पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर्

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

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नम्पिळ्ळै स्वामीजी का कालक्षेप गोष्टी- बाई ओर से दूसरे (पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर्)

nampillai-pinbhazakiya-perumal-jeer-srirangam

श्री नम्पिळ्ळै स्वामीजी के दिव्य चरणों मे पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर्, श्रीरङ्गम्

तिरुनक्शत्र – तुला, शतभिषक्
अवतार स्थल् – तिरुपुट्कुळि
आचार्यनम्पिळ्ळै
परमपद् प्राप्ती स्थल् – श्रीरन्गम्
लिखित् ग्रन्थ् – 6000 पडि गुरु परम्परा प्रभाव| इनको वार्ता माला के ग्रन्थकार भी कह्ते थे, पर इस सूचना में स्पष्टता नही है|

ये नम्पिळ्ळै के प्रिय शिष्य थे और पिन्बळगराम पेरुमाल् जीयर् के नाम से भी जाने जाते है| ये अपने 6000 पडि गुरु परम्परा प्रभाव मे हमारे आळ्वारों और आचार्यो के ऐतिहासिक जीवन का वर्णन करते हैं|जैसे नन्जीयर् (एक् सन्यासी) ने भट्टर् (एक गृहस्थ) कि सेवा की वैसे ही पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् (एक सन्यासी) ने नम्पिळ्ळै (एक गृहस्थ्) कि सेवा की|

एक बार जब पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् अस्वस्थ्य हुए, तब वे अन्य श्रीवैष्णवों को भगवान से उनके स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करने के लिये कहे- ये श्रीवैष्णव शिष्टाचार के विरुद्ध है|भगवान से किसी भी वस्तु की प्रार्थना नही करना चाहिये – अच्छे स्वास्थ्य के लिये भी नही|इस कारण नम्पिळ्ळै के शिष्य, उनको यह घटना बताते हैं, और पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् के इस आचरण का आशय पूछते हैं|नम्पिळ्ळै अपने शिष्यों को यह विषय पूर्णता से समझाने के लिये कुछ स्वामियों के पास भेजते हैं| उनमें से प्रथम थे, एङ्गळाळ्वान् जो शास्त्रो में निपुण थे| एङ्गळाळ्वान् स्वामीजी की राय थी कि “शायद वे श्रीरङ्गम् से अनुरक्त हैं और यहाँ से निकलने के लिये तैयार नही हैं| इसके पश्चात्, नम्पिळ्ळै अपने शिष्यों को तिरुनारायणपुरत्तु अरयर् के पास भेजते हैं| तिरुनारायणपुरत्तु अरयर् कहते हैं कि, “शायद पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् स्वामीजी का कोई अधूरा काम रह गया हो जिसको पूर्ण करने के लिये वे अपने जीवन को बढ़ाना चाहते हैं|” नम्पिळ्ळै इसके बाद शिष्यों को अम्मङ्गि अम्माळ् का अभिप्राय सुनने के लिये भेजते हैं| वे बताते हैं “नम्पिळ्ळै स्वामी के कालक्षेप गोष्ठी छोडने की इच्छा किसको होगी, पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् शायद इसी कारण अपने जीवन बढाने की इच्छा रखते हैं| “आखिर में नम्प्पिळ्ळै के कह्ने पर उनके शिष्य, पेरिय मुदलियार् से भी यह शंका पूछे| पेरिय मुदलियार् स्वामीजी का विचार था, ” नम्पेरुमाळ् के प्रति पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् स्वामी का अत्यंत प्रेम ही उनमें यहाँ ज़्यादा दिन ठहरने की अभिलाषा जागृत कर रहा है|”अन्त में नम्पिळ्ळै, पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् से ही प्रश्न करते हैं कि इन में से कोई भी विचार उनके मन के विचार से मिलते है या नहीं? इस प्रश्न का उत्थर देते हुए पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् कह्ते हैं “आपकी कृपा के कारण ही आप यह उत्थर मेरी जिव्हा से सुनना चाह्ते हैं, जब की आप मेरे मन की बात से अनभिज्ञ नहीं हैं| प्रति दिन आपके स्नान के समय आपके दिव्य स्वरूप का दर्शन प्राप्त होता है तथा आपको पंखा करने का कैंकर्य प्राप्त होता है|यह कैंकर्य त्याग कर अभी परमपद कैसे जाऊँ? इस तरह पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् एक शिष्य के सबसे महत्त्वपूर्ण विधी को प्रकट करते हैं, अथार्थ अस्मदाचार्य के दिव्य रूप से आसक्त रह्ना|यह सुनकर अन्य शिष्य, नम्पिळ्ळै के प्रति पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् के भक्ति को समझ कर स्तम्भित हुये |

नडुविल् तिरुवीधि पिल्लै भट्टर को नम्पिळ्ळै के शिष्य बनाने मे पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् ही उपकारी थे | यह घटना पूर्ण तरह से यहाँ दोहराया गया है | https://guruparamparaihindi.wordpress.com/2015/08/21/naduvil-thiruvidhi-pillai-bhattar/.

पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् से संबंधित यह घटना व्याख्यानों में प्रस्तुत है :

वार्तामाला पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् के जीवन की कुछ घट्नायें निम्न प्रस्तुत है|

  • 2- पिन्भळगिय जीयर्, नम्पिळ्ळै से एक बार स्वरूपम (जीवात्मा की प्रकृति), उपाय (साधन), उपेय (लक्ष्य) के विषयों में प्रश्न करते हैं| नम्पिळ्ळै उत्तर देते हैं कि, जीवात्मा कि चाहना स्वरूप है, भगवान कि दया उपाय और् माधुर्य उपेय है| जीयर् कह्ते हैं कि उनके विचार अलग है तब नम्पिळ्ळै पूछते हैं कि आपका सिद्धांत क्या कहता है| जीयर् ने कहा, ” आपके द्वारा दिए गए निर्देशों के आधार पर में ऐसा विचार करता हूँ; श्री वैष्णवों के शरण में प्रपत्ती करना ही मेरा स्वरूप है, हमारे प्रती उनका प्रेम ही उपाय है और् उनका आनन्द ही मेरा उपेय है”| यह् सुनकर नम्पिळ्ळै बहुत आनन्दित हुये| इस प्रकार जीयर अपने आचार्य के सामने “भागवत् शेषत्व” को प्रमाणित किया|
  • 69- पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर नम्पिळ्ळै से द्वय महामन्त्र के दिव्य अर्थों के विषय में पूछते हैं|नम्पिळ्ळै प्रतिपादन् करते हैं कि द्वयम् के प्रथम पद् में जीवात्मा स्वीकार् करती है कि श्रीमन्नारायण भगवान ही एकमात्र पुर्णतः उसके आश्रय् है और् दूसरे पद में जीवात्मा पिराट्टी (श्रीलक्ष्मीजी) के सन्ग् परमात्मा के कैंकर्य, सेवा करने की चाहत प्रकट् करती है और् प्रभु से विनती करती है कि यह् कैंकर्य केवल् भगवान् के भोग्य मात्र है, इसमें हमारा कण मात्र भी स्वार्थ नहीं है|जिन आचार्य के कारण शिष्यों में ऐसा गहरा विश्वास जागृत हुआ है, उन श्रीआचार्य के प्रति सदा कृतज्ञ रह्ना चाहिये| आगे जीयर् पूछते हैं कि, अगर् पिराट्टि निरन्तर् एम्पेरुमान् के ध्यान में ही लीन है, तो वे जीवात्माओं की सहायता कैसे करेंगी? नम्पिळ्ळै उत्तर देते हैं कि जैसे भगवान, निरंतर पिराट्टी के सौन्दर्य का आनंद लेते हैं, परंतु तब भी वे सृष्टि आदि का कार्य संभालते हैं, वैसे ही पिराट्टी भी भगवान के रूप में निरन्तर मग्न होते हुये भी पुरुषकारत्व-भूता होने के कारण सदा जीवात्माओं के पक्ष में एम्बेरुमान् से अनुग्रह करती रहती है|
  • 174 –नम्पिळ्ळै के सेवा खोने के भय से जीयर अपने स्वास्थ्य के हितार्थ प्रार्थना किये| इस घटन का उल्लेख इस लेख में देखा गया है|
  • 216- नडुविल् तिरुवीदिप्पिल्लै भट्टर्, पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् और् नम्पिळ्ळै के बीच के एक सुन्दर वार्तालाप का उल्लेख करते हैं| जीयर् का एक प्रश्न था कि, “प्रत्येक मुमुक्षु को आळ्वार की तरह होनी चाहिये (पूर्णत: भगवान पर निर्भर और उन्हीं का ध्यान सदा करने वाली)|पर हमें अभी भी सामान्य लौकिक अभिलाषाएं हैं|हमें कैसे वह प्रतिफल (परमपद में कैंकर्य प्राप्ती) मिलेगा?” नम्पिळ्ळै उत्थर देते हैं कि , “इस शरीर में आळ्वारो के तरह उन्नती न हो, फिर भी हमारी आचार्य के प्रति परिशुद्धता के कारण हमारी मृत्यु और् परमपद पहुँचने के अन्तर के समय में भगवान हमें भी वही अभिलाषाएं(आळ्वारो के जैसे) प्रदान करते हैं|परमपद पहुँचते समय हम परिशुद्ध हो चुके होंगे और केवल भगवान के निरन्तर कैंकर्य ही हमारी एकमात्र रूचि रहेगी.”
  • 332- पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् पूछते हैं, “जब किसी को कोई कष्ट होता है, तब एक् श्री वैष्णव से प्रार्थना करने पर  उसे उस कष्ट का निवारण मिलता है, तो क्या यह उस श्री वैष्णव की शक्ती से होता है या भगवान के शक्ती से है?” नम्पिळ्ळै उत्तर् देते हैं कि,” यह केवल भगवान की शक्ति से ही है”| आगे जीयर प्रश्न करते हैं, “तो क्या हमारे कष्टों के निवारण के लिए, हम स्वयं भगवान से प्रार्थना नहीं कर सकते?” नम्पिळ्ळै कह्ते हैं, “नहीं| भगवान से आग्रह, सदा एक श्रीवैष्णव के द्वारा ही करना चाहिये”| जीयर फिर प्रश्न करते हैं, “क्या ऐसा कोई द्रष्टांत है, जहाँ एक श्रीवैष्णव की इच्छा को भगवान ने पूरा किया हो?” इस प्रश्न के उत्थर में नम्पिळ्ळै महाभारत से एक चरित्र सुनाते हैं,” जब् अर्जुन ने सूर्यास्त के पह्ले, जयद्रत का वध करने की प्रतिज्ञा ली, सर्वेश्वर ने युद्ध में शस्त्र  ना उठाने की अपनी प्रतिज्ञा का त्याग किया और् सुदर्शन चक्र हाथ में लेकर सूर्य को छुपा दिया| यह देखकर जयद्रत बाहर आया, तब तुरन्त् भगवान सुदर्शन चक्र को अपने पास लौटाकर स्पष्ट किये कि सूर्य अस्तमन नहीं हुआ है, और अर्जुन जयद्रत् का वध कर सका| इस चरित्र से हम समझ सकते हैं कि भगवान एक श्री वैष्णव के शब्द को निभाते हैं और इस कारण हमें भगवान का एक श्री वैष्णव के द्वारा ही आग्रह करना चाहिये”|

