पेरियनम्बि

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमद् वरवरमुनये नमः

श्री वानाचलमहामुनये नमः

जय श्रीमन्नारायण ।
आळ्वार एम्पेरुमानार् जीयर् तिरुवडिगळे शरणं ।

हमने अपने पूर्व अनुच्छेद मे ओराण्वळि के अन्तर्गत नवें आचार्य श्री आळवन्दार (यामुनाचार्य) के बारें मे चर्चा की थी । आगे बढ़ते हुए ओराण्वळि के अन्तर्गत दसवें आचार्य (पेरियनम्बि) के बारें मे चर्चा करेंगे ।

तिरुनक्षत्र : मार्गशीश मास (corrected – मार्गसीर्ष् ), ज्येष्ठ नक्षत्र

अवतार स्थल : श्रीरंगम

शिष्य गण : श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार) , मलैकुनियनिन्रार , आरियुरिल् श्री शठगोप दासर , अणियैरंगतमनुदानार पिळ्ळै , तिरुवैक्कुलमुदैयार भट्टर इत्यादि

स्थल जहाँ से परपदम को प्रस्थान हुएँ  : चोल देश के पशियतु (पशुपति) देवालय मे

श्री पेरियनम्बि श्रीरंगम मे पैदा हुएँ और वह महापूर्ण , परांकुश दास , पूर्णाचार्य के नामों से जाने गए है । वह आळवन्दार के मुख्य शिष्यों मे से एक है और श्री रामानुजाचार्य को श्रीरंगम लाने का उपकार उन्ही को है । आळवन्दार के समय के बाद , सारे श्रीरंगम के श्रीवैष्णव पेरियनम्बि से विनती करते है की वह श्रीरामानुजाचार्य को श्रीरंगम मे लाये । अतः वह श्रीरंगम (added से ) अपने सपरिवार के साथ कांचीपुरम की ओर चले । इसी दौरान श्रीरामानुजाचार्य भी श्रीरंगम की ओर निकल पडे । आश्चर्य की बात यह थी की वे दोनो मधुरांतकम मे मिलते है और तभी पेरियनम्बि श्रीरामानुजाचार्य का पंञ्चसंस्कार करते है और कांचीपुरम पहुँचकर श्रीरामानुजचार्य को सांप्रदाय के अर्थ बतलाते है । इसी बींच रामानुजाचार्य की धर्मपत्नी पेरियनम्बि (जिनका कुल नीचा था) के प्रती असद्भावना होने की वजह से पेरियनम्बि दुखित होकर अपने परिवार के साथ श्रीरंगम वापस चले गए । इस विषय को हम श्रीरामानुजाचार्य के अद्भुत चरित्र मे जानेंगे ।

हमारे पूर्वाचार्यों ने पेरियनम्बि के जीवन की ऐसे वार्दात अपने श्रीसूक्तियों मे दर्ज किया है वह अब आपके लिये प्रस्तुत है

कहते है की पेरियनम्बि सद्गुणों के भण्डार है और रामानुजाचार्य के प्रती असीमित लगाव था । जब उन्की बेटी को अलौकिक सहायता की जरूरत थी तब इसके हल के लिये अपनी बेटी को रामानुजाचार्य के पास जाने का उपदेश देते है।

एक बार श्रीरामानुजाचार्य अपने शिष्यगण के साथ चल रहे थे तब अचानक पेरियनम्बि उनको दण्दवत[corrected-दण्डवत] प्रणाम करते है । तब श्रीरामानुजाचार्य इस क्रिया का स्वीकार / समर्थन नही करते क्योंकि किसी भी शिष्य को अपने आचार्य का प्रणाम स्वीकार नही करना चाहिये । इस क्रिया से सभी शिष्य आश्चर्यचकित होते देखर   श्रीरामानुजाचार्य अपने आचार्य से पूछते है उन्होने ऐसा क्यों किया तब श्रीपेरियनम्बि केहते है की रामानुजाचार्य मे वह अपने आचार्य श्री यामुनाचार्य को देखते है इसीलिये उन्होने दण्दवत प्रणाम किया | वार्ता माला में एक विशेष वचन सूचित करती हैं की आचार्य को अपने शिष्य के प्रति बहुत सम्मान होना चाहिए और पेरियनम्बि उस वचन के अनुसार रहे हैं ।

