दोनो भाई) श्री पेरिय पेरुमाळ और श्री पेरिय पिराट्टि की विशेष अनुग्रह से और उनके द्वारा प्रदान किया गया महा प्रसाद से इस भौतिक जगत मे प्रकट हुए।

एक बार श्री कूरत्ताळ्वान् भिक्षा मांगने [उंझा वृत्ति] हेतु घर से निकले परंतु बारिश की वजह से खालि हाथ लौटे।आण्डाळ और आळवांन् बिना कुछ पाये खाली पेट विश्राम कर रहे थे | विश्राम के समय मे उनकी पत्नी श्री आण्डाळ को मंदिर के अंतिम भोग की घंटी की गूंज सुनाई देती है। तब श्री आण्डाळ भगवान से कहती है – “यहाँ मेरे पती जो आपके बहुत सच्चे और शुध्द भक्त है जो बिना कुछ खाए ही भगवद-भागवद कैंकर्य कर रहे हैं दूसरी ओर आप स्वादिष्ट भोगों का आनंद ले रहे है यह कैसा अन्याय है स्वामि”। कुछ इस प्रकार से कहने के पश्चात चिंताग्रस्त पेरियपेरुमाळ अपना भोग उत्तमनम्बि के द्वारा उनके घर पहुँचाते है। भगवान का भोग उनके घर आते हुए देखकर कूरत्ताळ्वान् आश्चर्यचकित हो गए। उन्होने तुरंत अपनी पत्नी की ओर मुडकर पूछा – क्या तुमने भगवान से शिकायत किया की हमे अन्न की व्यवस्था करें ? यह पूछने के पश्चात, आण्डाळ अपनी गलती स्वीकार करती है और कूरत्ताळ्वान् इस विषय से नाराज/अस्तव्यस्त हो गये क्योंकि उनकी पत्नी ने भगवान को प्रसाद देने से निर्दिष्ट किया। घर आए हुए भगवान के प्रसाद का अनादर न हो इसीलिये कूरत्ताळ्वान् दो मुट्टी भर प्रसाद ग्रहण करते है और स्वयम थोडा खाकर शेष पत्नी को देते है। यही दो मुट्टी भर प्रसाद उन्हे दो सुंदर बालकों के जन्म का सहकारी कारण बना।

जब  वेदव्यास भट्टर् और पराशर भट्टर् ११ दिन के थे तब एम्बार् से उन्हें  दिव्य महामंत्र का उपदेश मिलता हैं और एम्पेरुमानार् उन्हें आदेश देते हैं की वे उन बालको का आचार्य स्थान ले । एम्पेरुमानार् के आदेशानुसार आळ्वान् अपने सुपुत्र पराशरभट्टर् को भगवान [श्री पेरियपेरुमाळ और श्री पेरियपिराट्टि] के दत्तत पुत्र के रूप मे सौंपते है | श्री रंग नाच्चियार् खुद अपनी सन्निधि में उनकी  पालन- पोषण करती थी |

जब पराशर भट्टर् युवा अवस्था में थे तब एक दिन पेरियपेरुमाळ को मंगला शासन करने मंदिर पहुँचते हैं । मंगला शासन करके बाहर आने के बाद उन्हें देखकर एम्पेरुमानार् अनंताळ्वान् और अन्य श्री वैष्णव से कहते हैं जिस तरह उन्हें मान सम्मान देकर गौरव से पेश आ रहे हैं उसी तरह भट्टर् के साथ भी बर्ताव करे |

भट्टर् बचपन से ही बहुत होशियार थे । इनके जीवन के कुछ संघटन इस विषय को प्रमानित करते हैं I

  • एक बार भट्टर् गली में खेल रहे थे उसी समय सर्वज्ञ भट्टर् के नामसे जाने वाले एक विद्वान पाल्की में विराजमान होकर वहाँ से गुजर रहे थे। श्री रंगम में इस तरह एक मनुष्य पाल्की में विराजित होने का दृश्य देखकर भट्टर् आश्चर्य चकित हो गये, फिर सीधे उनके पास पहुँचकर उन्हें वाद – विवाद करने की चुनौती देते हैं । सर्वज्ञ भट्टर् उन्हें सिर्फ एक छोटे बालक की दॄष्टि से देखते हैं और उन्हें ललकारते हैं की वे उनके किसी भी प्रश्न का जवाब दे सकते हैं।भट्टर् एक मुट्टी भर रेत लेकर उनसे पूछते है – क्या आप बता सकते है कि मेरे इस मुट्टी मे कितने रेत के कनु है ? सर्वज्ञ भट्टर् प्रश्न सुनकर हैरान हो जाते हैं और उनकी बोलती बंद हो जाती हैं । वे कबूल् कर लेते हैं कि उन्हें उत्तर नहीं पता हैं| भट्टर् उनसे कहते हैं कि वे उत्तर दे सकते थे कि एक मुट्टी भर रेत उनकी हाथ में हैं ।सर्वज्ञ भट्टर् उनकी प्रतिभा को देखकर आश्चार्य चकित हो जाते हैं और तुरंत पाल्की से उतरकर उन्हें अपने माता-पिता के पास ले जाकर गौरवान्वित करते हैं |
  • यह घटना भट्टर् के गुरुकुल के समय की थी । उस दिन भट्टर् गुरुकुल नहीं गए और सड़क पे खेल रहें थे । उन्हें रास्ते पर खेलते हुए पाकर आळ्वान् आश्चर्य चकित होकर उनसे गुरुकुल न जाने का कारण पूछते हैं । उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि “प्रति दिन गुरुकुल में एक हि पाठ पढ़ाई जा रही हैं ” आमतौर से एक पाठ १५ दिन पढ़ाई जाती हैं । लेकिन भट्टर् पहली ही बार पाठ का ग्रहण कर चुके थे । आळ्वान् ने उनकी परिक्षा की और भट्टर अति सुलभ से पाशुर् पठित किये ।
  • एक दिन जब आळ्वान् उन्हें तिरुवाय्मोळि के नेडुमार्कडिमै पदिग़ पढ़ा रहे थे तब “सिरुमा-मनिसर” पद प्रयोग का सामना करते हैं | उस समय भट्टर् पूछते हैं – क्या यह परस्पर विरोध नहीं हैं कि एक हि मनुष्य बड़े और छोटे हैं। आळ्वान् समझाते हैं कि कुछ श्री वैष्णव जैसे मुदलियाण्डान, अरुलाळ पेरुमाळ एम्पेरुमानार इत्यादि शारीरिक तौर से छोटे हैं लेकिन उनका मन और ज्ञान बहुत ही विशाल हैं । यह जवाब सुनकर भट्टर् प्रसन्न हो जाते हैं ।