इस प्रकार पिन्भळगिय पेरुमाळ जीयर के यशश्वी जीवन के कुछ झलक हमें प्राप्त हुई| वे उत्तम विद्वान और् नम्पिळ्ळै के अति प्रिय शिष्य थे| उनके चरण कमलों में हम प्रार्थना करे कि हमें भी उनकी अंश मात्र  भागवत निष्ठा की प्राप्ति हो|

पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर् के तनियन् :

ज्ञान वैराग्य सम्पूर्णम् पश्चात् सुन्दर देशिकम् |
द्राविडोपनिषद् भाष्यतयिनम् मत् गुरुम् भजे ||

-अदियेन् प्रीति रामानुजदासी

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तिरुमलिसै अण्णावप्पंगार

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

thirumazhisaiazhwar

श्री भक्तिसार

तिरुनक्ष्त्र: ज्येष्ठ, धनिष्ठा

अवतार स्थल:  तिरुमलिसै

आचार्य: नरसिम्हाचार्य (उनके पिताश्री)

तिरुमलिसै (महिसार क्षेत्रं) में जन्मे, उनके पिता नरसिम्हाचार्य द्वारा उनका नाम वीरराघवन रखा गया। उनका जन्म श्री दाशरथि स्वामीजी के प्रसिद्ध वादुल वंश में हुआ था। उन्होंने भक्तिसारोदयं नामक अपने स्तोत्र ग्रंथ में स्वयं अपने पितामह श्रीरघुवाराचार्यजी के विषय में बताया है। उन्हें वादुल वीरराघवाचार्य नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म वर्ष 1766 ए.डी में हुआ था।

