तोन्डरडिप्पोडि आळ्वार

श्री:

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री वानाचल महामुनये नमः

thondaradipodi-azhwar-mandangudi

तिरुनक्षत्र : मार्गशीर्ष मास – ज्येष्ठा नक्षत्र

आवतार स्थल : तिरुमण्डंगुडि

आचार्यं : श्रीविष्वक्सेन स्वामीजी

ग्रंथ रचना सूची : तुरुमालै, तिरुपळ्ळियेळ्ळुच्चि

परमपद प्रस्थान प्रदेश : श्रीरंगम

आचार्य नन्जीयर/वेदांती स्वामीजी, अपने  तिरुपळ्ळियेळ्ळुच्चि के व्याख्यान की अवतारिका में “अनादि मायया सुप्तः” प्रमाण से साबित करते है कि आळ्वार संसारी (बद्धजीव) थे (अनादि काल से अज्ञान के कारण सँसार में निद्रावस्था में थे) और एम्पेरुमान (भगवान श्रीमान्नारायण) ने उन्हें जागृत किया (उन्हें परिपूर्ण ज्ञान से अनुग्रह किया) है। उसके बाद पेरियपेरुमाळ (श्रीरंगनाथ) योगनिद्रा में चले जाते है और आळ्वार उन्हें उठाने की चेष्ठा करते है और भगवान से प्रार्थना करते है कि उन्हें कैंकर्य प्रदान करे।

आचार्य पेरियवाच्छान पिळ्ळै, तिरुपळ्ळियेळ्ळुच्चि के व्याख्यान की अवतारिका में आळ्वार के पाशुरों द्वारा ही उनकी वैभवता को प्रकाशित करते है। भगवान के दिव्य परिपूर्ण कृपा से जागृत आळ्वार, स्वरूप ज्ञान प्राप्त कर, पेरियपेरुमाळ के पास जाते है| आपश्री यह पाते है कि भगवान आपश्री का स्वागत, कुशल क्षेम नहीं पूछते है, अपितु आँख बन्द किये लेटे हुए है। इससे यह नहीं समझना चाहिए की भगवान को आळ्वार के ऊपर श्रद्धा नही है (संबंध रहित) क्यूँकि आळ्वार और भगवान को एक दूजे के प्रति बहुत लगाव है। हम यह भी नहीं कह सकते की भगवान अस्वस्थता के कारण शयन किये हुए है क्यूँकि इस प्रकार के दोष केवल भौतिक तत्व के अंग है, जो तमो गुण से परिपूर्ण है, लेकिन पेरियपेरुमाळ भौतिक तत्व से परे आलौकिक शुद्धसत्व है और इसमें कोई संशय नहीं है। पेरियपेरुमाळ शयन अवस्था में सोच रहे है की जैसे उन्होंने आळ्वार को सुधार कर निम्न गुणों से अनुग्रहित किया, उसी प्रकार कैसे सँसारियों को सुधार कर अनुग्रह करें।

  • आळ्वार कहते हैं “आदलाल् पिरवि वेन्डेन्” मतलब इस सँसार में मैं पैदा होना नहीं चाहता हुँ – इससे यह साबित होता हैं की उन्हें यह ज्ञात हैं की प्रकृति सम्बन्ध एक जीवात्मा के लिए सही नहीं हैं ।
  • आळ्वार को स्वरूप यथात्म्य ज्ञान (आत्मा का निजस्वरुप) अर्थात भागवत शेषत्व का परिपूर्णज्ञान है क्यूँकि वे कहते हैं “ पोनगम शेयद सेशम् तरुवरेल पुनिदम” जिसका मतलब हैं श्रीवैष्णव का शेषप्रसाद (झूठा किया गया प्रसाद ) ही श्रेष्ठमहाप्रसाद है।
  • इन्हें साँसरिक विषय भोग और आध्यात्मिक विषयों का भेद ज्ञान स्पष्ठ रूप से है क्यूँकि वे कहते हैं “ इच्चुवै तविर अच्चुवै पेरिनुम वेण्डेन” – मतलब हैं मेरे लिए पेरिय पेरुमाळ (भगवान) के सिवा कोई भी चीज़ अनुभव के योग्य नहीं हैं।
  • आळ्वार कहते हैं “ कावलिल पुलनै वैत्तु ” मतलब अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण करना, इससे यह पता चलता हैं की वे इन्द्रियों को जीत कर अपने वश में उन्हें रखा हैं ।
  • आळ्वार कहते हैं “ मून्नु अनलै ओम्बुम कुरिकोल अणदंण्णमै तन्नै ओलित्तिट्टेन” – अर्थात मै कर्म योगादि मार्गो कों त्याग दिया हुँ । इससे यह साबित होता हैं की आळ्वार ने (भगवान को पाने के लिए) सँसार के अन्य उपायों(रास्ते) का परित्याग किया हैं ।
  • आळ्वार को उपाय यथात्म्य ज्ञान संपूर्ण रूप से है। यह विषय हमें उनकी कहावत “ उन अरुल एन्नुम आचै तन्नाल पोय्यनेन वन्दुणिंदेन ” अर्थात मै यहाँ केवल आपके दया को उपाय मानकर ,पूरी तरह से निर्भर होकर आया हूँ ।