बड़े होने के बाद भट्टर् संप्रदाय के दर्शन प्रवर्तक बने। भट्टर विनम्रता और उदारता जैसे विशिष्ट गुणो से परिपूर्ण थे और अरुळिचेयल के अर्थ विशेष के महा रसिक थे । कई व्याख्यानो में नंपिल्लै इत्यादि आचार्य महा पुरुष उद्धरण करते हैं कि भट्टर् का दृष्टिकोण सबसे विशेष हैं ।

आळ्वान् के जैसे ही भट्टर् तिरुवाय्मोळि के अर्थ विशेष में निमग्न होते थे । व्याख्यान में ऐसे कई घटनाये दर्शायि गई हैं । कई बार जब आळवार् परांकुश नायिका के भाव में गाते हैं तब भट्टर् बतलाते हैं कि उस समय आळवार् के मन की भावनाओं को कोई भी समझ नहीं सकते हैं ।

ऐसे कई घटनाये हैं जिससे भट्टर् कि विनम्रता , उदारता , प्रतिभा इत्यादि गुण दर्शायि गयी हैं ।मणवाळ मामुनिजी अपने यतिराज: विंशति में भट्टर कि विनम्रता का प्रशंसा करते हुए आळ्वान और आळवन्दार् से तुलना करते हैं । वास्तव में सब व्याख्यान ग्रन्थ भट्टर् के चरित्र के संघटनो से और उनके अनुदेशों से परिपूर्ण हैं ।

