एम्बार्

श्रीः

श्रीमते रामानुजाय नमः

श्रीमद् वरवरमुनये नमः

श्री वानाचलमहामुनये नमः

पूर्व अनुच्छेद मे ओराण्वळि के अन्तर्गत आचार्य “एम्पेरुमानार्” के बारें मे चर्चा की थी । आगे बढ़ते हुए ओराण्वळि के अन्तर्गत आचार्य (एम्बार्) के बारें मे चर्चा करेंगे ।

एम्बार् – मधुर मंगलम

तिरुनक्षत्र : पुष्य मास पुनर्वसु

अवतार स्थल : मधुर मंगलम

आचार्य : पेरिय तिरुमलै नम्बि

शिष्य : पराशर भट्टर , वेदव्यास भट्टर

स्थान जहाँ से परमपदम प्रस्थान हुए : श्री रंगम

रचना : विज्ञान स्तुति , एम्पेरुमानार वडि वळगु पासुर (पंक्ति )

गोविन्द पेरुमाळ कमल नयन भट्टर् और श्री देवी अम्माळ को मधुरमंगलम में पैदा हुए । ये गोविन्द भट्टर, गोविन्द दासर और रामानुज पदछायर के नामों से भी जाने जाते हैं । कालान्तर में ये एम्बार् के नाम से प्रसिध्द हुए । ये एम्पेरुमानार के चचेरे भाई थे । जब यादव प्रकाश एम्पेरुमानार को हत्या करने की कोशिश की तब ये साधक बनकर  उन्हें मरने से बचाया ।

एम्पेरुमानार की रक्षा करने के बाद अपनी यात्रा जारी रखते हैं और कालहस्ती पहुँचकर शिव भक्त बन जाते हैं । उन्हें सही मार्ग दर्शन करने के लिए एम्पेरुमानार पेरिय तिरुमलै नम्बि को उनके पास भेज देते हैं । जब गोविन्द पेरुमाळ अपने पूजा के निमित्त फूल तोड़ने के लिए नन्दनवन पहुँचते हैं तब पेरिय तिरुमलै नम्बि तिरुवाय्मोळि पाशुर् “देवन् एम्पेरुमानुक्कल्लाळ् पूवुम् पुसनैयुम् तगुम्” सुनाते हैं । जिसका मतलब हैं की केवल एम्पेरुमान् श्रीमन् नारायण ही फूलों से पूजा करने के अधिकारी हैं और अन्य कोई भी देवता इस के लायक नहीं हैं । इसे सुनकर गोविन्द पेरुमाळ को तुरंत अपनी गलती का एहसास होता हैं और शिव के प्रति भक्ति छोड़कर पेरिय तिरुमलै नम्बि के आश्रित हो जाते हैं । पेरिय तिरुमलै नम्बि उन्हें पंच संस्कार करके सम्प्रदाय के अर्थ विशेष प्रदान करते हैं। उसके पश्चात अपने आचार्य पेरिय तिरुमलै नम्बि की सेवा में कैंकर्य करते हुए रह जाते हैं ।

एम्पेरुमानार पेरिय तिरुमलै नम्बि से तिरुपति में मिलते हैं और उनसे श्री रामायण की शिक्षा प्राप्त करते हैं । उस समय की कुछ घटनाओ से हमें एम्बार् की महानता मालुम पड़ती हैं । आईये संक्षिप्त में उन संघटनाओं को देखे :

१.गोविन्द पेरुमाळ अपने आचार्य पेरिय तिरुमलै नम्बि की शय्यासन तयार करने के पश्चात वे आचार्य से पहले खुद उसके ऊपर लेट जाते हैं । एम्पेरुमानार् इस विषय को तिरुमलै नम्बि को बताते हैं । जब गोविन्द पेरुमाळ को इसके बारे में पूछते हैं तब वे जवाब देते हैं की ऐसे कार्य करने से उन्हें नरक प्राप्त होना निश्चय हैं परन्तु उसके बारे में उन्हें चिंता नहीं हैं । उनके आचार्य की तिरुमेनि (शारीर) की रक्षा करने में वे चिंतामग्न हैं । इसी का वर्णन मामुनिगळ श्री सूक्ति में करते हैं ( तेसारुम् सिच्चन् अवन् सीर् वडिवै आसैयुडन नोक्कुमवन् )

२.एक बार गोविन्दपेरुमाळ सांप के मुह मे हाथ दालकर कुछ निकालने की कोशिश कर रहे थे और उसके पश्चात वह भाह्यशरीर शुद्धिकरण (नहाने) हेतु चले गए । एम्पेरुमानार यह दृश्य दूर से देखकर अचंभित रह गए । जब एम्पेरुमानार उनसे इसके बारे में पूछते है तब वे बताते हैं की सांप के मुँह में काटा था और इसी लिए वह काटे को निलाने की कोशिश कर रहे थे और अन्त मे निकाल दिया । उनकी जीव कारुण्यता को देखकर अभिभूत हो गए ।