वे बहुत विद्वान् थे और 15 वर्ष की आयु तक उन्होंने स्वयं की यजुर्वेद शाकै के साथ तर्कं, व्याकरणं, मीमांसा, सांख्यं, पतंजलि योगं आदि की शिक्षा पूर्ण की और ज्योतिष, संगीत , भारत नाट्यम आदि में पारंगत हुए। 20 वर्ष की आयु तक, वे सभी शास्त्रों में पारंगत और अधिकृत हो गए थे। उन्होंने रहस्य ग्रंथ आदि की शिक्षा अपने पिताश्री से प्राप्त की और हमारे सत संप्रदाय के महत्वपूर्ण सिद्धातों की स्थापना के लिए व्याख्यान देना प्रारंभ किया। उन्होंने वादुल वरदाचार्य और श्रीरंगाचार्य (जिन्होंने विभिन्न दिव्यदेशों की यात्रा की और वहां चर्चा में बहुत से छद्म विद्वानों को पराजित किया) के सानिध्य में भी शिक्षा प्राप्त की।

वे 51 वर्षों के अल्प समय के लिए लीलाविभुती में रहे और फिर ईश्वर वर्ष, अश्विन मास, शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को परमपद के लिए प्रस्थान किया।

पिल्लै लोकाचार्य के श्रीवचन भूषण के श्री वरवरमुनि स्वामीजी के व्याख्यान ले लिए अरुमपदम (विस्तृत व्याख्यान) उनकी महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है। उनका अन्य ग्रंथ, भक्तिसारोदयं, तिरुमलिसै आलवार के जीवन का बहुत सुंदरता से वर्णन करता है।

रचनायें:

अपने अल्प जीवन में, उन्होंने बहुत से साहित्यिक रचनाओं का योगदान किया। उनकी रचानों की सूचि निम्न है:

  1. श्री भक्तिसारोदयं
  2. वेदवल्ली शतकम्
  3. हेमलताष्टकम्
  4. अभीष्ट दंडकम्
  5. सुक संदेशं
  6. कमला कल्याण नाटकं
  7. मलयजपरिणय नाटिका
  8. नृसिम्हाष्टकम्
  9. श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के श्रीवचन भूषण व्याख्यान के लिए अरुमपदम् विवरण
  10. तिरुच्चंत विरुत्त प्रतिपदम्
  11. श्रीरंगराज स्तव व्याख्यान
  12. महावीरचरित व्याख्या
  13. उत्तररामचरित व्याख्या
  14. सतश्लोकी व्याख्या
  15. रामानुजाष्टकम् व्याख्या
  16. नक्षत्रमालिका व्याख्या
  17. देवराजगुरू विरचित वरवरमुनिशतक व्याख्या
  18. दुशकरश्लोक टिपण्णी
  19. दिनचर्या
  20. शणमत दर्शिनी
  21. लक्ष्म्या: उपायत्व निरास:
  22. लक्ष्मीविभुत्व निरास:
  23. सूक्तिसाधुत्वमाला
  24. तत्वसुधा
  25. तत्वसार व्याख्या- रत्नसारिणी
  26. सच्चरित्र परित्राणं
  27. पलनदै विलक्कम
  28. त्रिमसतप्रश्नोत्तरं
  29. लक्ष्मीमंगलदीपिका
  30. रामानुज अतिमानुष वैभव स्तोत्रं
  31. अनुप्रवेश श्रुति विवरणं
  32. “सैलोग्निश्च” श्लोक व्याख्या
  33. महीसारविषय चूर्णिका
  34. ‘स्वान्ते मे मदनस्थितिम परिहार’ इत्यादि श्लोक व्याख्यान
  35. सच्चर्याक्ष्कम्
  36. प्राप्यप्रपंचन पञ्चविंशति:
  37. न्यायमंत्रम्
  38. तात्पर्य सच्च्रिकरम
  39. वचस्सुतामीमांसा
  40. वचस्सुतापूर्वपक्षोत्तारम
  41. ब्रह्मवतवतंगम
  42. लक्ष्मीस्तोत्रं
  43. वर्णापञ्चविंशति:

इस तरह हमने तिरुमलिसै अण्णावप्पंगार के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे एक महान विद्वान् थे और उन्होंने हमारे सत संप्रदाय के हितार्थ बहुत से साहित्यिक रचनाओं का योगदान किया। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी भगवत विषय में उनके अंश मात्र ज्ञान की प्राप्ति हो।

तिरुमलिसै अण्णावप्पंगार की तनियन:

श्रीमद् वादुल नरसिम्ह गुरोस्थनुजम्,
श्रीमत् तदीय पदपंकज भृंगराजम् ।
श्रीरंगराज वरदार्य कृपात्त भाष्यं,
सेवे सदा रघुवरार्यं उदारचर्यं ।।

-अदियेन् भगवति रामानुजदासी

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