  • श्री रंग राज: स्तवं में ,भट्टर् अपने जीवन में घटित एक घटना बतलाते हैं । एक बार पेरिय कोविल में  एक कुत्ते का प्रवेश होता हैं । अर्चक स्वामि कोविल को शुद्ध करने के लिए एक छोटा संप्रोक्षण करने की ठान लेते हैं । यह सुनकर भट्टर् दौड़कर पेरिय पेरुमाळ के पास पहुँचते है और कहते हैं कि वे प्रतिदिन कोविल में प्रवेश करते हैं परंतु कोई भी संप्रोक्षण नहीं करते लेकिन जब एक कुत्ते का प्रवेश होता हैं तब क्यों संप्रोक्षण कर रहे हैं ।इस प्रकार की थी उनकी विनम्रता – वे स्वयं महान पंडित होने के बावज़ूद अपने आप को कुत्ते से भी नीच मानते हैं ।
  • उसी श्री रंग राज:स्तवं में बतलाते हैं कि वे देवलोक में एक देवता जैसे पैदा होने से भी श्री रंग में एक कुत्ता का जन्म लेना पसंद करते हैं ।
  • एक बार नंपेरुमाळ के सामने कुछ कैंकर्यपर (कार्यकर्ता ) भट्टर् की उपस्थिति न जानते हुए ईर्ष्या से उन्हें डाँट रहे थे । उनकी बाते सुनकर ,भट्टर् उन्हें अपनी शाल और आभरण से सम्मानित किये । उन्हें धन्यवाद करके बतलाते कि हर एक श्री वैष्णव को दो काम जरूर करनी चाहिए – एम्पेरुमान् के गुणो की कीर्तन करना , खुद के दोषों और अपराधो से चिन्तित होना [पर शोक / विलाप / रञ्ज व्यक्त करना] । मैं एम्पेरुमान् के गुणानुभव में मग्न हो गया था और मेरे दोषों के बारे में बिलकुल भी सोच नहीं रहा था अतः आप लोगों ने मेरा काम करके मुझे आपका आभारी बना दिया । इसी कारण आप को सम्मान करना मेरा धर्मं हैं । ” भट्टर् कि उदारता इतनी उच्च स्थिति कि थी ।
  • कई श्री वैष्णव भट्टर् के कालक्षेप गोष्टी में भाग लेते थे । एक दिन भट्टर् एक श्री वैष्णव की प्रतीक्षा कर रहे थे जिन्हे शास्त्र का ज्ञान बिलकुल भी नहीं था । कालक्षेप गोष्टि के अन्य विद्वान उनसे प्रतीक्षा करने का कारण पूछते है और भट्टर् कहते है – हलाकि यह श्रीवैष्णव को शास्त्रों का ज्ञान नही है परन्तु वह परम सत्यज्ञान से भलि-भांति परिचित है और उन्हे इसका आभास भी है । अपनी बात साबित करने के लिए ,वे एक विद्वान को बुलाकर उनसे पूछते हैं कि उपाय क्या हैं ? विद्वान उत्तर देते हुए कहते हैं कि शास्त्र में कई उपाय जैसे कर्म , ज्ञान, भक्ति योग के बारे में चर्चा की गयी हैं । बाद में पूछते हैं कि उपेय क्या हैं ? विद्वान जवाब देते हैं कि ऐसे कई उपेय हैं जैसे ऐश्वर्य , कैवल्य ,कैंकर्य इत्यादि । विद्वान का उत्तर सुनकर भट्टर कहते हैं कि विद्वान होने के बावजूद आपको स्पष्टता नहीं हैं । श्री वैष्णव के आगमन के पश्चात् भट्टर् उन्हें भी वही सवाल पूछते हैं तब श्री वैष्णव उत्तर देते हैं कि एम्पेरुमान् ही उपाय और उपेय हैं । भट्टर् कहते हैं यही हैं एक श्री वैष्णव का विशिष्ट निष्ठा और इसी कारण इनके लिए प्रतीक्षा की गई है ।
  • श्री सोमाजी आणडान् भट्टर् से तिरुवाराधन करने की विधि पूछते हैं । भट्टर उन्हें विश्लेष रूप से बताते हैं । एक बार वे भट्टर् के पास पहुँचते हैं । उस समय भट्टर् प्रसाद पाने के लिए तैयार हो रहे थे तब उन्हें याद आता हैं कि उन्होंने उस दिन का तिरुवाराधन प्रक्रिया पूर्ति नहीं किया हैं । उनके शिष्य से अपने तिरुवाराधन पेरुमाळ को लाने के लिए कहते हैं । अपने पेरुमाळ को भोग चढ़ाकर , प्रसाद पाना शुरू करते हैं । सोमाजी आणडान् उनसे प्रस्न करते हैं कि उन्हें क्यूँ एक विश्लेष् तिरुवाराधन का क्रम बताई गई हैं जब वे एक छोटी सी तिरुवाराधन प्रक्रिया से पूर्ति करते हैं । भट्टर् उत्तर देते हुए कहते हैं कि उनसे एक छोटी तिरुवाराधन प्रक्रिया भी सहन करने कि क्षमता नहीं हैं क्यूंकि जब वे तिरुवाराधन कर रहे होते हैं तब ख़ुशी से भावुक हो कर मूर्छ हो जाते हैं लेकिन सोमाजी आणडान् को विश्लेष् तिरुवाराधन की प्रक्रिया भी पर्याप्त नहीं हो सकती क्यूंकि उन्हें सोम याग जैसे बड़े बड़े याग करने की आदत हैं |
  • एक समय श्री रंगम में उरियड़ी उत्सव मनाया जा रहा था । उस समय अचानक से वेद पारायण गोष्टी में रहने वाले भट्टर् ग्वालों के गोष्टी में मिल जाते हैं । किसीने इसका कारण पूछा तब वे बताने लगे की उस दिन एम्पेरुमान् का विशेष अनुग्रह ग्वालो पर होगा (क्यूंकि यह पुरपाड़ उन्ही के लिए मनाया जा रहा था )। और यह उचित होगा कि हम वहाँ रहे जहाँ एम्पेरुमान् का अनुग्रह प्रसारित हो रहा हैं ।
  • एक बार अनन्ताळवान् भट्टर् से पूछते हैं कि परमपदनाथन् को दो हाथ होंगे या चार? भट्टर् उत्तर देते हुए कहते हैं कि कुछ भी सम्भव हो सकता हैं । अगर दो हाथ होंगे तो पेरिय पेरुमाळ की तरह और यादि चार हाथ हो तो नंपेरुमाळ की तरह सेवा देंगे ।
  • अम्माणि आळवान् बहुत दूर का रास्ता काटकर उनके दर्शन पाने के लिए आते हैं । उनसे विनती करते हैं कि कुछ अच्छे विषय उन्हें अनुग्रह कर । भट्टर् तिरुवायमोळि के नेडुमार्केडिमै पडिघम(१० पाशुर का समूह ) उन्हें समझाते हैं और कहते हैं कि भगवान को जानना थोडा सा प्रसाद पाने की बराबर हैं और भगवान के भक्त भागवतों को जानना भर पूर पेट भर प्रसाद पाने की बराबर हैं ।
