तिरुमळिशै आळ्वार (भक्तिसारमुनि)

श्री
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्री मद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमुनये नमः

thirumazhisaiazhwar

तिरुनक्षत्र – माघ मास मघा नक्षत्र

अवतार स्थल – तिरुमळिशै (महीसारपुरम)

आचार्यविष्वक्सेन,(भगवान नारायणा के मुख्य सेनाधिपति),पेयालवार (महदयोगि)

शिष्य: कणिकण्णन, धृढव्रत

ग्रन्ध: नान्मुगन तिरुवन्दादि, तिरुचन्द विरुत्तम

परमपद(वैकुण्ठ) प्राप्ति स्थल: तिरुकुडन्दै (कुम्बकोणं)

मामुनिगळ, आळ्वार के गुणगान करते हुए बताते हैं कि इन्हें शास्त्रार्थ का सुस्पष्ठ ज्ञान है। शास्त्र से हमें यह ज्ञान प्राप्त होता है कि केवल भगवान श्रीमन्नारायण ही हमारे आराध्य है और हमारा लेष मात्र भी अन्य देवताओं से सम्बन्ध नहीं होना चाहिए। इन्हें “तुय्या मदि” अर्थात निर्मल चित्त कहकर सम्बोधित करते है। पिळ्ळै लोकम् जीयर् के अनुसार यहाँ निर्मलता का अर्थ है की अन्य देवताओं के परतत्व पर किञ्चित मात्र भी विश्वास नहीं करना और दूसरों के मन में इस के बारे में जो शंका हो उसे दूर कर देना। अन्य देवताओं के प्रति श्रीवैष्णव के व्यवहार के बारे में कई पाशुरों से समझाया है।

उदाहरण –

नान्मुगन तिरुवन्दादि- 53 वे पाशुरं (गीत) ; “ तिरुविल्लात तेवरैत तेरेल्मिन तेवु ” (திருவில்லாத் தேவரைத் தேறேல்மின் தேவு) –जो मनुष्य श्रीमहालक्ष्मीजी के साथ संबंध रखने (पति) वाले को आराधनीय नहीं मानते है , ऐसे लोगों को महत्त्व नहीं देना चाहिए ।

नान्मुगन तिरुवन्दादि- 68 वे पाशुरं : “ तिरुवडि तन नामम मरण्दुम पुरण्तोजा माण्दर”(திருவடி தன் நாமம் மறந்தும் புறந்தொழா மாந்தர்) – सर्व स्वामि श्रीमन्नारायण भगवान को भी अगर भूल भी जाये परंतु अन्य देवता की पूजा, श्रीवैष्णव नहीं करेंगे।

नान्मुगन तिरुवन्दादि के व्याख्यान की अवतारिका में आचार्य पेरियवाच्छान पिळ्ळै (श्रीकृष्णदास) और आचार्य नम्पिळ्ळै (कलिवैरिदासजी), दोनों ने ही सबके मन की शंका दूर करते हुए भगवान श्रीमन्नारायण के परतत्व और अन्य देवताओ की सिमितता के विषय में अनुग्रह किया है।

आचार्य पेरियवाच्छान पिळ्ळै (श्रीकृष्णदास) का विवरण :मुदलाळ्वार (प्रथम तीन आल्वार – भूतयोगी, सरोयोगी, महदयोगी स्वामीजी) स्थापित करते है कि केवल -भगवान श्रीमन्नारायण ही जानने और अनुभव योग्य है। भक्तिसारमुनि ने इस रास्ते के काँटों को निकाल दिया है। जो लोग अन्य देवताओं को ईश्वर (सर्वाधिकारि – नियन्ता) मानते है, वे उन्हें समझाते हैं की वह देवता भी क्षेत्रज्ञ है (जीवात्मा – शरीर के प्राप्त) और नियमों के अधीन है। वे समझाते है की केवल भगवान श्रीमन्नारायण ही इस संसार के नियन्ता है।

आचार्य नम्पिळ्ळै(कलिवैरिदासजी) का व्याख्यान :मुदलाळ्वार, भगवान श्रीमन्नारायण को साँसारिक दृष्टि से, शास्त्र से, भक्ति से तथा भगवान श्रीमन्नारायण कि निर्हेतुक कृपा से जानते हैं । भक्तिसारमुनि भी इसी तरह भगवान श्रीमन्नारायण को जानते है और अनुभव करते है। परंतु आस -पास के सँसार को देखकर दुःखी होते है कि शास्त्रों में विदित होने पर जीवात्मा समझ नहीं पाते कि श्रीमन्नारायण भगवान ही परतत्व और सभी जगत के पालक है और उन्होंने ही अपनी अपार कृपा से वेद के रहस्य को प्रकट किया है। कहते है की ब्रह्मदेव (जो प्रथम सृष्टि कर्ता) स्वयं एक जीवात्मा है और सृष्टि के समय श्रीमन्नारायण भगवान द्वारा नियुक्त हुए है और क्यूँकि वेद में सुस्पष्ट रूप से समझाया गया है की सभी चेतन और अचेतन वस्तुओं को श्रीमन्नारायण अन्तर्यामि है, श्रीमन्नरायण ही परम पुरुष है। इस सिद्धान्त को सदा सर्वदा बिना चुक के याद रखना चाहिए।