अन्तिम मे आचार्य पेरियवाच्छान पिळ्ळै कहते हैं आळ्वार के इन विशेष गुणों के कारण वे पेरियपेरुमाल को अत्यन्तप्रिय है जैसे बताते हैं “ वालुम शोम्बरै उगत्ति पोलुम” अर्थात जो भगवान को पूरि तरह शरणागति करते है वे भगवान के अत्यन्त प्रीति का पात्र है।

वेद सार के परिपूर्ण ज्ञानि और आळ्वार से किये गए शास्त्रानुसार कार्यों के गुण गाने वेद विद्वान से कीर्तित आळ्वार का कीर्तन मामुनिगळ करते हैं । आळ्वार  के अर्चानुभव को हम यहाँ पढ़ सकते हैं ।

आळ्वार की वैभवता को जानने के बाद आईये अब हम उनका दिव्य चरित्र जानने के लिए प्रयत्न करेगेँ।

उनके जन्म काल में नम्पेरुमाळ के दिव्य आशीर्वाद से आळ्वार शुद्धसत्व गुणों से ‘विप्रनारयण’ नाम से जन्म लेते हैं । कालाणुगुन किये जाने वाले पूरे संस्कार (चौलम् , उपनयनादि) प्राप्त करते हैं और सारे वेद वेदांग का अर्थ सहित अध्यायन करते हैं । ज्ञानवैराग्य संपन्न विप्रनारायण श्रीरंगं पहुँचकर पेरियपेरुमाळ की पूजा करते हैं । उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर पेरियपेरुमाळ अपना दिव्य मँगल सौन्दर्य दर्शन का अनुग्रह करके उनकी भक्ति को बढ़ाते हैं और श्रीरङ्गम् में ही आपश्री के नित्यनिवास की व्यवस्था करते हैं ।

कैंकर्य पण्डित जैसे पुण्डरीक (उत्तम भक्त), मालाकार (मथुरा मे श्रीकृष्ण और बलराम को पुष्पमाला बनाकर समर्पित करते थे), गजेन्द्र और अपने विष्णुचित्त (पेरियाळ्वार आठ फूलों से सुन्दर माला बनाकर एम्पेरुमान को अलंकरण करते थे ) के पद छाया को अनुसरित विप्रनारायण एक सुन्दर नन्दनवन का निर्माण करते हैं और प्रतिदिन पुष्पमाला बनाकर पेरिय पेरुमाळ को समर्पित करते थे ।

एक दिन तिरुकरम्बनूर गाँव वाली देवदेवि नामक वेश्या उरैयूर से अपने गाँव को लौटते समय सुन्दर पुष्पों से और पक्षियों से भरे हुए उस बगीचे को देखकर आश्चर्यचकित होकर नन्दनवन आ पहुँचती हैं ।

उस समय मे देवदेवि, सुन्दर मुखी, सर पे लंबे सुन्दर केश, सुन्दर वस्त्र पहने, तुलसि और पद्ममाला अलंकृत , द्वादश उर्ध्वपुण्ड्र से तेजोमय, पौधों को पानी देने वाले उपकरण को हाथों में लिए हुए विप्रनारयण को देखती हैं । विप्रनारायण कैंकर्य मे निमग्न रहते हैं और उनकी दृष्ठि उस वेश्या पे नही आती हैं । तब देवदेवि अपनि सहेलियों से पूछती हैं की “यह मनुष्य पागल हैं या अपुरुष है जो अपने सामने खडि सौन्दर्यराशी को देख नही रहा हैं ” ।
सहेलियाँ जवाब देती हैं की वे विप्रनारायण हैं , भगवान श्रीरंगनाथ का कैंकर्यं करते हैं और उनकी सुन्दरता की ओर नही देखेंगे । सहेलियाँ देवदेवि को चुनौती देते हैं की यदि विप्रनारायण को छः महीनों मे देवदेवी अपनी तरफ मोड लेती हैं तब वे मानेंगेँ की वह लोकत्तर सौन्दर्य राशी है और छः महीन उनकी दासि बन जाएँगी। उस चुनौती को स्वीकार करके देवदेवि अपने आभरण सहेलियों को देकर एक सात्विक रूप ले लेती हैं ।