  • एक राजा भट्टर् की ख्याति जानकर उनके पास आते हैं और उनसे कहते हैं कि आर्धिक रूप से सहायता के लिए उन्हें मिले। भट्टर् कहते हैं चाहे नंपेरुमाळ का अभय हस्त दूसरी ओर मुड़ क्यूँ न जाए तब भी वे किसी के पास सहायता के लिए नहीं जायेंगे ।
  • अमुदनार स्वयं को भट्टर् से भी महान मान रहे थे । (क्यूंकि उन्हें कूरताळवान से गुरु -शिष्य का सम्बंध हैं बल्कि भट्टर् को कूरताळवान से पिता -पुत्र का सम्बंध हैं ) । भट्टर् उनसे कहते हैं वास्तव में यह सच हैं लेकिन वे खुद इस विषय को सूचित करना उचित नहीं हैं ।
  • एक समय किसी ने भट्टर् से प्रश्न किया कि दूसरे देवी और देवताओं के प्रति एक श्री वैष्णव को कैसे पेश आना चाहिए । इसे सुनकर भट्टर् कहते हैं कि प्रश्न ही गलत हैं । यह पूछो की श्री वैष्णव के प्रति देवी और देवताओं को कैसे पेश आना चाहिए । देवी और देवता रजो और तमो गुण से भरे हुए रहते हैं और श्री वैष्णव सत्व गुण से रहते हैं और इसी कारण यह सहज सिद्ध हैं कि वे श्री वैष्णव के अनु सेवी हैं । (यह दृष्टान्त कूरताळवान् के जीवित चरित्र में भी बताया जाता हैं )
  • भट्टर् सीमा रहित यश के प्राप्त थे । उनकी माताजी जो स्वयं महान विद्वान थी पुत्र का श्री पाद तीर्थ सेवन करती थी । इस के बारे में प्रश्न किया गया तो वे बताते थे कि एक मूर्तिकार मूर्ति बनाता हैं और जब उस मूर्ती एम्पेरुमान् की तिरुमेनी बन जाती हैं तब वो मूर्ति मूर्तिकार से भी आराधनीय हो जाती हैं । इसी तरह भट्टर् उनके गोद से जन्म क्यूँ न लिए हो वे एक महान आत्मा हैं और पूजनिय हैं ।
  • एक समय दूसरे देवी और देवताओ के भक्त की धोती आकस्मिक तौर से भट्टर् को छू जाती हैं । एक बड़े विद्वान होने के बावजूद दूसरे देवताओ के भक्त की एक छोटी सी स्पर्श उन्हें बेचैन कर गयी । वे दौड़ कर उनकी माता के पास पहुंचकर उनसे तक्षण कर्तव्य के बारे में पूछा । उनकी माताजी ने बताया की केवल एक अब्राह्मण श्री वैष्णव की श्री पाद का तीर्थ लेने से ही इसका प्रायश्चित किया जा सकता हैं । ऐसे एक श्री वैष्णव की पताकर कर उनसे श्री पाद तीर्थ विनती करते हैं । भट्टर् की स्थाई जानकार वे निराकार कर देते हैं । भट्टर् उनपे ज़ोर डालकर तीर्थ सम्पादित कर लेते हैं ।
  • एक बार कावेरी नदि के किनारे मंडप में तिरुआळवट्ट( फाँका ) कैंकर्य कर रहे थे । सूर्यास्त के समय आने पर शिष्य गण उन्हें याद दिलाते हैं कि संध्या वंदन करने का समय आ गया हैं । तब भट्टर् समझाते हैं कि वे नंपेरुमाळ के आंतरंगिक कैंकर्य( गुप्त सेवा ) में रहने के कारण चित्र गुप्त(यम राज के सहायक )इस छूटे हुए संध्या वंदन को गिनती में नहीं लेंगे । अळगीय पेरुमाळ नायनार इसी सिद्धांत को अपने आचार्य ह्रदय में समझाते हैं कि ” अत्तानि चेवगत्तिल पोतुवानतु नळुवुम “। इसे उदहारण बताते हुए नित्य कर्मा के आचरण न करते दूरदर्शन एवं अन्य विषय में समय वेतित नहीं करना चाहिए ।
  • अध्ययन उत्सव के समय में आण्डाळ अपने पुत्र भट्टर् को द्वादशि के दिन पारना करने की याद दिलाती हैं । भट्टर् कहते हैं कि पेरिया उत्सव के समय हमे आखिर कैसे याद आएगा कि यह एकादशि हैं या द्वादशि ? इसका मतलब यह हुआ कि भगवद अनुभव करते समय भोजन के बारे में आलोचन नहीं करना चाहिए । कई लोग इसका अर्थ गलत तरीके से समझते हैं और कहते हैं कि एकादशी के दिन उपवास रखना जरूरी नहीं हैं लेकिन वास्तव में एकादशी उपवास अपना कर्तव्य हैं ।
  • एक दिन भट्टर् अपने शिष्य गण को उपदेश देते हैं कि हमें अपने शरीर पे अलगाव और शारीरिक अलंकरण पे अनिष्ट बढ़ाना चाहिए । लेकिन दुसरे हि दिन वे रेशम का कपडा पहनकर सज़-धज लेते हैं । उनकी शिक्षा और आचरण का अंतर का कारण शिष्य पूछते हैं तब भट्टर् बतलाते हैं कि वे अपने शरीर को एम्पेरुमान् का वास स्थल – कोविल आळ्वार मानते हैं । जिस तरह मंडप – जिस में एम्पेरुमान् केवल थोड़ी ही देर आसीन होते हैं को अलंकरण किया जाता हैं , उसी तरह उन्होंने अपने शरीर को अलंकरण किया हैं । उनकी तरह अगर हम भी ऐसा दृढ़ विश्वास / निष्टा बना ले तब हम भी अपने शरीर को अनेक रूप में अलंकरण कर सकते हैं ।
  • वीर सुन्दर ब्रह्म रायन जो उस प्रांत के राजा और आळवान् के शिष्य थे एक दीवार बनाना चाही तब पिळ्ळै पिळ्ळै आळवान् की तिरुमालिगै (घर ) को नष्ट / आकुल करना चाहा क्यूंकि उनका घर दीवार निर्माण करने में बाधा डाल रही थी । भट्टर् राजा को आदेश करते हैं कि आळवान् के घर को कुछ भी न किया जाए लेकिन राजा उनकी आदेशों का निरादर कर देते हैं । भट्टर् श्री रंगम छोड़कर तिरुकोष्टियूर् जा पहुँचते हैं और कुछ समय बिताते हैं । श्री रंगनाथन से जुदाई उन्हें सहन नहीं हो रही थी और दुःख सागर में डूब गए थे । राजा के चल पड़ने पर भट्टर् श्री रंगम लौट गए और लौटने के रास्ते में श्री रंगा राजा स्तव की रचना की ।
  • तर्क-वितर्क में भट्टर् थोड़े विद्वानो को हरा देते हैं । विद्वान भट्टर् के खिलाफ चाल चलना चाहा । शर्प को एक घड़े में रखकर उनसे पूछ घड़े में क्या हो सकता हैं । भट्टर् समझ जाते हैं और कहते हैं की घड़े में एक छत्री हैं । उनकी जवाब सुनकर विद्वान आस्चर्य हो जाते हैं । भट्टर् समझाते हैं कि पाईगै आळ्वार ने कहा हैं कि “चेनड्राल कुडयाम… ” शर्प (आदि सेशन) एम्पेरुमान् की छत्री हैं ।

