वडुक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

हमने अपने पूर्व अनुच्छेद (लेख) मे ओराणवाळि के अन्तर्गत श्री नम्पिळ्ळै के जीवन के बारे मे चर्चा की थी । आगे बढते हुए ओराण्वळि के अन्तर्गत अगले आचार्य वडुक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै के बारे मे चर्चा करेंगे ।

vadakkuthiruveedhipillai

तिरुनक्षत्र – ज्येष्ट मास स्वाति नक्षत्र

अवतार स्थल – श्रीरंग

आचार्य – नम्पिळ्ळै

शिष्यगण – पिळ्ळैलोकाचार्य, अळगिय मणवाळ पेरुमाळ नायनार इत्यादि

स्थल जहाँ से परमपद को प्रस्थान हुए – तिर्वरुंगम

ग्रन्थ सूची – ईडु 3000 पाडि

श्री कृष्णपादर के रूप मे जन्म लेकर, वे वडुक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै के नाम से प्रसिध हुए । वे नम्पिळ्ळै के शिष्यगण मे से उनके प्रधान महत्वपूर्ण  शिष्य हुए ।

हलांकि गृहस्थाश्रम मे होने के बावज़ूद वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै शुरू से ही आचार्य निष्ठा मे सदैव स्तिथ थे और उनहे संतान पैदा करने के विषय मे संबन्धरहित इच्छा व्यक्त किया करते थे । यह जानकर उनकी माँ उनके गुरू श्री नम्पिळ्ळै के पास जाकर उनसे अपने सुपुत्र के विरुद्ध शिकायत करती है । श्री नम्पिळ्ळै यह जानकर उनके शिष्य वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै और उनकी सत्पत्नी को अपने घर आने का आमंत्रण देते है । आमंत्रण पाकर खुशी से आचार्य के घर जाकर वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै और उनकी पत्नी आचार्य के कृपा के पात्र बने और फिर आचार्य नम्पिळ्ळै ने वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै को सन्तान पैदा करने के कार्य मे संलग्न होने का उपदेश दिया । आचार्य के सदुपदेश पाकर स्वामि पिळ्ळै उस कार्य को आचार्य प्रीति के लिये संपूर्ण करते है । आचार्य का विशेष अनुग्रह पाकर श्री पिळ्ळै को एक सत्पुत्र की प्रप्ति होति है और स्वमि पिळ्ळै अपने सत्पुत्र का नाम – श्री पिळ्ळै लोकाचर्य रखते है [जो लोकाचार्य {नम्पिळ्ळै} के विशेष अनुग्रह से प्राप्त हुआ] । श्री पिळ्ळै अपने आचार्य को यह बताते है तब उन्हे पता चलता है कि आचार्य नम्पिळ्ळै की सोच कुछ और ही थी । नम्पिळ्ळै नवजात शिशु का नाम अळगिय मनवाळन  रखना चाहते थे । अपने आचार्य का विचार जानकर स्वामि पिळ्ळै को भगवान [अळगिय मणवाळन – नम्पेरुमाळ] और आचार्य की असीम कृपा से फिर से एक नव जात शिशु को जन्म देते है जिनका नाम अळगिय मणवाळ पेरुमाळ नायनार रखा गया । तो कुछ इस प्रकार वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै ने दो विशेष रत्नों को जन्म देकर हमारे सत्सांप्रदाय को गौरान्वित और वैभवशालि ख्याति दिये । हमारे पूर्वाचार्यों  वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै की तुलना पेरियाळ्वार से करते है और इसी तुलना मे कुछ विशेष उल्लेख प्रस्तुत है –

पेरियाळ्वार और वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै दोनो ही ज्येष्ठ मास स्वाति नक्षत्र मे अवतरित हुए ।

पेरियाळ्वार ने भगवान की असीम कृपा से तिरुप्पळ्ळाण्डु , पेरियतिरुमोळि नामल दिव्यप्रबंधो की रचना किये । स्वामि वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै ने ईडु (छत्तीस हज़ार) पाडि नामक टिप्पणि प्रस्तुत किये ।

जिस प्रकार पेरियाळ्वार ने आण्डाळ को हमारे सत्सांप्रदाय को सौंपा और उनका पालन पोषण कृष्णानुभव मे हुआ उसी प्रकार वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै ने अपने दो दिव्यरत्नों जैसे सत्पुत्रों का पालन पोषण भगवद्-विषय मे किया ।

वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै नम्पिळ्ळै के तिरुवाय्मोळि पर आधरित प्रसंगो को हर रोज़ सुनते थे और अपने आचार्य के संबन्ध मे अपना समय व्यतीत करते थे । उसी दौरान वो हर रोज़ रात को इन प्रसंगो को ताम्र पत्रों मे लिखने का कार्य किया करते थे । अतः इस प्रकार श्री नम्पिळ्ळै के प्रसंगो को लिखकर ईडु (छत्तीस हज़ार) नामक ग्रंथ श्री नम्पिळ्ळै के ज्ञान के बिना अवतरित हुआ ।