इस तरह आचार्य श्रीवरवरमुनि तथा आचार्य नम्पिळ्ळै अपनी श्रीसूक्तियों में भक्तिसारमुनि के विशेष वैभव की प्रस्तुति करते है।

इसके अतिरिक्त तिरुचन्दविरुत्तम तनियन (वैभव बताने वाले श्लोक) में यह बहुत सुन्दरता से बताया गया है कि एक बार महा ऋषियों ने तप करने के लिए अनुकूल प्रदेश को जानने के लिए सारे भूप्रपंच की तुलना तिरुमळिशै (भक्तिसारपुरं, जो भक्तिसारमुनि का अवतार स्थल है) से किया और तिरुमळिशै को उस तुलना में सर्वोत्तम माना। आळ्वार और आचार्य के अवतार स्थलों को दिव्य देशों से भी उंचा स्थान प्राप्त है क्यूँकि आळ्वार और आचार्य ने ही हमें एम्पेरुमान् के बारे में बताया है और उनके बिना एम्पेरुमान् का विशेष अनुभव हम नहीं कर पाते।

इस को ध्यान में रखते हुये हम भक्तिसारमुनि के चरित्र को जानेंगेँ।

आळ्वार श्रीकृष्ण भगवान की तरह है। जैसे श्रीकृष्ण भगवान- देवकि/वसुदेव के यहाँ जन्म लेकर, नन्दगोप/यशोदा माई के पुत्र बनकर बड़े हुए उसी तरह भक्तिसारमुनि – भार्गवऋषि/कनकाँगि के यहाँ जन्म लेकर, तिरुवाळन/पँगयचेल्वि (लकडी काटनेवाला और उनकी पत्नि) के पुत्र बनकर बड़े हुए। भक्तिसारमुनि के अन्य नाम – महीसारपुराधीश, भार्गवात्मज, तिरुमळिशैयार/ तिरुमळिशै आळ्वार तथा विशेष रूप से तिरुमळिशै पिरान भी है। जो महान उपकारक होते हैं उन्हें ‘पिरान’ कहते है। भक्तिसारमुनि ने भगवान श्रीमन्नारायण की परतत्वता स्थापित करके ‘पिरान’ का नाम प्राप्त किया।

एक समय अत्रि, भृगु, वशिष्ठ, भार्गव और अँगीरस आदि ऋषियों ने चतुर्मुख ब्रह्मा के पास उपस्थित होकर उनसे विनती की ‘हे भगवान! हम पर कृपा करके भूलोक मे ऐसा प्रदेश दिखायिए जहाँ तप और अनुष्ठान करने के लिए अनुकूलता हो। चतुर्मुख ब्रह्माजी, विश्वकर्मा की सहायता से सारे सँसार को एक तरफ रखकर और तिरुमळिशै को दूसरी तरफ रखकर तुलना करते है। इस तुलना में तिरुमळिशै देश विजय प्राप्त करता है। इस प्रदेश को ‘महीसार क्षेत्र’ भी कहते है। कुछ दिन अपना जीवन यहाँ बिताने के लिए ,ऋषि लोग यहाँ अपना निवास स्थान कायम कर लेते है।

उस समय, भार्गव महर्षि श्रीमन्नारायण की प्रसन्नता के लिए धीर्ग सत्र याग नामक यज्ञ कर रहे थे और उनकी पत्नि गर्भवती होती है और १२ महीनों के बाद ,एक पिण्ड को जन्म देती हैं (मांस का टुकड़ा – प्रारंभिक चरण भ्रूण) जो तिरुमळिशै आळ्वार है। भक्तिसारमुनि, श्री सुदर्शन भगवान के अंश के समान प्रतीत होते थे ।(इनकी वैभवता देखकर  कुछ आचार्य पुरुष इन्हें नित्यसूरि अंश भी कहते है, लेकिन हमारे पूर्वाचार्यो ने दृढ़ता से कायम किया है कि आळ्वार इस सँसार में अगिणत काल से रहते आ रहे थे और अचानक से एम्पेरुमान का आशीर्वाद प्राप्त किये है)। अशरीर पिण्ड को पालने के लिए भार्गव महर्षि और उनकी पत्नि तैयार नहीं थे और उस पिण्ड को झाड़ी के निचे छोड़ देते है। भूदेवि ने श्रीदेवि के दिव्य आदेशानुसार पिण्ड का संरक्षण किया और उनके स्पर्श से उस पिण्ड ने सुन्दर शरीर प्राप्त किया। तुरन्त वह बालक भुख से रोने लगा। तब भगवान श्री जगन्नाथ (महीसारपुराधीश) ने इस बालक को कुंभकोणम के भगवान “आरावमुदन” के रूप मे दर्शन देकर, संपूर्ण ज्ञान प्रदान किया और जब एम्पेरुमान अदृश्य हुए तो वह बालक फिर उनके वियोग में रोने लगा।