उनके जीवित चरित्र में ऐसे कई मनोरंजनीय चिरस्मरणीय घटनाये हैं जिन्हे याद करने से हर पल आनंदमय हो जाता हैं ।

भट्टर् को अपनी माता श्री रंगा नाचियार से बहुत लगाव था । पेरिया पेरुमाळ से भी अधिक प्रेम उन पर था । एक बार श्री रंगनाथजी ने नाचियार के जैसे श्रृंगार हो कर भट्टर से पूछने लगे यदि वोह नाचियार की तरह लग रहे हैं । भट्टर् उन्हें गौर से देखकर कहने लगे सब कुछ ठीक हैं लेकिन नाचियार के आँखों में जो दय दिखती हैं वोह उनकी आँखों में नहीं हैं ।यह घटना हमें रामायण में हनुमानजी ने श्री रामजी और सीता मय्या के आँखों की तुलना करने की याद दिलाती हैं । वर्णन करते हुए वे बताते हैं कि सीता मय्या के आँखा श्री रामा एम्पेरुमान् से भी सुन्दर हैं और उन्हें असितेक्षणा (सुन्दर आँख) कहके सम्बोध करते हैं । न्

अर्थ समझने के लिए मुश्किल पशुरों को भट्टर ने अद्भुत रूप से विवरण दिया हैं । जिनमे से कुछ हम इधर देखेंगे
१. पेरिया तिरूमोळि ७. १. १. करवा मदणगु पशुर में पिळ्ळै अमुदनार विवरण देते हैं कि एम्पेरुमान् एक बछडे की तरह और आळ्वार् गाय की तरह हैं । जिस तरह माता पशु अपने संतान के लिए तरसति हैं उसी तरह एम्पेरुमान् के लिए आळ्वार् तरस रहे हैं । भट्टर इसका अर्थ अलग दृष्टिकोण में बताते हैं जो पूर्वाचार्या ने बहुत सराय हैं । भट्टर् कहते हैं कि “करवा मादा नागु तान कन्ड्रु ” मिलकर पढ़ना चाहिए जिससे यह अर्थ प्राप्त होती हैं कि जैसे एक बछड़ा अपनी माता के लिए तरसता हैं उसी तरह आळ्वार् एम्पेरुमान् के लिए तरस रहे हैं ।
२ पेरिया तिरूमोळि ४.४.६ व्याख्यान में बताया जाता हैं कि अप्पन तिरुवळुंतूर अरयर और अन्य श्री वैष्णव भट्टर् से प्रार्थना करते हैं कि इस पाशुर् का अर्थ उन्हें समझाए । भट्टर् उन्हें पाशुर् पढने के लिए कहते हैं और फौरन बताते हैं कि यह पाशुर् आळ्वार् ने रावण के रूप में गाया हैं । यहाँ भट्टर् बताते हैं कि रावण (अपने अहंकार से ) कह रहा हैं कि “मैं तीनो लोकों का सम्राट हुँ और एक सामान्य राजा समझ रहा हैं कि वह एक महान योद्धा हैं और मुझे युद्ध में हरा देगा “- लेकिन आखिर में श्री राम एम्पेरुमान् के हाथो में हार जाता हैं ।

तिरुनारायणपुरम जा कर नंजीयर् को तर्क-वितर्क में हराना भट्टर् के जीवित चरित्र में एक मुख्य विषय मानी जाती हैं ।यह एम्पेरुमानार् की दिव्या आज्ञा थी कि वे नंजीयर् को सुधार कर उन्हें अपने संप्रदाय में स्वीकार करे । माधवाचार्यर् (नंजीयर का असली नाम ) से सिद्धान्त पे वाद करने के लिए भट्टर् अपने पालकी में बैठकर बहुत सारी श्री वैष्णव गोष्टी लेकर तिरुनारायणपुरम पहुँचते हैं । लेकिन उन्हें सलाह दिया किया के वे उस तरह शानदारी तौर से जाने पे माधवाचार्यर् के शिष्य उन्हें टोकेंगे और माधवाचार्यर् से उनकी मुलाकात विलम्ब करेंगे या हमेश के लिए नहीं मिलने देंगे और वोह लाभदायक नहीं होगा । सलाह उचित मानकर उन्होंने अपना सामान्य वेश धारा में बदलकर माधवाचार्यर् के तदियाराधना (प्रसाद विनियोग करने वाला प्रदेश )होने वाले महा कक्ष के पास पहुँचते हैं । बिना कुछ पाये उसी के पास निरीक्षण कर रहे थे । माधवाचार्यर् ने इन्हे देखा और पास आकर इनकी इच्छा और निरीक्षण का कारण जानना चाहा । भट्टर् कहते हैं कि उन्हें उनसे वाद करना हैं । भट्टर् के बारे में माधवाचार्यर् पहले सुनचुके थे और वे पहचान लेते हैं कि यह केवल भट्टर् ही हो सकते हैं (क्यूंकि किसी और को उनसे टकरार करने कि हिम्मत नहीं होगी ) । माधवाचार्यर् उनसे वाद के लिए राज़ी हो जाते हैं । भट्टर पहले तिरनेडुंदांडकम् की सहायता लेकर एम्पेरुमान की परत्वता की स्थापना करते हैं तत्पश्चात शास्त्रार्ध समझाते हैं । माधवाचार्यर् हार मानकर भट्टर् के श्री पद कमलों को आश्रय मान लेते हैं और उन्हें अपने आचार्य के स्थान में स्वीकार करते हैं । भट्टर् उन्हें अरुळिचेयल सीखने में विशिष्ट उपदेश देते हैं और सम्प्रदाय के विशेष अर्थ समझाते हैं । अध्यायन उत्सव शुरू होने के पहले दिन उनसे विदा होकर श्री रंगम पहुँचते हैं । श्री रंगम में उन्हें शानदार से स्वागत किया गया । भट्टर् पेरिया पेरुमाळ को घटित संघटनो के बारे में सुनाते हैं । पेरिया पेरुमाळ खुश हो जाते हैं और उन्हें उनके सामने तिरनेडुंदांडकम् गाने की आदेश देते हैं और यह रिवाज़ आज भी श्री रंगम में चल रहा हैं – केवाल श्री रंगम में ही अध्यायन उत्सव तिरनेडुंदांडकम् पढ़ने के बाद ही शुरू होता हैं ।

भट्टर् रहस्य ग्रन्थ को कागज़ाद करने में पहले व्यक्ति हैं । इनसे रचित अष्टस्लोकी सर्वोत्कृष्ट रचना हैं जिसमे तिरुमंत्र , द्वय मंत्र और चरम श्लोक केवल आठ स्लोकों में विशेष रूप से समझाई गई हैं । इनके श्री रंग राजा स्तव में अति क्लिष्ट शास्त्रार्थ अति सुलभ रीति से छोटे छोटे स्लोकों से समझाई गई हैं । श्री विष्णु सहस्रा नाम के व्याख्यान में बताते हैं कि हर एक तिरु नाम श्री महा विष्णु के प्रत्येक गुण को दर्शाता हैं । इसका विवरण अत्यंत सुन्दर रीति से कीया हैं । श्री गुण रत्न कोश श्री रांग नाचियार को अंकित हैं और इसके मुकाबले किसी भी ग्रन्थ सामान नहीं हैं ।