एक बार वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै अपने आचार्य को अपने तिरुमालिगै ( घर ) मे तदियाराधन के लिये आमंत्रित करते है और आमंत्रण स्वीकार कर खुशी से श्री नम्पिळ्ळै उनके तिरुमालिगै जाते है । नम्पिळ्ळै खुद आराध्य पेरुमाळ का तिरुवाराधन शुरू करते है और उसी दौरान उनकी दृष्टि वहाँ पडे ताम्रपत्रों की ओर जाति है । स्वभावतः आकृष्ट स्वामि नम्पिळ्ळै उन ताम्रपत्रों को पढने लगे और फिर वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै से पूछे – पिळ्ळै ये क्या है ? वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै ने कहा – स्वामि , प्रिय आचार्य – यह आपके प्रसंग है जो तिरुवाय्मोळि पर आधारित है जिनको मैने सुरक्षित यथारूप ताम्रपत्रों पर बिना आपके ज्ञान के लिखा और इसका खेद मुझे है इसीलिये कृपया कर मुझे माफ़ करे । स्वामि नम्पिळ्ळै पेरिवाच्चानपिळ्ळै और ईयुन्निमाधवपेरुमाळ को इस ग्रंथ को पढने का आदेश देते है । वे दोनो यह ग्रंथ पढकर इस ग्रंथ की प्रसंशा अत्यन्त हर्ष से करते है । स्वामि नम्पिळ्ळै यह जानकर वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै से पूछे –  क्यो तुमने अपने बलबूते स्वतंत्र निर्णय लेकर यह कार्य किया ? क्या यह पेरियवाच्चानपिळ्ळै के व्याख्यान के बराबरि  मे किया गया कार्य है ? वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै यह सुनकर शर्मिन्दा हो गये और फिर अपनी गलती मानकर अपने आचार्य की शरण लेकर कहा – मैने यह इसी लिये किया ताकि मै भविष्य मे वापस पढकर इसका उपयोग मेरे जीवन मे कर सकूँ ।

वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै के दृढ़ विश्वस्वनीय कथन को सुनकर अती प्रसन्न नम्पिळ्ळै ने कहा – निश्चित है की तुम एक विशेष अवतार हो जिसने नष्टरहित यह ग्रंथ प्रस्तुत किया और इसीलिये यह ग्रंथ वह श्री ईयुन्नि माधव पेरुमाळ को सौपेंगे जो अपने वंश के उत्तराधिकारियों समझायेंगे और कुछ इस तरह यह ग्रंथ अन्ततः श्री मणवाळमुनि को बतलाया गया और मणवाळमुनि ने यह ग्रंथ हम सब लोगों के लिये प्रस्तुत किया । भगवान की असीम कृपा से नम्पिळ्ळै पूर्वानुमान लगा सके की यह ग्रंथ श्री मणवाळमुनि के द्वारा पूरे विष्व मे इस ग्रंथ का खुलासा होगा और यह तभी हो सकेगा जब यह ग्रंथ श्री ईयुन्नि माधव पेरुमाळ के वंश के उत्तराधिकारियों को प्राप्त होकार मणवाळमुनि को अन्ततः प्राप्त होगा ।

नन्जीयार परमपद को प्रस्थान होने पश्चात वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै हमारे सत्सांप्रदाय के अगले दर्शनप्रवर्तकाचार्य हुए । वे अपने पुत्रों [पिळ्ळै लोकाचार्य, अळगियमणवाळनायनारपेरुमाळ] को दिव्य गूडार्थों का सार समझाये । अपने अन्तिम काळ अपने आचार्य के दिव्यमंगल गुणों का विचार करते हुए वे अपना भौतिक शरीर त्यागकर परमपद को प्रस्थान हुए ।

अनुवादक टिप्पणि –

पिळ्ळैलोकाचार्य अपने श्री वचनभूषण दिव्यशास्त्र मे वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै के दिव्य उपदेशों को दर्शाते है जिसके उदाहरण निम्नलिखित है –

सूत्र 77 – कहा गया है जब अहंकार का ताग पूर्ण तरह होता है , तभी एक जीवात्मा “अडियेन” कहलायेगा । यह दिव्य उपदेश का विवरण वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै ने दिया जो “यतीन्द्रप्रणवम” नामक ग्रंथ मे लिखित है ।

सूत्र 43 – पिळ्ळैलोकाचार्य इस सूत्र मे दर्शाते है की प्रत्येक जीवात्मा अपने स्वातंत्र से इस भौतिक जगत मे अंगिनत असंखेय चिरकाल से बद्ध है और इन जिवात्मावों का उद्धार तभी होगा जब वे एक सदाचार्य श्रीवैष्णव का शरण लेंगे ।

हम सब श्री वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै के चरणकमलों का आश्रय लेते हुए यह प्रार्थना करें की हम सब भी उनकी तरह श्री रामानुजाचार्य और अपने आचार्य के प्रती प्रेम,आसक्ती,अनुरक्ति भावना जाग्रुक करें।

वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै तनियन –

श्री कृष्ण पाद पादाब्जे नमामि सिरसा सदा । यत्प्रसाद प्रभावेन सर्व सिद्धिरभून्मम ॥

अडियेन सेतलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दासन्

अडियेन वैजयन्त्याण्डाळ रामानुज दासि

Source