उस समय, तिरुवालन नामक एक लकडी काटने वाला वही रास्ते से जा रहा था। वे उस रोते हुए बालक को देखते है और ख़ुशी से गोद में लेकर अपनी पत्नी के पास घर ले आते है। सन्तानहीन होने के कारण धर्मपत्नी उस बच्चे को स्वीकार कर लेती है और उसका पालन-पोषण शुरू कर देती है। पुत्रवास्तल्य से बालक को अपना दूध देने का प्रयत्न करती है। परंतु क्यूंकि वह बालक भगवान के कल्याण गुण के अनुभव और भक्ति में लीन था, उसने खाना, पीना, रोना आदि के प्रति अनासक्ति प्रदर्शित की, फिर भी भगवान कि कृपा से वे प्रवर्थमान हो रहे थे।

चतुर्थ वर्ण के एक वृद्ध दम्पति इस आश्चर्यपूर्वक वृतांत को सुनकर एक दिन सुबह गरम दूध लेकर उस बालक को देखने के लिए आते है। तेजस्वी बालक के दर्शन करके दूध स्वीकार करके पीने की प्रार्थना करते है। आळ्वार उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर थोड़ा दूध पीकर बचा हुआ शेष उनको देते है। उसे पीने की आज्ञा देते है और शीघ्र सुपुत्र प्राप्ति का आशिर्वाद देते है। आळ्वार की कृपासे वृद्ध दम्पति पुनः यौवनत प्राप्त करते है और वह स्त्री गर्भवती होती हैं। दस महीने के बाद श्री विदुरजी (जिन्हें श्रीकृष्ण के प्रति बहुत प्रेम था) की तरह एक बालक को जन्म देती है। उनका नाम ‘कणिकण्णन’ रखकर उन्हें भगवान के बारे में सब कुछ सीखाते है।

भगवान श्रीमन्नारायण के कृपा पात्र और भार्गव ऋषि के सुपुत्र होने के कारण, ७ साल के होने पर  भक्तिसारमुनि ने अष्टाङ्गयोग का अभ्यास करना चाहा। उसे सम्पन्न करने के लिए उन्होंने पहले परब्रह्म को अच्छी तरह से जानना चाहा और यह स्थापित करने के लिए कि अन्य सारे मत दोषपूर्ण है,वे अनेक मत – भाह्य मत  (सांख्य, उलूक्य, अक्षपाद, कृपण, कपिल और पातंजल) और कुदृष्टि मत (शैव, मायावाद, न्याय, वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर) में अपनी ख़ोज प्रारंभ करते है और सुस्पष्टता से घोषित करते है कि सारे मत सच की स्थापना नहीं करते है। सनातन धर्म श्रीवैष्णव सिद्धान्त में ही स्थित है। इस प्रकार सात सौ साल बीत जाते हैं ।

भगवान श्रीमन्नारायण सर्वेश्वर उन्हें दिव्य और पूर्ण ज्ञान का आशीर्वाद प्रदान करते है और उन्हें दिखाते है-

  •  अपना दिव्यस्वरूप।
  • अपने कल्याण गुण।
  • अपने दिव्य अवतार (उनके स्वरूप गुणो को बताती है)।
  • दिव्य अवतारों मे अपने आभूषण।
  • अपने दिव्य आयुधों को, जो भक्तों को अनुकूल और सौन्दर्य भारित आभूषण के समान दिखते है।
  • अपनी दिव्य महिषियो को (श्रीदेवी,भूदेवी, नीलादेवि) तथा नित्यसूरियो को दर्शाते है, ये नित्यसूरि सदा भगवान श्रीमन्नारायण के कल्याण गुणों (स्वरूप, गुण, अवतार, सौन्दर्य गहण, दिव्य आयुध) का कीर्तन करते है।
  • परमपद- अपना दिव्य नित्य निवास स्थल, अंत मे
  • सँसार सागर – इस सँसार, प्रकृति, पुरुष, काल, तत्वों को तथा भगवान श्रीमन्नारायण के प्रत्यक्ष या अन्य देवताओ से परोक्ष निरंतर चलनेवाला सृष्टि, स्थिति और लय विध्यमान होता है।