कई पूर्वाचार्य सौ से भी अधिक साल इस समसार में जीवन बिताये लेकिन  भट्टर् अति यौवन अवस्था में इस समसार को छोड़ दिए । कहा जाता हैं कि अगर भट्टर् और कुछ साल जीते तो परमपद को श्री रंगम से सीढ़ी डाल देते तिरुवाय्मोळी की व्याख्यान लिखने के लिए नंजीयर् को आदेश देते हैं और उन्हें दर्शन प्रवर्तकर् के स्थान में नियुक्त करते हैं ।

कुछ पाशुर् और उनके सृजनीय अर्थ पेरिय पेरुमाळ के सामने सुनाते हैं । पेरिय पेरुमाळ बहुत खुश हो जाते हैं और कहते हैं “तुम्हे इसी समय मोक्ष साम्राज्य प्रदान कर रहा हुँ ” । भट्टर् उनके वचन सुनकर बेहद खुश हो जाते हैं और कहते हैं कि अगर वे नंपेरुमाळ को परमपद में नहीं पाये तो परमपद में एक छेद बनाकर उधर से कूद कर वापस श्री रंगम आ पहुंचेंगे । अपने माताजी के पास जाकर इस विषय के बारे में बताते हैं । पुत्र की मोक्ष प्राप्ति के बारे में सुनकर बहुत खुश हो जाती हैं ।(सच में अपने पूर्वाचार्यों की ऐसी निष्टा थी – वे जीवन के निज उद्देश को  पूरी तरह से जान चुके थे ) कुछ श्रीवैष्णव भट्टर् से पूछने लगे अगर पेरिया पेरुमाळ ने आपको ख़ुशी से मोक्ष प्रदान करना चाहा आपने क्यूँ नहीं इंकार किया?हम यहाँ क्या कर सकते हैं ? संसार में और कई जीवात्मों को सुधारन हैं। कौन उन्हें सुधारेंगे ?भट्टर् उत्तर देते हुए कहते हैं कि मैं इस संसार में बस नहीं पाउँगा जिस तरह उत्तम गुणवत्ता का घी एक कुत्ते के पेट में हज़म नहीं हो सकती हैं उसी तरह इस समसार में रहने के लिए मैं ठीक नहीं हैं ।

भट्टर् अपने तिरुमालिगै को कई श्री वैष्णव को आमंत्रण करके शानदार सा तदियाराधन आयोजन करते हैं । पद्मासन में बैठकर तिरनेडुंदांडकम् को गाते एक बड़ी सी मुस्कान तिरुमुख में बनायीं रखे अपने चरम शरीर को छोड़कर परमपद प्रस्थान करते हैं । सभी लोग अश्रु मय हो जाते हैं और उनके चरम कैंकर्य करना शुरू कर देते हैं । आण्डाळ अम्मंगार अपनी पुत्र के चरम तिरुमेनी को ख़ुशी से गले लगाकर उन्हें विदा कर देती हैं । भट्टर् के जीवित चरित्र को पत्थर को भी पिगला देने की शक्ति हैं ।
हमें भी एम्पेरुमान् और आचार्यं के प्रति इन्ही की तरह लगाव प्राप्त करने के लिए भट्टर के श्री पाद पद्मों से प्रार्थना करे ।

तनियन :
श्री पराशर भट्टरया श्री रंगेस पुरोहिथ: ।
श्री वत्साण्क सुत: श्री मान श्रेयसे मेस्तु भूयसे ॥

अगले अनुच्छेद में नंजीयर के बारे में जानने की कोशिश करेंगे ।

अडियेंन इन्दुमति रामानुज दासि

source

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एम्बार्

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमद् वरवरमुनये नमः

श्री वानाचलमहामुनये नमः

पूर्व अनुच्छेद मे ओराण्वळि के अन्तर्गत आचार्य “एम्पेरुमानार्” के बारें मे चर्चा की थी । आगे बढ़ते हुए ओराण्वळि के अन्तर्गत आचार्य (एम्बार्) के बारें मे चर्चा करेंगे ।

एम्बार् – मधुर मंगलम

तिरुनक्षत्र : पुष्य मास पुनर्वसु

अवतार स्थल : मधुर मंगलम

आचार्य : पेरिय तिरुमलै नम्बि

शिष्य : पराशर भट्टर , वेदव्यास भट्टर

स्थान जहाँ से परमपदम प्रस्थान हुए : श्री रंगम

रचना : विज्ञान स्तुति , एम्पेरुमानार वडि वळगु पासुर (पंक्ति )

गोविन्द पेरुमाळ कमल नयन भट्टर् और श्री देवी अम्माळ को मधुरमंगलम में पैदा हुए । ये गोविन्द भट्टर, गोविन्द दासर और रामानुज पदछायर के नामों से भी जाने जाते हैं । कालान्तर में ये एम्बार् के नाम से प्रसिध्द हुए । ये एम्पेरुमानार के चचेरे भाई थे । जब यादव प्रकाश एम्पेरुमानार को हत्या करने की कोशिश की तब ये साधक बनकर  उन्हें मरने से बचाया ।

एम्पेरुमानार की रक्षा करने के बाद अपनी यात्रा जारी रखते हैं और कालहस्ती पहुँचकर शिव भक्त बन जाते हैं । उन्हें सही मार्ग दर्शन करने के लिए एम्पेरुमानार पेरिय तिरुमलै नम्बि को उनके पास भेज देते हैं । जब गोविन्द पेरुमाळ अपने पूजा के निमित्त फूल तोड़ने के लिए नन्दनवन पहुँचते हैं तब पेरिय तिरुमलै नम्बि तिरुवाय्मोळि पाशुर् “देवन् एम्पेरुमानुक्कल्लाळ् पूवुम् पुसनैयुम् तगुम्” सुनाते हैं । जिसका मतलब हैं की केवल एम्पेरुमान् श्रीमन् नारायण ही फूलों से पूजा करने के अधिकारी हैं और अन्य कोई भी देवता इस के लायक नहीं हैं । इसे सुनकर गोविन्द पेरुमाळ को तुरंत अपनी गलती का एहसास होता हैं और शिव के प्रति भक्ति छोड़कर पेरिय तिरुमलै नम्बि के आश्रित हो जाते हैं । पेरिय तिरुमलै नम्बि उन्हें पंच संस्कार करके सम्प्रदाय के अर्थ विशेष प्रदान करते हैं। उसके पश्चात अपने आचार्य पेरिय तिरुमलै नम्बि की सेवा में कैंकर्य करते हुए रह जाते हैं ।