देवदेवि विप्रनारायण के पास जाकर उन्हें प्रणाम करते हुए भगवान के अत्यन्त आंतरांगिक सेवा में निमग्न हुए भागवत की शरण में अपने आप को पाने की इच्छा प्रकट करती हैं । आळ्वार से देवदेवि कहती हैं की वह आळ्वार भिक्षाटन पूर्ती करके लौट आने तक निरीक्षण करेँगी । विप्रनारायण उनकी विनती स्वीकार कर लेते हैं । तब से देवदेवि विप्रनारायण की सेवा करते हुए उनका शेषप्रसाद पाते कुछ समय बिताती हैं ।

एक दिन देवदेवि बगीचे मे काम करते समय बहुत बारिश/बरसात होती हैं । तब देवदेवि गीले कपडों से विप्रनारायण के आश्रम में प्रवेश करती हैं । विप्रनारायण पोंछ ने के लिए अपनी ऊपर की वस्त्र को देते हैं । उस समय दोनों अग्नि और घी की तरह नजदीख हो जाते हैं । अगले दिन देवदेवि अपने आभरणों से अलंकृत होकर विप्रनारायण के सामने पेश आती हैं । उनकी सौंदर्य देखकर विप्रनारायण उस दिन से उनका दास/सेवक बन जाते हैं और भगवान का कैंकर्य को भूल जाते हैं और पूरी तरह से छोड देते हैं । देवदेवि विप्रनारायण के ऊपर कुछ समय तक अपना कपट प्रेम दिखाती हैं । उस प्यार को देख कर विप्रनारायण पूरी तरह से सेवक बन जाते हैं । देवदेवि विप्रनारायण की धन धौलत को हडप कर उन्हें बाहर धकेल देती हैं। विप्रनारायण उस दिन से देवदेवि की अनुमति के लिये उनकी आँगन मे प्रतीक्षा करते हुए समय बिताने लगे। एक दिन भगवान श्रीरंगनाथ(पेरियपेरुमाळ) और माता श्रीरंगनायकि(पेरियपिराट्टि) टहल रहे थे और उस समय विप्रनारायण को देख कर श्रीरंगनायकि अपने स्वामि से विचार करती हैं की वेश्या गृह इन्तज़ार करने वाला ये व्यक्ति कौन है। तब भगवान श्रीरंगनाथजी उत्तर देते हैं की ये उनका कैंकर्य करने वाला भक्त था लेकिन अब वेश्यालोल होकर एसे तडप रहा है। तब पुरुषाकार रूपिणि माता श्रीरंगनायकि श्रीरंगनाथजी से पूछते हैं ” एक अंतरङ्गिक कैंकर्य करने वाला भक्त विषयभोगों में डूब रहा हैं और वे उसे कैसे छोड रहे हैं । इनकी माया को दूर करके फिर से इन्हें अपने कैंकर्य मे लगा दीजिये”। भगवान श्रीरंगनाथ श्रीरंगनायकि की बात मान लेते हैं और उन्हें सूधारने के लिये अपने तिरुवाराधना(पूजा) से एक स्वर्ण पात्र को लेकर अपना रूप बदल कर देवदेवि के घर जाकर उनके दरवाज़ा पे कटखटाते हैं । तब देवदेवि उनसे अपने बारे में पूछने से बताते हैं की वे विप्रनारायण के दास अळगिय मणवाळन हैं । विप्रनारायण ने आप के लिए ये स्वर्ण पात्र (कटोरा) भेजा हैं । ये सुनकर देवदेवि आनन्द से विप्रनारायण को अन्दर आने के लिए आज्ञा दे देती हैं अळगिय मणवाळन विप्रनारायण के पास जाकर देवदेवि की मंज़ूरी बताते हैं । विप्रनारायण देवदेवि के घर पहुँच कर फिर से विषयभोगों में डूब जाता हैं । पेरियपेरुमाळ अपने सन्निधि को लौट कर आदिशेष पे आनंद से लेट जाते हैं ।