कल्याण गुणों से परिपूर्ण भगवान श्रीमन्नारायण, अळ्वार को दर्शन कराते है कि कैसे वह अपनी नाभि कमल (नाभि में कमल) से चतुर्मुख ब्रह्मा की सृष्टि करते है। श्वेतश्वतारोपनिषद के अनुसार “यो ब्रह्मणाम् विदधाति पूर्वम” अर्थात परब्रह्म (भगवान श्रीमन्नारायण) ने चतुर्मुख ब्रह्मा की रचना की। छांन्दोग्य ब्राह्मण के अनुसार “ ब्रह्मणः पुत्राया जेष्ठाय श्रेष्ठाय” इसका अर्थ है कि रुद्र, चतुर्मुख ब्रह्मा के प्रथम और श्रेष्ठ सन्तान है। ये देखकर भक्तिसारमुनि तुरन्त अपनी ‘नान्मुगन तिरुवन्दादि’ में इस भावना की इस प्रकार से पुनरुक्ति करते है “नान्मुगनै नारायणन पडैत्तान नान्मुगनुम तान्मुगमाय शंकरनैत्तानपडैत्तान” अर्थात- भगवान श्रीमन्नारायण ने चतुर्मुखब्रह्मा की सृष्टि की। और चतुर्मुखब्रह्मा ने रुद्र की रचना की। इस विषय से सँसारियों के मन में भगवान के परतत्वता के प्रति सभी शंकाओं को आळ्वार ने समाप्त किया। आळ्वार घोषित करते हैं की उन्होंने स्वयं बहुत से मतों के बारे में सीखकर अंत में एम्पेरुमान की कृपा से उनके श्री चरण कमलों को प्राप्त किया है। उसके बाद तिरुवळ्ळिकेनि (बृन्दारण्य क्षेत्र) में कैरवैनि पुष्कर के तट पर श्रीपति (श्री महालक्ष्मी के पति) के कल्याण गुणों पर ध्यान करते रहे।

एक दिन शिवजी अपनी पत्नि के साथ वृषभ वाहन पर आकाश में भ्रमण कर रहे थे। तब जैसे ही उनकी छाया आळ्वार को छूने वाली थी तब आळ्वार वहां से हट गए। यह देखकर उमा, शिवजी से कहती है की उन्हें आळ्वार से मिलना चाहिए। तब शिवजी समझाते है कि आलवार भगवान श्रीमन्नारायण के महान भक्त है और वे उन्हें देखकर भी अनदेखा कर देगें। लेकिन पार्वती नहीं मानी और उनसे मिलने की ज़िद्द करती रही तब अंत में शिवजी मिलने के लिए राज़ी हो जाते है। भक्तिसारमुनि ने उन्हें आँख उठाके भी नहीं देखा। तब रुद्र आळ्वार से पूछते हैं की “हम आपके समक्ष है फिर भी आप हमारी उपेक्षा कैसे कर सकते है ? भक्तिसारमुनि जवाब देते हैं “हमें आपसे कुछ काम नहीं हैं”। शिवजी कहते है कि – हम आपको वरदान देना चाहते है”। भक्तिसारमुनि उत्तर देते है की – “मुझे आपसे कुछ भी नही चाहिए”। शिवजी कहते है- “मेरा इधर आना असफ़ल रह जायेगा, आपकी मनोकामना जो भी है आप मुझसे माँग सकते हैं”। भक्तिसारमुनि हँसते हुए कहते है – ” क्या आप मुझे मोक्ष दे सकेंगे”? शिवजी -“मोक्ष प्रदान करने का अधिकार केवल भगवान श्रीमन्नारायण को ही है”। भक्तिसारमुनि फिर कहते है- “क्या आप मृत्यु को रोक सकेंगे?” शिवजी- “मृत्यु अपने-अपने कर्माणुगत है उसके ऊपर मेरा अधिकार नहीं है”। भक्तिसारमुनि व्यंग्यात्मकता से कहते है “क्या आप ये सूई मे धागा चढ़ा सकेंगे?” शिवजी क्रोधित हो जाते हैं और उन्हें कामदेव की तरह भस्म करने की धमकी देते है। अपने तीसरे नेत्र खोलकर अग्नि प्रसारित करना शुरू कर देते है। भक्तिसारमुनि भी अपने बाये पैर की अंगुष्ट से अपना तीसरा नेत्र खोलकर अग्नि ज्वाला की धारा प्रगट करते है। रुद्र, आळ्वार के श्री चरण कमलों से निकले अग्नि सहन नहीं कर पाते और भगवान श्रीमन्नारायण की शरण कर लेते है। सभी देवी देवता, ऋषिगण भी भगवान के पास पहुँचकर विशृंखलता को नष्ट करने की विनती करते है। भगवान श्रीमन्नारायण जल से भरे प्रलय मेघों को अग्निप्रलय को शान्त करने का आज्ञा देते है। जब मेघ भगवान से पूछते है कि क्या उनमें आळ्वार से प्रगटित अग्निप्रलय को बुझाने की शक्ति है? तब एम्पेरुमान उन्हें आश्वासन देते है की वह उन्हें वह शक्ति प्रदान करेंगे। अग्नि बुझाने के पश्चाद बाढ़ सी स्थिति आ जाती है। परंतु आळ्वार का ध्यान भगवान में अचल था और बिना कुछ दुविधा के ज़ारी था। यह देखकर शिवजी आश्चर्यचकित होते है और उन्हें ‘भक्तिसार’ कहके गौरवान्वित करते है। पार्वती को समझाते है कि अम्बरीषजी के प्रति किये गए अपचारों के लिए दुर्वास ऋषि को भी दंड भुगतना पड़ा था। “भगवत भक्तों की कभी हार नही होती” ऐसा कहकर वह कैलाश लौट जाते है।