एम्पेरुमानार पेरिय तिरुमलै नम्बि से तिरुपति में मिलते हैं और उनसे श्री रामायण की शिक्षा प्राप्त करते हैं । उस समय की कुछ घटनाओ से हमें एम्बार् की महानता मालुम पड़ती हैं । आईये संक्षिप्त में उन संघटनाओं को देखे :

१.गोविन्द पेरुमाळ अपने आचार्य पेरिय तिरुमलै नम्बि की शय्यासन तयार करने के पश्चात वे आचार्य से पहले खुद उसके ऊपर लेट जाते हैं । एम्पेरुमानार् इस विषय को तिरुमलै नम्बि को बताते हैं । जब गोविन्द पेरुमाळ को इसके बारे में पूछते हैं तब वे जवाब देते हैं की ऐसे कार्य करने से उन्हें नरक प्राप्त होना निश्चय हैं परन्तु उसके बारे में उन्हें चिंता नहीं हैं । उनके आचार्य की तिरुमेनि (शारीर) की रक्षा करने में वे चिंतामग्न हैं । इसी का वर्णन मामुनिगळ श्री सूक्ति में करते हैं ( तेसारुम् सिच्चन् अवन् सीर् वडिवै आसैयुडन नोक्कुमवन् )

२.एक बार गोविन्दपेरुमाळ सांप के मुह मे हाथ दालकर कुछ निकालने की कोशिश कर रहे थे और उसके पश्चात वह भाह्यशरीर शुद्धिकरण (नहाने) हेतु चले गए । एम्पेरुमानार यह दृश्य दूर से देखकर अचंभित रह गए । जब एम्पेरुमानार उनसे इसके बारे में पूछते है तब वे बताते हैं की सांप के मुँह में काटा था और इसी लिए वह काटे को निलाने की कोशिश कर रहे थे और अन्त मे निकाल दिया । उनकी जीव कारुण्यता को देखकर अभिभूत हो गए ।

३.एम्पेरुमानार जब तिरुमलै नम्बि से आज्ञा माँगते हैं तब उन्हें कुछ भेंट समर्पण करने की इच्छा व्यक्त करते हैं । एम्पेरुमानार उन्हें गोविन्द पेरुमाळ प्रसाद करने को कहते हैं । तिरुमलै नम्बि आनंद से गोविन्द पेरुमाळ को सोंप देते हैं और उन्हें समझाते हैं की एम्पेरुमानार को उन्ही की तरह सम्मान करें और गौरव से व्यवहार करें । कांचिपुरम पहुँचने के पहले ही गोविन्द पेरुमाळ अपने आचार्य से जुदाई सहन नहीं कर पाते हैं और वापस आचार्य के पास पहुँच जाते हैं । लेकिन तिरुमलै नम्बि उन्हें घर के अन्दर आने की इझाजत नहीं देते हैं और कहते हैं की उन्हें एम्पेरुमानार को दे दिया हैं और उन्हें उन्ही के साथ रहना हैं । आचार्य की मन की बात जानकर एम्पेरुमानार के वापस चले जाते हैं ।

श्री रंगम पहुँचने के बाद गोविन्द पेरुमाळ के माता की प्रार्थन के अनुसार उनके शादि की व्यवस्था करते हैं । गोविन्द पेरुमाळ अनिच्छा पूर्वक शादि के लिए राज़ी होते हैं । लेकिन उनके पत्नी के साथ दाम्पत्य जीवन में भाग नहीं लेते हैं । एम्पेरुमानार विशेष रूप से गोविन्दपेरुमाळ को उनकी पत्नी के साथ एकान्त मे समय व्यतीत करने का उपदेश देते है परन्तु गोविन्दपेरुमाळ उनके पास निराशा से लौटकर कहते है की उन्होने ऐसा कोई  एकान्त जगह या स्थल नही देखा या मिला क्योंकि उन्हे सर्वत्र एम्पेरुमान दिखाई दे रहे है ।

तुरन्त एम्पेरुमानार उनकी मानसिक परिस्थिति जानकर उन्हें सन्याश्रम प्रादान करते हैं और एम्बार् का दास्यनाम देकर उनके साथ सदैव रहने के लिए कहते हैं ।

एक बार कुछ श्रीवैष्णव एम्बार् की स्तुति कर रहे थे और श्रीएम्बार् उस स्तुति का आनन्द लेते हुए श्रीएम्पेरुमानार की नज़र मे आए । श्रीएम्पेरुमानार ने गौर करते हुए श्रीएम्बार् को बताया की प्रत्येक श्रीवैष्णवों को स्वयम को एक घास के तिनके के समान तुच्छ मानना चाहिए और कदाचित प्रशंशा स्वीकार नही करनी चाहिए । प्रत्येक श्रीवैष्णव तभी प्रशंशा के योग्य होंगे जब उनमे विनम्रता का आभास उनके व्यवहार मे प्रतिबिम्बित हो ।

उत्तर देते हुए वे कहते हैं की अगर किसी ने उनकी स्तुति की तो वोह स्तुति उन्हें नहीं बल्कि एम्पेरुमानार को जाती हैं क्योंकि एम्पेरुमानार ही वह एक मात्र व्यक्ति हैं जिन्होंने बहुत ही निचे स्तिथि में रहते उन्हें संस्कार किया हैं । एम्पेरुमानार उनके वचन स्वीकार करते हैं और उनकी आचार्य भक्ति की प्रशंसा करते हैं ।