अगले दिन सन्निधि पूजारियोने पूजा करने के द्रव्य में एक पात्र कम पाया और इस विषय को महाराज तक पहुँचाते हैं । महाराजा पूजारियों की अश्रद्धता पे आग्रह करते हैं ।एकनक सेविका कुएँ से पानी लाते समय , सुनती हैं की उनके रिश्तेदारों में एक रिश्तेदार को राजा के आग्रह का पात्र होना पड़ा हैं और इस कारण वह उन्हें बता देती हैं की विप्रनारायण ने देवदेवि को उपहार के रूप मे एक स्वर्ण पात्र दिया हैं जिसे देवदेवि ने अपनी तकिया के नीछे रखा हैं । पूजारी ने महाराजा के सैनिकयों को विषय की सूचना कि और तुरन्त कर्मचारियों ने देवदेवि के घर पहुँचकर पात्र खोज निकालते हैं । देवदेवि के साथ विप्रनारायण को निर्भन्ध (गिरफ्तार)‌ कर देते हैं । राजा ने देवदेवि से पूछा ‘ कोई देता भी हैं तब भी भगवान का पात्र कैसे ले सकती हो’।देवदेवि ने राजा से कहा ’मुझे यह नही मालूम की यह पात्र भगवान का है, विप्रनारायण ने इसे अपना पात्र कहकर अपने दास अळगिय मणवाळन के द्वारा भेजा हैं और इस कारण निसंकोच से स्वीकार किया हैं ’। ये सुनकर विप्रनारायण चोक कर कहते हैं ‘न ही उनके कोई दास हैं और न ही कोई स्वर्ण पात्र उनके पास हैं ’ । यह वाद-विवाद सुनकर राजा देवदेवि को जुरमाना डाल कर छोड देते हैं । पात्र को भगवान के सन्निधि मे वापस कर देते हैं और विचारण पूरी होने तक विप्रनारायण को कारागृह(जैल) मे रखने के लिए आज्ञा दिया।

घटित संघटनों को देख कर माता श्रीरंगनायकि ने भगवान श्रीरंगनाथ से विप्रनारायण को अपने लीला की नहीं अपनी कृपा का पात्र बनाने की  विनती करती हैं । भगवान श्रीरंगनाथ उनकी बात मान लेते हैं और  उस दिन रात को महाराजा के सपने मे साक्षात्कार होकर  कहते हैं  की विप्रनारायण  मेरा अत्यंत अन्तरङ्गिक कैंकर्य करने वाले  भक्त है।  विप्रनारायण के प्रारब्द कर्म को मिटाने के लिए  मुझ से रचि हुई यह  रचना है। भगवान श्रीरंगनाथ  महाराजा को आदेश करते हैं की विप्रनारयण को तुरन्त छोड़ दे और  उन्हें उनकी पूर्व कैंकर्य(भगवान को पुष्पमाला बनाने की सेवा )में जुटाने की आज्ञा देते हैं । महाराज नीन्द से जाग उठते हैं  और  विप्रनारयण का वैभव जानकर उन्हें  आज़ाद कर देते हैं और सपने का वृतान्त सभी को बता देते हैं ।  विप्रनारयण को  धन दौलत से गौरवान्वित करते हैं और घर भेज देते हैं ।तब विप्रनारयण भगवान की महानता और उन्हें सुधार ने के लिए भगवान के प्रयास को महसूस करते हैं । इस साँसारिक भोगों को छोड देते हैं और  भागवतों का श्रीपाद तीर्थं स्वीकार करते हैं ।( भागवतों का श्रीपाद तीर्थं समस्त पापों का प्रायश्चित करता  है)