भक्तिसारमुनि ध्यान मे निमग्न हो गये। उस समय एक ‘केचर’ (आकाश मे फिरने वाला) अपने  वाहन शेर/बाघ पर विराजमान होकर भ्रमण कर रहा था। आळ्वार को देखकर और उनकी योग शक्ति के कारण उन्हें पार करके आगे नहीं बढ पा रहा था। वे केचर अपनी माया से एक दिव्य शाल बनाता है और आळ्वार से “हे ! महापुरुष , आप अपनी पुरानी फ़टी हुई शाल को निकालकर यह नई शाल को स्वीकार करें” कहके प्रार्थना करता हैं। भक्तिसारमुनि मणि मानिक्य युक्त उनके दिए गए शाल से भी बेहतरीन और सुन्दर शाल की रचना करते है। उसे देखकर केचर शर्मिंदा हो जाता है। तब केचर अपने गले में पहना हुआ मणि युक्त हार भक्तिसारमुनि को समर्पित करता है। भक्तिसारमुनि अपने कण्ठ की तुलसी माला को रत्न हार बनाके केचर को दिखाते है। इस तरह केचर भक्तिसारमुनि की योगशक्ति को जान लेते है और  उन्हें गौरवान्वित करके, उनको प्रणाम कर लौट जाते है।

भक्तिसारमुनि की वैभवता के विषय में सुनकर एक कोण्कणसिद्ध नामक ज़ादुगर उन्हें प्रणाम करके उनके समक्ष एक रसविज्ञान पत्थर समर्पित करता है (ये पत्थर लोहे को सोना बना देता है)। आळ्वार उसकी उपेक्षा करते है। अपने दिव्य शरीर (कान के भाग से) से थोडा मैल निकाल कर उनको देते है और कहते है कि उस मैल से पत्थर भी सोना बन जाता है। ज़ादुगर उसकी झाँच करके खुश होता है और भक्तिसारमुनि को प्रणाम करके लौट जाता है।

आळ्वार ने कुछ समय एक गुफ़ा में ध्यान करते हुए बिताया। मुदलाळ्वार (प्रथम तीन आळ्वार- भूतयोगि, सरोयोगि तथा महदयोगि) जो भगवान श्रीमन्नारायण के कीर्तन करके अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे, उन्होंने देखा की गुफ़ा से एक दिव्य तेज प्रसरित हो रहा था। मुदलाळ्वारों की मुलाक़ात भक्तिसारमुनि से हुई। एक दूजे के विषय में जानकर परस्पर क्षेम विचार पूछकर सब मिलकर भगवद् गुणानुभव में कुछ समय व्यतीत करते है। बाद में उधर से निकलकर पेयाल्वार(महदयोगि) के अवतार स्थाल ‘तिरुमयिलै (प्रस्तुतकालमे मैलापूर) को पहुँचते है। वहां ‘कैरविणि’ तीर्थ के तटपर वे लोग कुछ समय व्यतीत करते है। मुदलाळ्वार अपनी दिव्य यात्रा को ज़ारी रखते है और भक्तिसारमुनि अपने अवतार स्थल तिरुमळिशै पहुँच जाते है।

भक्तिसारमुनि शरीर में धारण करने वाला तिरुमणकाप्पु (श्वेतमृत्तिका) ढूंढ़ते है लेकिन तलाश नहीं कर पाते है। वह उदास होकर सो जाते है। भगवान श्रीनिवास (तिरुवेंकट मुदैयाँ) स्वप्न में साक्षात होकर तिरुमणकाप्पु का पता बताते है। वे उस पते पर छान -बीन करते है और तिरुमणकाप्पु प्राप्त करके ख़ुशी से द्वदशा उर्ध्व पुण्ड्र (शास्त्र के अनुसार शरीर पर १२ प्रदेशों में तिरुमणकाप्पु  लगाया जाता है) लगाकर अपना भगवत अनुभव ज़ारी रखते है। पोइगै आळ्वार के अवतार स्थल जाने के अभिलाषा से वे कांचीपुर -तिरुवेक्का क्षेत्र में पहुँचते है जिसे सभी पुण्य क्षेत्रों में श्रेष्ठ कहा जाता है। श्रीदेवी और भूदेवि की सेवा स्वीकार करते हुये आदिशेष पर अति सुन्दरता से शयनित एम्पेरुमान की सेवा करते हुए 700 साल बिताते है। भूतयोगि का अवतार जिस पुष्करिणी के तट पर हुआ, वहाँ भक्तिसारमुनि भूतयोगि स्वामीजी का ध्यान करते हुए कुछ समय व्यतीत करते है।