३.एम्पेरुमानार जब तिरुमलै नम्बि से आज्ञा माँगते हैं तब उन्हें कुछ भेंट समर्पण करने की इच्छा व्यक्त करते हैं । एम्पेरुमानार उन्हें गोविन्द पेरुमाळ प्रसाद करने को कहते हैं । तिरुमलै नम्बि आनंद से गोविन्द पेरुमाळ को सोंप देते हैं और उन्हें समझाते हैं की एम्पेरुमानार को उन्ही की तरह सम्मान करें और गौरव से व्यवहार करें । कांचिपुरम पहुँचने के पहले ही गोविन्द पेरुमाळ अपने आचार्य से जुदाई सहन नहीं कर पाते हैं और वापस आचार्य के पास पहुँच जाते हैं । लेकिन तिरुमलै नम्बि उन्हें घर के अन्दर आने की इझाजत नहीं देते हैं और कहते हैं की उन्हें एम्पेरुमानार को दे दिया हैं और उन्हें उन्ही के साथ रहना हैं । आचार्य की मन की बात जानकर एम्पेरुमानार के वापस चले जाते हैं ।

श्री रंगम पहुँचने के बाद गोविन्द पेरुमाळ के माता की प्रार्थन के अनुसार उनके शादि की व्यवस्था करते हैं । गोविन्द पेरुमाळ अनिच्छा पूर्वक शादि के लिए राज़ी होते हैं । लेकिन उनके पत्नी के साथ दाम्पत्य जीवन में भाग नहीं लेते हैं । एम्पेरुमानार विशेष रूप से गोविन्दपेरुमाळ को उनकी पत्नी के साथ एकान्त मे समय व्यतीत करने का उपदेश देते है परन्तु गोविन्दपेरुमाळ उनके पास निराशा से लौटकर कहते है की उन्होने ऐसा कोई  एकान्त जगह या स्थल नही देखा या मिला क्योंकि उन्हे सर्वत्र एम्पेरुमान दिखाई दे रहे है ।

तुरन्त एम्पेरुमानार उनकी मानसिक परिस्थिति जानकर उन्हें सन्याश्रम प्रादान करते हैं और एम्बार् का दास्यनाम देकर उनके साथ सदैव रहने के लिए कहते हैं ।

एक बार कुछ श्रीवैष्णव एम्बार् की स्तुति कर रहे थे और श्रीएम्बार् उस स्तुति का आनन्द लेते हुए श्रीएम्पेरुमानार की नज़र मे आए । श्रीएम्पेरुमानार ने गौर करते हुए श्रीएम्बार् को बताया की प्रत्येक श्रीवैष्णवों को स्वयम को एक घास के तिनके के समान तुच्छ मानना चाहिए और कदाचित प्रशंशा स्वीकार नही करनी चाहिए । प्रत्येक श्रीवैष्णव तभी प्रशंशा के योग्य होंगे जब उनमे विनम्रता का आभास उनके व्यवहार मे प्रतिबिम्बित हो ।

उत्तर देते हुए वे कहते हैं की अगर किसी ने उनकी स्तुति की तो वोह स्तुति उन्हें नहीं बल्कि एम्पेरुमानार को जाती हैं क्योंकि एम्पेरुमानार ही वह एक मात्र व्यक्ति हैं जिन्होंने बहुत ही निचे स्तिथि में रहते उन्हें संस्कार किया हैं । एम्पेरुमानार उनके वचन स्वीकार करते हैं और उनकी आचार्य भक्ति की प्रशंसा करते हैं ।

एम्पेरुमान् के आपर कारुन्य और उनके दिए गए प्रसाद से आण्डाळ् को( कूरताल्वान् की पत्नी) दो शिशु पैदा हुए । एम्पेरुमानार् एम्बार् के साथ उनके नामकरण उत्सव को जाते हैं । एम्बार् से शिशुओ को लेकर आने का आदेश करते हैं । लेकर आते समय शिशुओ को रक्षा करने के लिए द्व्य महा मंत्र उन्हें सुनाते हैं । जब एम्पेरुमानार् उन्हें देखते हैं तब उन्हें तुरन्त एहसास होता हैं की एम्बार् ने उन शिशुओं को द्व्य महा मंत्र का उपदेश किया हैं ।एम्बार् को उनके आचार्य स्थान लेने का आदेश करते हैं । इस तरह वेद व्यास भट्टर् और पराशर भट्टर् एम्बार् के शिष्य बने ।

एम्बार् लौकिक विषय में इच्छा रहित थे । निरंतर केवल भगवद् विषय में जुटे रहते थे ।वे भगवद् विषय में महा रसिक ( आनंद / मनोरंजन चाहने वाले ) थे । कई व्याख्यान में एम्बार् के भगवद् विषय अनुभव के बारे में चर्चा की गयी हैं ।
कुछ इस प्रकार :