पेरियनम्बि मारनेरीनम्बि (जो शूद्र होने के बावजूद यामुनाचार्य के शिष्य हुए और फिर एक महान श्रीवैष्णव बने) का अन्तिमसंस्कार करते है जब वह परपदम को प्रस्थान हुए । इस क्रिया का समर्थन अधिक्तर श्रीवैष्णव नही करते और वे श्रीरामानुजाचार्य को इस घटना के बारें मे बताते है । यह जानकर जब श्रीरामानुजाचार्य पेरियनम्बि से पूछते है तब पेरियनम्बि कहते है की उन्होने सीधा आळ्वार के श्रीसूक्तियों ( तिरुवाय्मोळि – पयिलुम् चुडरोळि (3.7) और नेडुमार्क्कडिमै (8.10) ) का पालन किया और यही वार्दात श्री अळगिय मनवाळ पेरुमाळ्नायणार अपने आचार्य हृदय मे कहते है और यह हमारे गुरुपरंपराप्रभावम् मे भी है ।

एक बार पेरियपेरुमाळ को कुछ कुकर्मियों से खतरा था यह जनकारी प्राप्त कर श्रीवैष्णव निश्चय करते है की पेरियनम्बि ही सही व्यक्ति है जो देवालय की प्रदक्षिणा कर सकते है । तब वह श्री कूरत्ताळ्वार को अपने साथ प्रदक्षिणा करने को बुलाते है क्योंकि कूरत्ताळ्वार ऐसे एक मात्र भक्त थे जिन्होने परतन्त्रता का दिव्यस्वरूपज्ञान मालूम था [यही विषय नम्पिळ्ळै अपने तिरुवाय्मोलि (७ .१० .५ ) ईडु व्याख्यान में बताते हैं ।

इसके पश्चात , एक बार शैव राजा ने श्रीरामानुजाचार्य को अपने दर्बार मे आमंत्रित किया जिससे समाधान मे श्री कूरत्ताळ्वार (श्रीरामानुजाचार्य के भेष मे) और बूढे श्री पेरियनम्बि उनके साथ गए । यह शैव राजा को श्रीरामानुजाचार्य के प्रती सद्भावना नही होने के कारण अपने अनुचरों को आज्ञा देते है की श्रीरामानुजाचार्य के आँखें नोच लें तब श्री पेरियनम्बि राज़ी होकर अपने आपको समर्पित करते है और उनकी आँखें नोच ली जाती है । अपने वृध्द अवस्था मे होने के कारण श्री पेरियनम्बि परमपदम को प्रस्थान करते है । कहते है की उनके अन्तिम काल के इस वार्दात से एक सीख मिलती है ।
श्री कूरत्ताळ्वान और पेरियनम्बि कि बेटी (अतुळाय) कहते है की जैसे भी हो आप अपने प्राणों को ना त्यागें क्योंकि श्रीरंगम ज्यादा दूर नही है यानि वह अपने प्राण तभी त्यागें जब वह श्रीरंगम पहुँचे । यह सुनकर श्री पेरियनम्बि तुरन्त रुकने को कहते है और फिर कहते है अगर इस वार्दात को लोग कुछ इस प्रकार समझेंगे की अपने प्राणों का त्याग श्रीरंगम मे करना जरूरी है तब वह एक श्रीवैष्णव के वैभव को सीमित करने के बराबर है और यह कदाचित भी नही होना चाहिये । अतः वह वही अपने प्राणों को त्यागते है ।

आळ्वार कहते है – “वैकुण्थमागुम् तम् ऊरेल्लाम्” – यानि जहाँ श्रीवैष्णव रेहते है वही वैकुण्थ हो जाता है । अतः हमारे लिये यह जरूरी है की हम जहाँ भी हो भगवान पर पूर्णनिर्भर रहे क्योंकि ऐसे कुछ लोग जो दिव्यदेशों  मे रेहने के बावज़ूद नही समझते की उनपे भगवान की असीम कृपा और प्रशंशनीय आशीर्वाद है और इसके व्यतिरेक मे ऐसे श्रीवैष्णव है जो सदैव भगवद्चिंतन मे रहते है (जैसे – चाण्डिलि और गरुड की घटना) ।

अतः हम देख सकते है की श्री पेरियनम्बि कितने उत्कृष्ट श्रीवैष्णव थे और वह भगवान पर पूरि तरह निर्भर थे । तिरुवाय्मोळि और नम्माळ्वार के प्रती असीमित लगाव के कारण उन्हे परांकुश दास के नाम से जाना जाता है । उनके तनियन से हमे यह पता चलता है की वह भगवान श्रियपती के कल्याणगुणों मे इतने निमग्न थे की वह इस दिव्यानुभव से सुखी और संतुष्ठ थे ।

पेरियनम्बि का तनियन

कमलापति कल्याण गुणामृत निषेवया
पूर्ण कामाय सततम् पूर्णाय महते नमः ॥

अगले अनुच्छेद मे हम श्री रामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार) के वैभव की चर्चा करेंगे ।

अडियेन सेतलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दासन्
अडियेन वैजयन्त्याण्डाळ् रामानुज दासि

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