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उभय देवेरियों से युक्त यथोक्तकारि भगवान,तिरुवेक्का

उस समय, कणिकण्णन उनके पास आकार उनके श्री चरणों की शरण लेते है। एक वृद्ध नारी प्रति दिन आळ्वार के पास आकर उनकी सेवा करती थी। भक्तिसारमुनि उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उनसे उनकी मनोकामना पूछते है। वृद्ध नारी अपनी यौवन अवस्था को पुनः प्राप्त करने का वरदान माँगती है। भक्तिसारमुनि उनकी मनोकामना की पूर्ति करते है और वह वृद्ध नारी अति सुन्दर युवती बन जाती है। युवती की सुन्दरता पर स्थानिक महाराज पल्लवराय आकर्षित हो जाते है और उनसे विवाह करने की विनती करते है। एक बार पल्लवराय ने देखा कि वे तो दिन प्रतिदिन बूढ़े हो रहे थे और बुढ़ापा उनकी पत्नी के आस -पास भी नहीं था। यह देखकर उनकी दिव्य यौवनता का रहस्य पूछते है। पत्नी भक्तिसारमुनि से प्राप्त आशिर्वाद के विषय में बताती है और उन्हें सलाह देती है की आळ्वार को प्रसन्न करके यौवनता का वरदान माँगे और कहती है कि इसके लिए उनके शिष्य कणिकण्णन (जो अपनी कैंकर्य सामाग्रि के लिए पल्लवराय के पास आते थे ) की सिफ़ारिश का उपयोग करे। पल्लवराय, कणिकण्णन से पूजार्थ भक्तिसारमुनि को राज दरबार में पेश करने की आज्ञा देते हैं । कणिकण्णन राजा से कहते हैं की भक्तिसारमुनि भगवान के द्वार (एम्पेरुमान) को छोडकर कहीं नहीं आएँगे। पल्लवराय उन्हें कीर्तन करने के लिए आदेश करते है परंतु वे आदेश को यह कहते हुए ठुकरा देते है की शिष्टाचार (जो पूर्विक के सिद्धान्त और अनुष्ठान के प्रकार) के अनुसार भगवान श्रीमन्नारायण और उनके भक्तो के सिवा किसी का भी वे कीर्तन नही करेंगे। यह सुनकर पल्लवराय बहुत क्रोधित होते हैं और कणिकण्णन को देश से बहिष्कृत कर देते है। राजा का महल छोड़कर कणिकण्णन अपने गुरु भक्तिसारमुनि के पास पहुँचकर घटित क्रम बताकर, देश से जाने के लिए अनुमति माँगते है। भक्तिसारमुनि कणिकण्णन से कहते है कि “आप नहीं रहेंगे तो हम भी यहाँ नहीं रहेंगे, अगर हम नहीं रहेंगे तब भगवान भी यहाँ नहीं रहेंगे। अगर एम्पेरुमान चले जायेंगे तब सभी देवी देवता इधर से निकल जायेंगे। “मैं अभी मन्दिर जाकर भगवान को अपने साथ लेकर आता हूँ “और मंदिर तक पहुँचते है। आलवार भगवान तिरुवेक्का के द्वार पर यह गान करते हैं  

‘कणिकण्णन पोगिन्नान

कामरुपू कच्चि मणिवण्न नी किडक्का वेण्डा

तुण्णि वुडया चेण्णाप्पुलवनुम पोगिन्नेन

नीयुम उन्नन पैण्णागप्पाय चिरुट्टिक्कोळ ’

हे! अति सौन्दर्य रूपी तिरुवेक्का के निवासि ! कणिकण्णन यह राज्य छोड कर जा रहे है। दास भी उनके साथ जा रहा है। आप भी अपना आसन आदिशेष को बाँधकर हमारे साथ चलिए!

भगवान भक्तिसार मुनि की बात मानकर उनके और कणिकण्नन के पीछे पीछे चल देते है। इसलिए उन्हें यदोक्तकारी तिरुनाम प्राप्त है (कारी – करने वाला ,यध – जैसे , उक्त – कहे)। सब देवगण भगवान यधोक्तकारि के पीछे चल पड़े। मँगलता नष्ट हो गयी और काञ्चीपुरम जीव रहित हो गया। काञ्चीपुरम मे सूर्य का उदय नहीं हुआ और सम्पूर्ण और अन्धकार छा गया। पल्लवराय इसका कारण समझ चुके थे। अपने राज परिवार के साथ उनके पीछे जाकर, कणिकण्णन के श्रीचरणों पर अपना मस्तक रखकर क्षमा याचना करते है। कणिकण्णन, भक्तिसारमुनि को और भक्तिसारमुनि, भगवान यधोक्तकारि से अपने यथा स्थान लौटने के लिए प्रार्थना करते है।