एम्पेरुमान् के आपर कारुन्य और उनके दिए गए प्रसाद से आण्डाळ् को( कूरताल्वान् की पत्नी) दो शिशु पैदा हुए । एम्पेरुमानार् एम्बार् के साथ उनके नामकरण उत्सव को जाते हैं । एम्बार् से शिशुओ को लेकर आने का आदेश करते हैं । लेकर आते समय शिशुओ को रक्षा करने के लिए द्व्य महा मंत्र उन्हें सुनाते हैं । जब एम्पेरुमानार् उन्हें देखते हैं तब उन्हें तुरन्त एहसास होता हैं की एम्बार् ने उन शिशुओं को द्व्य महा मंत्र का उपदेश किया हैं ।एम्बार् को उनके आचार्य स्थान लेने का आदेश करते हैं । इस तरह वेद व्यास भट्टर् और पराशर भट्टर् एम्बार् के शिष्य बने ।

एम्बार् लौकिक विषय में इच्छा रहित थे । निरंतर केवल भगवद् विषय में जुटे रहते थे ।वे भगवद् विषय में महा रसिक ( आनंद / मनोरंजन चाहने वाले ) थे । कई व्याख्यान में एम्बार् के भगवद् विषय अनुभव के बारे में चर्चा की गयी हैं ।
कुछ इस प्रकार :

१. पेरियाळ्वार् तिरुमोळि के अंतिम पाशुर में “छायै पोला पाडवल्लार् तामुम् अनुकर्गळे ” का अर्थ श्री वैष्णव एम्बार् से पूछते हैं तब वे व्यक्त करते हैं की उस पाशुर का अर्थ उन्होंने एम्पेरुमानार् से शिक्षा प्राप्त नहीं किया हैं । उस समय वे एम्पेरुमानार् के श्री पाद अपने सिर पे धारण करके उनका ध्यान करते हैं । उसी समय एम्पेरुमानार् “पाडवल्लार् – छायै पोला – तामुम् अनुकर्गळे ” करके उस पाशुर का अर्थ प्रकाशित करते हैं जिसका मतलब हैं की जो कोई भी यह पाशुर पठन करेंगे वे एम्पेरुमान् के करीब उनकी छाया जैसे रहेंगे।

२. पेरियाळ्वार् तिरुमोळि २.१ का अभिनय उय्न्था पिल्लै अरयर् कर रहे थे तब वे बताते हैं कण्णन् एम्पेरुमान् अपने आँख डरावनी करके गोप बालकों को डराते थे । पीछे से एम्बार् अभिनय पूर्वक बताते हैं की कण्णन् एम्पेरुमान् अपने शँख और चक्र से गोप बालकों को डराते हैं । इसे अरयर् ध्यान में रखकर अगली बार एम्बार् के बताये हुए क्रम में अभिनय करते हैं । इसे देखकर एम्पेरुमानार् पूछते हैं ” गोविन्द पेरुमाळे इरुन्थिरो “(आप गोष्टि के सदस्य थे क्या ) क्यूंकि केवल एम्बार् को ही ऐसे सुन्दर अर्थ गोचर हो सकता हैं ।

३. तिरुवाय्मोळि(मिन्निडै मडवार् पदिगम् – ६.२ ) में आळ्वार् के हृदय में कण्णन् एम्पेरुमान् से विश्लेश का दुःख सन्यासी होते बाकी उन्हें ही अच्छी तरह समझ आगई । और वे उस विशेष पदिगम् ( १० पाशुर ) का अर्थ अद्भुत रूप से बता रहे थे उन्हें सुनकर श्री वैष्णव आश्चर्य चकित हो गए । इससे यह स्पष्ट होता हैं की एम्पेरुमान् का किसी भी विषय आनंददायिक हैं और अन्य किसी भी तरह के विषय त्याग करने के लायक हैं ।
इसी विषय को “परमात्मनि रक्तः अपरात्मानी विरक्तः ” कहा जाता हैं ।

४. तिरुवाय्मोळि (१० -२ ) के व्याख्यान में एक दिलचस्प विषय बताई जाती हैं । एम्पेरुमानार् अपने मट में तिरुवाय्मोळि के अर्थ विशेष को स्मरण करते हुए टहल रहे थे और पीछे मुड़कर देखे तो उन्हें एम्बार् दिखाई दिए । एम्बार् उन्हें दरवाज़े के पीछे रहकर देख रहे थे और एम्पेरुमानार् से पूछते हैं की क्या वे मद्दित्हें पाशुर के बारे में ध्यान कर रहे थे और उस विषय को एम्पेरुमानार् मान लेते हैं इससे पता चल रहा हैं की एक छोटी सी काम करने से ही उन्हें एम्पेरुमानार् की सोच के बारे में जानकारी हो जाती हैं ।

अंतिम समय पर पराशर् भट्टर् को आदेश देते की श्री वैष्णव सम्प्रदाय का प्रशासन श्री रंगम से कियी जाय । और ये भी सूचित करते हैं की वे निरंतर “एम्पेरुमानार् तिरुवडिगळे तन्जम्” (एम्पेरुमानार् के श्री पाद ही सोने के बराबर हैं ) कहके आलोचना करे ।एम्पेरुमानार् पे ध्यान करते हुए अपनी चरम तिरुमेनि (शरीर ) छोड़कर एम्पेरुमानार् के साथ नित्य विभूति में रहने के लिए परम पदम् प्रस्थान करते हैं ।

आईये हम भी उन्ही की तरह एम्पेरुमानार् और आचार्य के प्रति प्रेम पाने के लिए उनके श्री चरणों पे प्रार्थन करें ।

तनियन :
रामानुज पद छाया गोविन्दह्वा अनपायिन्ल
तद यत्त स्वरुप सा जियान मद विश्रामस्थले

अगले भगा में पराशर् भट्टर् की वैभवता जानने की कोशिश करेंगे ।

source

अडियेन इन्दुमति रामानुज दासि