तत्पश्चात विप्रनारयण तोन्डरडिप्पोडि आळ्वार एवं भक्तांघ्रिरेणु के नामों से मशूर हुए । तोण्डर = भक्त , अडि/ अंघ्रि = पाद पद्म , पोडि/ रेणु = धूल। पूरा अर्थ है- भगवत भक्तों का पाद धूल।अन्य आळ्वार से अद्वितीय वैभवता इन आळ्वार की हैं – केवल इन्हीं के नाम में भागवत शेषत्व का प्रकाश होता हैं ।जैसे तिरुवडि(हनुमान/गरुड़ ) ,इळय पेरुमाळ (लक्षमण) एवं नम्माळ्वार (शठगोप) ने भगवान के अलाव किसी भी अन्य विषय को मूल्यवान नहीं माना वैसे ही तोन्डरडिप्पोडि आळ्वार भी कहते हैं “ इन्दिर लोकं आलुं अच्चुवै पेरिनुं वेंडेन” – अर्थात मुझे श्री वैकुण्ठ के बारे मे सोचने की भी इच्छा नहीं हैं मुझे केवल श्रीरंग क्षेत्र मे पेरिय पेरुमाळ का अनुभव चाहिए। पेरियपेरुमाळ के कृपा से ही उनमे बद्लाव आने के कारण ,आळ्वार उन पे बेहद आभारी हो चुके थे और इसी कारण अन्य आळ्वारों की तरह दिव्यदेशो मैं विराजमान अर्चामूर्तियों के बारे मे प्रबन्ध गाने से भिन्न केवल पेरियपेरुमाळ को ही अपना प्रबन्ध समर्पित किया हैं । आळ्वार के अटूट विश्वास और पेरुमाळ पे वास्तल्य को देखकर पेरियपेरुमाळ भी उस प्यार का प्रति फल चुकाते हुए उन्हें परिपूर्ण ज्ञान से अनुग्रह करते हैं और अपना पर्वतादिपञ्चक(एम्पेरुमान के पाँच निवास क्षेत्र – विवरण यहाँ पढ़ सकते हैं ) मे स्थित विविध नाम, रूप, दिव्य लीलाओं को श्रीरंगम से ही आळ्वार को दर्शन कराते हैं । देवदेवि भी आळ्वार की भक्ति और ज्ञान को देख कर अपना सार धन भगवदर्पित करके सेवा निरत हो जाती हैं ।

पर भक्ति , पर ज्ञान और परम भक्ति में डुबे और अपना सर्वस्व पेरिय पेरुमाळ को मान आळ्वार तिरुमंत्र अनुसन्दान और नाम संकीर्तन से पेरिय पेरुमाळ को निरन्तर अनुभव करते थे । अपने दिव्य अवस्था का अनुभव करते हुए , आळ्वार घोषित करते हैं की यम राज को देखकर श्री वैष्णव को कम्पित होने की आवश्यकत नहीं हैं । आळ्वार कहते हैं की यमराज के दूत श्री वैष्णव के तिरुवडि पाने के लिए काँक्षित होते हैं और एक श्री वैष्णव दूसरे श्री वैष्णव के श्री पाद पद्मों को पूजनीय मानते हैं । जैसे सौनका ऋषि ने सदानन्दर को एम्पेरुमान के दिव्य नामों की वैभवता समझाई हैं उसी तरह आळ्वार पेरिय पेरुमाळ के सामने तिरुमालै गान करते हैं । जैसे नम्माळ्वार अचित तत्व के दोषों को पहचानते हैं (२४ तत्व – मूल प्रकृति ;महान ; अहँकाराम ; मनस ; पाँच ज्ञान-इन्द्रिय ,पाँच कर्म-इन्द्रिय, पाँच तनमात्र , पाँच भूत ), आळ्वार भी अचित तत्व स्पस्ट रूप से पहचानते हैं जैसे “पुरम सुवर ओट्टै माडम” मतलब यह शरीर केवल बहार का दीवार हैं और आत्मा ही अन्दर निवास करता हैं और नियंत्रक हैं । आळ्वार प्रतिपादित करते हैं की जीवात्मा का स्वरूप एम्पेरुमान के भक्तों का सेवक होना हैं और यह विषय “अड़ियारोरक्कु” में बताते हैं मतलब जीवात्म भागवतों का सेवक हैं । तिरुमन्त्र के निष्ठा से परिपूर्ण आळ्वार “मेम्पोरुळ ” पाशुर में प्रकट करते हैं की केवल एम्पेरुमान ही उपाय हैं जो तिरुमालै प्रबन्ध का सार हैं । “मेम्पोरुळ ” पाशुर के अगले पाशुरों में ऐलान करते हैं की भागवत सेवा ही श्री वैष्णव का अंतिम लक्ष्य हैं और उनके तिरुपळ्ळियेळ्ळुचि के अन्तिम पाशुर में एम्पेरुमान को विनती करते हैं “उंनडियार्क्काटपडुताय” जिसका मतलब हैं मुझे आपके भक्तों का अनुसेवी बना दीजिये । इस तरह ,आळ्वार इन महान सिद्धान्तों को पूरे दुनिया की उन्नती की आकांक्षा से अपने दो दिव्य प्रबन्ध तिरुमालै और तिरुपळ्ळियेळ्ळुचि से समर्पण किया हैं ।

तनियन:

तमेव मत्वा परवासुदेवम् रन्गेसयम् राजवदर्हणियम् |

प्राभोद्कीम् योक्रुत सूक्तिमालाम् भक्तान्ग्रिरेणुम् भगवन्तमीडे ||

source

-अडियेन शशिधर रामानुज दासन

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