कणिकण्णन पोक्कोजिण्तान

कामरुपू कच्चि मणिवण्णा नी किडक्का वेण्डुम

तुनि वुडया चेण्णाप्पुलवनुम पोक्कोजिण्तेन

नीयुम उन्नन पैण्णागप्पाय पडुत्तक्कोळ ’

हे। अति सुन्दर तिरुवेक्का के निवासि! कणिकण्णन लौट रहा हैं, मैं (आप के बारे में गान करने वाला कवि) भी लौट रहा हूँ, आप भी बंधे हुए आदिशेष की शय्या को बिछाकर यथा स्थान विराजियें।

ये भगवान श्रीमन्नारायण की सौलभ्यता- सादगी के गुण का प्रत्यक्ष उदहारण है और भगवान श्रीमन्नारायण के इसी गुणानुभव में आल्वार निमग्न थे और उन पर व्यामोह से गाते है- वेक्कानै क्किडंद तेन्न नीर्मैयै- अर्थात एम्पेरुमान कितने दयालु हैं जो मेरी विनती को स्वीकार करके ‘तिरुवेक्का’ में विराजे है।

उसके बाद भक्तिसारमुनि अत्यन्त आशा से तिरुक्कुडंदै (कुम्भकोणम) भगवान “आरावमुदाळ्वार” का मँगलाशासन करने के लिए निकल पड़ते हैं। तिरुक्कुडंदै महात्म्य में कहा जाता है की “जो यहाँ (तिरुक्कुडंदै) क्षण मात्र समय भी व्यतीत करते है उनको वैकुण्ठ में स्थान प्राप्त है और लौकिक सँसार की संपदा के विषय में कहने की क्या आवश्यकता हैं”। ऐसी इस दिव्यदेश की महानता है। एक बार भक्तिसारमुनि अपनी यात्रा के दौरान ‘पेरुम्पुलियूर’ नामक गाँव पहुँचते है। एक गृह के आँगन में  बैठे हुये कुछ ब्राह्मण लोग वेद का पाठ कर रहे थे। उस समय वे लोग भक्तिसारमुनि के फटे और पुराने पहनावट को देखकर अपने वेद अध्यन को रोक देते है। इस विषय को ग्रहण करते हुए भक्तिसारमुनि विनम्रता से वहाँ से निकल पडे। ब्राह्मण गण अपने वेदपाठ को फिर से आरम्भ करने की कोशिश करते हैं परंतु जिस स्थान पर उन्होंने वेद पाठ रोका था उसे भूल जाने के कारण आरम्भ नहीं कर पा रहें थे। भक्तिसारमुनि यह जानकर एक चावल का धान/बीज लेकर अपना नखोँ से धान्य को चीरते है। ये दृश्य देखने के बाद उन ब्राह्मण लोगों को अपने वेदपाठ की पंक्ति स्मरण आ गई। “कृष्णाणाम व्रिहिणाम नखनिर्भिन्नम” -ये यजुरवेद का खण्ड है। वे सब भक्तिसारमुनि की वैभव को जान लेते हैं और अपनी भूल और बुरे बर्ताव के लिए क्षमा प्रार्थना करते हुए भक्ति से उनकी वन्दना करते है।

भक्तिसारमुनि अपनी पूजा सामाग्रि की तलाश कर रहे थे तब उस गाँव में स्थित एम्पेरुमान उन्हीं की ओर मुड़ रहे थे। पूजारी लोग उस आश्चार्यपूर्वक दृश्य को देखकर उसके बारे में कुछ ब्राह्मण लोगों को बताते है, जो उस गाँव मे याग करने वाले पेरुम्पुळियूर अडिगळ को भक्तिसारमुनि की वैभवता के बारे में और इस विशेष वृतांत के विषय में बताते है। पेरुम्पुळियूर अडिगळ तुरन्त यागशाला (यज्ञ भूमि ) को छोडकर भक्तिसारमुनि के पास जाते है और उनकी दिव्य देह को देखकर विनम्रता से प्रणाम करते है और उनको यागशाला आने के लिए निमंत्रित करते है। भक्तिसारमुनि उनका निमंत्रण स्वीकार करते है और यागशाला पहुँच जाते है। पेरुम्पुळियूर अडिगळ आल्वार को प्रथम स्थान देते हुए उनको मर्यादा करते हैं (अग्र पूजा)। राजसूय यज्ञ में जब धर्मराज ने श्री कृष्ण भगवान को प्रथम स्थान देकर उनकी अग्र पूजा की तब शिशुपालन आदि लोगों ने विरोध किया था और ठीक उसी तरह भक्तिसारमुनि की अग्र पूजा करने का कुछ लोग तिरस्कार कर रहे थे। पेरुम्पुळियूर अडिगळ उनकी बातों से उदास हो जाते है और आलवार से कहते है कि वे आलवार के विषय में ऐसे कठोर शब्दों को नहीं सुन सकते। भक्तिसारमुनि अपनी वैभवता प्रकट करने का निर्णय करते है और अन्तर्यामि एम्पेरुमान (भगवान श्रीमन्नारायण) को एक पाशुर से विनति करते है की उनके ह्रदय में स्थित दिव्य मूर्ति का दर्शन सभी लोगों को कराया जाय। उनकी प्रार्थना  सुनकर भगवान श्रीमन्नारायण अपने  देवियों से, आदिशेष, गरुड़ इत्यादि परिवार के साथ भक्तिसारमुनि के हृदय में सब को दर्शन देते है। यह देखकर जिन लोगों ने भक्तिसारमुनि की अग्र पूजा का विरोध किया था वे ही उनकी वैभवता को देखकर क्षमा माँगकर शाषटाङ्ग प्रणाम करते है। भक्तिसारमुनि को सब लोग मिलकर ब्रह्मरथ में विराजित करते हैं (पालकी मे बैठाना) और आळ्वार की दया के पात्र बनते है। भक्तिसारमुनि ने उन लोगो को शास्त्र के सार उपदेश प्रदान किया। उसके बाद आळ्वार आरावमुदन एम्पेरमान को मिलने तिरुकुडंदै पहुँचते हैं ।