१. पेरियाळ्वार् तिरुमोळि के अंतिम पाशुर में “छायै पोला पाडवल्लार् तामुम् अनुकर्गळे ” का अर्थ श्री वैष्णव एम्बार् से पूछते हैं तब वे व्यक्त करते हैं की उस पाशुर का अर्थ उन्होंने एम्पेरुमानार् से शिक्षा प्राप्त नहीं किया हैं । उस समय वे एम्पेरुमानार् के श्री पाद अपने सिर पे धारण करके उनका ध्यान करते हैं । उसी समय एम्पेरुमानार् “पाडवल्लार् – छायै पोला – तामुम् अनुकर्गळे ” करके उस पाशुर का अर्थ प्रकाशित करते हैं जिसका मतलब हैं की जो कोई भी यह पाशुर पठन करेंगे वे एम्पेरुमान् के करीब उनकी छाया जैसे रहेंगे।

२. पेरियाळ्वार् तिरुमोळि २.१ का अभिनय उय्न्था पिल्लै अरयर् कर रहे थे तब वे बताते हैं कण्णन् एम्पेरुमान् अपने आँख डरावनी करके गोप बालकों को डराते थे । पीछे से एम्बार् अभिनय पूर्वक बताते हैं की कण्णन् एम्पेरुमान् अपने शँख और चक्र से गोप बालकों को डराते हैं । इसे अरयर् ध्यान में रखकर अगली बार एम्बार् के बताये हुए क्रम में अभिनय करते हैं । इसे देखकर एम्पेरुमानार् पूछते हैं ” गोविन्द पेरुमाळे इरुन्थिरो “(आप गोष्टि के सदस्य थे क्या ) क्यूंकि केवल एम्बार् को ही ऐसे सुन्दर अर्थ गोचर हो सकता हैं ।

३. तिरुवाय्मोळि(मिन्निडै मडवार् पदिगम् – ६.२ ) में आळ्वार् के हृदय में कण्णन् एम्पेरुमान् से विश्लेश का दुःख सन्यासी होते बाकी उन्हें ही अच्छी तरह समझ आगई । और वे उस विशेष पदिगम् ( १० पाशुर ) का अर्थ अद्भुत रूप से बता रहे थे उन्हें सुनकर श्री वैष्णव आश्चर्य चकित हो गए । इससे यह स्पष्ट होता हैं की एम्पेरुमान् का किसी भी विषय आनंददायिक हैं और अन्य किसी भी तरह के विषय त्याग करने के लायक हैं ।
इसी विषय को “परमात्मनि रक्तः अपरात्मानी विरक्तः ” कहा जाता हैं ।

४. तिरुवाय्मोळि (१० -२ ) के व्याख्यान में एक दिलचस्प विषय बताई जाती हैं । एम्पेरुमानार् अपने मट में तिरुवाय्मोळि के अर्थ विशेष को स्मरण करते हुए टहल रहे थे और पीछे मुड़कर देखे तो उन्हें एम्बार् दिखाई दिए । एम्बार् उन्हें दरवाज़े के पीछे रहकर देख रहे थे और एम्पेरुमानार् से पूछते हैं की क्या वे मद्दित्हें पाशुर के बारे में ध्यान कर रहे थे और उस विषय को एम्पेरुमानार् मान लेते हैं इससे पता चल रहा हैं की एक छोटी सी काम करने से ही उन्हें एम्पेरुमानार् की सोच के बारे में जानकारी हो जाती हैं ।

अंतिम समय पर पराशर् भट्टर् को आदेश देते की श्री वैष्णव सम्प्रदाय का प्रशासन श्री रंगम से कियी जाय । और ये भी सूचित करते हैं की वे निरंतर “एम्पेरुमानार् तिरुवडिगळे तन्जम्” (एम्पेरुमानार् के श्री पाद ही सोने के बराबर हैं ) कहके आलोचना करे ।एम्पेरुमानार् पे ध्यान करते हुए अपनी चरम तिरुमेनि (शरीर ) छोड़कर एम्पेरुमानार् के साथ नित्य विभूति में रहने के लिए परम पदम् प्रस्थान करते हैं ।

आईये हम भी उन्ही की तरह एम्पेरुमानार् और आचार्य के प्रति प्रेम पाने के लिए उनके श्री चरणों पे प्रार्थन करें ।

तनियन :
रामानुज पद छाया गोविन्दह्वा अनपायिन्ल
तद यत्त स्वरुप सा जियान मद विश्रामस्थले

अगले भगा में पराशर् भट्टर् की वैभवता जानने की कोशिश करेंगे ।

source

अडियेन इन्दुमति रामानुज दासि