तिरुकुडंदै पहुँचने के बाद भक्तिसारमुनि उनके द्वारा रचित सारे ग्रंथ कावेरी नदी के पानी में फ़ेंक देते है। भगवान आरावमुदन की  कृपा से नान्मुगन तिरुवन्दादि और तिरुचन्द विरुत्तम दो ग्रंथ लहरों के विपरीत दिशा में तैरते हुए भक्तिसारमुनि के पास वापस आ जाते है। भक्तिसारमुनि उन ग्रंथों को लेकर भगवान आरावमुदन की सन्निधि में पहुँचकर आपादमस्तक पर्यन्तं दर्शन करके उनका मंगलाशासन करते है। भक्तिसारमुनि अत्यन्त प्रीति से भगवान आरावमुदन को कहते है “ काविरिक्कारैक कुडंदयुल किडंद वार एलुंदिरुन्दु पेच्चु”। अर्थात –“ हे ! कावेरी तट पे तिरुकुडंदै में शयन मूर्ति एक बार उठ के मुझ से बात कीजिये”। उनकी बोली मानकर तिरुकुडंदै आरावमुदन उठने के लिए प्रयत्न करते है  तब उन्हें देखकर आळ्वार खुश हो जाते है और उन्हें “वाळि केशने” कहकर उनका  मँगलाशासन करते है अर्थात “हे सुन्दर केशवाले ! आपका सदा मँगल हो”। इस दिव्य स्वरूप का ध्यान करते हुऐ भक्तिसारमुनि ने 2300 साल तक तिरुकुडंदै क्षेत्र मे केवल दूध पीकर समय बिताया। एसे भक्तिसारमुनि ने 4700 साल भूलोक में जीवित रहकर अपने दिव्य प्रबंधो से सँसारियों के उज्जीवन के लिए शास्त्र का सार दया के साथ अनुग्रह किया।

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कोमलवल्लि तायार समेत श्री आरावमुदन भगवान ,तिरुकुडंदै (कुम्भकोणम)

भक्तिसारमुनि को ‘तिरुमळिशैपिरान’ नाम से जाना जाता है। (पिरान- महान उपकारक होते है -साधारण में ये वाचक शब्द केवल भगवान को संबोधन करने के लिए प्रयोग किया जाता हैं) – भक्तिसारमुनि ने भगवान के परतत्व को बताकर महान उपकार किया है इसलिए वह पिरान हुए। उस दिन से तिरुमलिशै आळ्वार ‘तिरुमळिशै पिरान’ हुए और तिरुकुडंदै आरावमुदन, आरावमुदाळ्वार के रूप में प्रसिद्धि हुए। (आळ्वार उन्हें कहा जाता हैं जो  भगवान के कल्याण गुणो में तथा उनके दिव्य सौन्दर्य मे डूबे रहते है और ये वाचक शब्द भगवान के भक्तों को संबोधन करने के लिए प्रयोग किया जाता हैं) क्यूँकि तिरुमलिशै आळ्वार के नाम, रूप और गुणों में आरावमुदन डूबे हुए थे, उन्हें आरावमुदाळ्वार कहकर संबोधन किया जाता है।

आळ्वार की दिव्य कृपा के लिए प्रार्थना करें ताकि हमें भी उन्हीँ की तरह एम्पेरुमान और उनके सेवकों के प्रति भक्ति भाव और लगाव प्राप्त हो।

तनियन

शक्ति पंचमय विग्रहात्मने शुक्तिकारजात चित्त हारिणे।

मुक्ति दायक मुरारि पादयोः भक्तिसार मुनये नमो नमः॥

-अडियेन नल्ला शशिधर रामानुजदास

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